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जैन तर्क में हेत्वनुमान
डा. प्रद्युम्नकुमार जैन एम. ए. पो-एच. डो. तर्कशास्त्र (Logic) चाहे भारतीय रहा हो अथवा भारतीय तर्कशास्त्र के विवेचन मे प्रमा ज्ञान अथवा पश्चिमी, हेत्वनुमान (Sytlogism) सर्वत्र ही न्याय की विशुद्ध ज्ञानोपलब्धि के कारण रूप में प्रमाण का सम्यक् धूरी रूप में स्वीकार किया गया है। उसकी यथार्थ स्थिति विवेचन सभी तर्क शास्त्रियों को मान्य रहा है। यद्यपि और रूप का निर्णय तर्कशास्त्र का मुख्य विषय है । यहा प्रमाण की संख्या के बारे में मतभेद मिलता है, परन्तु लेखक को केवल जैन तर्काश्रित हेत्वनुमान का एक सरल प्रामाणिक चितन के लिए प्रमाणशास्त्र के अध्ययन पर अध्ययन पश्चिमी तर्कशास्त्र के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना सभी एकमत है। जैन परम्परा के अनुसार प्रमाण के अभीप्सित है।
केवल दो भेद है-प्रत्यक्ष और परोक्ष३ । परोक्ष प्रमाण हंत्वनुमान (Syllogism) क्या है ?
के भी स्मृति प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान, और पागम भेद हेत्वनुमान का तकनीकी प्रयोग पश्चिमी तर्कशास्त्र मम्मत है। इन भेदों में न्याय की दृष्टि से केवल तर्क की प्रमुख देन है। अनुमान की प्राकारी (Formal) और अनुमान का ही महत्व है। तर्क व्याप्ति-निर्माण की प्रशाखा में अव्यवहित (Immediate) और व्यवहित एक प्रक्रिया है, जिसे पश्चिमी तर्कशास्त्र मे अागमन पद्धति (Mediate) प्रकारों मे से व्यवहित का प्रकाशन हेत्वन- के रूप में अध्ययन किया जाता है। अनुमान साधन से मान के रूप में ही होता है। अतः पश्चिमी तर्कशास्त्र के
माध्य-ज्ञान की उपलब्धि में निहित है५ । यही साधन से जनक 'परस्तू' ने हेत्वनुमान की परिभाषा इस प्रकार की,
साध्य-विज्ञान की शाब्दिक अभिव्यक्ति भारतीय तर्कशास्त्र "हेत्वनुमान एक वह रीति है जिसमे कुछ कथित चीजो से
मे परार्थानुमान रूप मे अभिप्रेत है, जो पश्चिमी तकशास्त्र तद्भिन्न कुछ अन्य चीजे अनिवार्य रूपेण निगमित होती
के हेत्वनुमान के समकक्ष है। अतः परार्थानुमान और है।" इसी परिभाषा को परिष्कृत रूप में 'ब्रडले'ने हेत्वनुमान प्रयोजन की दृष्टया लगभग एक ही है। प्रकट किया, कि "हेत्वनुमान वस्तुत: एक तर्क है, जिसमे जैन हेत्वनुमान का प्रारूप उद्देश्य और विधेय के रूप मे, दो पदो का एक ही नीसरे जन नैयायिकों का हेत्वनुमान के सम्बध मे अपना पद के साथ दिए हुए संबन्ध में अनिवार्य रूपेण स्वय उन्ही एक विशिष्ट दृष्टिकोण है जो हिन्दू और पारस्तवीय नयादोनो पदो के मध्य, उद्देश्य विधय रूप मे, सम्बध निगमित यिकों के दृष्टिकोणो से अशत: साम्य रखते हुए सम्पूर्णत किया जाता है।" इससे स्पष्ट है, कि हेत्वनुमान अनुमान उनसे भिन्न है। जैन हेत्वनुमान का आकार अपेक्षाकृत का एक विशिष्ट तकनीक है, जिसके द्वारा प्रकृत अनुमान संक्षिात है। उसमे केवल दो अवयव अभिप्रेत है, जब कि को सुव्यवस्थित ढंग से दूसरो तक पहुँचाया जा सकता है, न्यायदर्शन मे पाँच और पारस्तवीय लॉजिक में तीन माने मौर निष्कर्ष की वैधता पूर्वस्वीकृत सिद्धान्तों के प्राधार जाते है । यथापर सिद्ध की जा सकती हैं। इसमें तीन पद होते है, जिनमें
पर्वत पर अग्नि है, एक मध्यम पद के द्वारा शेष दो पदों में सम्बध प्रस्थापित
क्योंकि वहां धूम्र है। किया जाता है।
३. परीक्षामुखम्-२-१ १. Anal Priora, 24 b, 18 से ।
४. वही-३-२ २. Principles of Logic, Bk. Il pt. I CIV, P.10 ५. वही-३-१४, प्रमाण मीमांसा १-२-७
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