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बादामी के चालुक्य नरेश और जैनधर्म
श्री दुर्गाप्रसाद दीक्षित एम० ए०
सातवाहन साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर दक्षिण में अनेकों राजवंशों का उदय और प्रस्त हुआ । प्रायः सभी राजवंश अपने प्रतिद्वन्दियों को हराकर एक साम्राज्य निर्माण की कामना रखते थे। जिस समय उत्तर भारत गुप्त साम्राज्य के स्वर्ण युग से गुजर रहा था उसी समय विदर्भ तथा उसके आसपास के प्रदेशों पर वाकाटको का राज्य था । परन्तु दक्षिण भारत मे छोटी २ राज शक्तिया आपस में लड़ रहीं थीं। तभी दक्षिण में एक नवीन राजवंश का उदय हुआ जिसने करीब २५० वर्ष तक दक्षिण की इन विश्रंखलित शक्तियो को एक सूत्र मे बाधने का प्रयत्न किया। उनकी यह सफलता, उस समय उन्नति की चरम सीमा पर थी, जब उत्तर भारत मे सम्राट् हर्षवर्धन का शासन था। यह शक्ति सम्पन्न राज्य बादामी के चालुक्य नरेशों का था ।
इस अटल सत्य से मुख मोड़ा नहीं जा सकता है, कि इस राजवंश के शासन काल में दक्षिण में जो सास्कृतिक विकास उसकी हुपा किसी भी राजवंश के शासन तुलना युग के सांस्कृतिक विकास से की जा सकती है दक्षिण के कलात्मक वैभवों की प्राधार शिला इस युग में ही रखी गयी थी। जन्ता एलोरा और एलीफन्टा की गुफाओं में प्रदर्शित भारतीय कला का बहुत बडा भाग इसी युग की देन है । संस्कृत और कन्नड़ भाषाश्रो का जो मुखरित स्वरूप हमे पश्चिमी चालुक्यों के अभिलेखों में मिलता है, वह निसन्देहात्मक रूप से इस तथ्य की घोषणा करता है कि इस राजवंश ने न केवल इन भाषाओं के विद्वानों को प्राय ही दिया बल्कि प्रगति के लिए समुचित वातावरण प्रदान किया था। इन परिस्थितियों मे रविकीर्ति का यह स्वाभिमान नितान्त स्वाभाविक ही है कि वह कवि कुल गुरु शिरोमणि कालिदास तथा भारवि से अपनी तुलना
१ मिराशी; वा०वि०, वाकाटक नृपति और उनका काल
करे २ |
धर्म के भी क्षेत्र में यह राजवंश किसी से पीछे नहीं या चालुक्यों की छत्र छाया में सभी धर्मों को समान रूप से पल्लवित पुष्पित तथा फलित होने का अवसर मिला। बादामी चालुक्य नरेशों के अनेक अभिलेखों मे अनेकों मन्दिरों, शिवालयों, तथा गुफा गृहों के निर्माण का उल्लेख है । जिसके लिए उन्होंने अनेकों दान दिये थे । यह प्रायः सत्य ही है कि उनका व्यक्तिगत धर्म व प्रथवा वैष्णव था, परन्तु उन्होंने स्वधर्म को किसी पर लादा नहीं था। अनेकों राज परिवार के सदस्यों द्वारा जिनालयो जैन संस्थानों और अन्य धार्मिक सम्प्रदायों को दान देना, तथा जैन विश्वासु धौर बद्धालुओं का उच्च राजकीय पद पर होना ३, उनकी धर्म निरपेक्षता का जीता जागता और जलता हुधा नमूना है।
शायद ही भारत का ऐसा कोई क्षेत्र हो जहां जैन धर्म के परिश्रमी प्रचारक न पहुँचे हो। आधुनिक महाराष्ट्र, मैसूर, धाध्र प्रदेश तथा गुजरात के जिन अंशों पर छठी सातवी शताब्दी में बादामी के चालुक्य नरेशों का प्राधि पत्य था, वहाँ मात्र भी इतनी शताब्दियों के बावजूद जैनधर्म बड़ी श्रद्धा और बादर को दृष्टि से देखा जाता है। यह तथ्य हो इस तर्क को उद्घोषणा करता है कि चालुक्यों की छत्र छाया में जैन प्रसारकों को अनुकूल वातावरण और सरक्षण प्राप्त हुप्रा था । उस युग के कलात्मक निर्माण मे जैन भिक्षुषों का पर्याप्त है। २ ऐहोल प्रशस्ति एपिग्रेफिया इण्डिका जिल्द ६, पृ० ७. "येनायोजि नवेश्मास्थिरम विधी विवेकिता जिनवेदयम स विजयतां रविकीर्ति X कविताश्रित कालिदास भारवि कीर्तिः ॥३७॥" ३ एहोल प्रशस्ति का लेखक रविकीर्ति एवं चालुक्यो के शासन पत्रों के लेखक, जो महासन्धि विग्रहीक भी थे, जैनधर्मावलम्बी प्रतीत होते हैं।