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बादामी के चालुक्य नरेश और जैनधर्म
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संस्कृति और शिक्षा के तत्कालीन कुछ केन्द्र यद्यपि पाज कलापो का बडा ही सुन्दर एवम् साहित्यिक वर्णन है। छोटे नगर है। पर उनके अवशेष, मन्दिरो तथा जिनालयों इसमे रविकीति के द्वारा एक जिनेन्द्र भवन के निर्माण में बची हुई कलाकृतियाँ तथा वास्तु के नमूने उनकी का उल्लेख है। यद्यपि अभिलेख में यह नहीं बताया गया भव्यता, गौरव, प्रसिद्धि तथा उच्चता के प्रतीक है। है कि जिनालय का निर्माण कहाँ हुमा था, परन्तु अभिलेख
बादामी के चालुक्य नरेशों के इतिहास जानने के का एहोल में उपलब्ध होना यह मूचित करता है कि प्रमुख माधन, उनके अभिलेख, तत्कालीन कलाकृतियाँ इसका निर्माण कही एहोल नगर में ही हुआ था। प्रशस्ति नथा द्वेनसांग के विवरण हे। इस वश के लगभग एक मे ऐमा प्रतीत होता है कि रविकोति पुलिकेशन द्वितीय दर्जन अभिलेखों का उद्देश्य जैनधर्म से सम्बन्धित है। का कोई अधिकारी था। उसके द्वारा पुलिकेशन द्वितीय कालक्रमानुसार प्रथम चालुक्य वशीय जैन अभिलेख प्रल्तेम के शासन काल का बड़ा ही मूक्ष्म विवरण इस विचार का मे प्राप्त हुआ था। इस अभिलेख को अधिकतर समर्थन करता है । दूसरा अभिलेख लक्ष्मेश्वर (धारवाड़ विद्वानों ने जाली माना है। लेकिन प्राय सभी विद्वान जिला) में प्राप्त हुप्रा है। इस अभिलेख की सत्यता इस विचार से सहमत है कि जाली अभिलेखों के सभी पर कुछ विद्वानो ने शंका व्यक्त की है १० । लक्ष्मेश्वर अभिसन्दर्भ जाली ही हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता है । इस लेख मे सेन्द्रक राजा दुर्गशक्ति द्वारा, पुलिगेरे नगर में अभिलेख में चालुक्य सम्राट् सत्याश्रय (पुलि के गिन् प्रथम) एक क्षेत्र दान देने का उल्लेख है। इस दान का उद्देश्य का उल्लेख है। तदुपरान्त कुहण्डि विषय के शासक शंख जिनेन्द्र के चैत्य में पूजा की शाश्वत व्यवस्था थी११॥ रुद्रनीक सैन्द्रक वंशीय सामियार राजा का वर्णन है। सेन्द्रक राजा चालुक्यो के सामन्त थे । सामियार ने अलक्तक नगर में एक जैन मन्दिर बनवाया चालुक्य विक्रमादित्य प्रथम के शासनकाल के एक था, तथा इसी मन्दिर के लाभार्थ उसने सम्राट् सत्याश्रय अभिलेख मे१२ राजा के द्वारा कुरुतकुण्टे ग्राम के दान का की प्राज्ञा से शक ४११ में कुछ गाँवों का दान दिया था। उल्लेख है। दान ग्रहणकर्ता रवि शर्मा बमरि मघ का था। इम ताम्रपत्र की त्रुटिपूर्ण तिथि तथा अन्य अनेक प्राधारों
सम्भवतः इस बमरि सघ का सम्बन्ध जनो मे है। इसकी पर फ्लीट तथा अन्य विद्वानों ने इसे जाली माना है।
त्रुटि पूर्ण तिथि तथा अन्य अनेक प्राधागे पर विद्वानो ने कीर्तिवर्मन प्रयम एवं उसके अनुज मङ्गलेश के राज्यकाल
इसे जाली माना है .३ । चालुक्य विनयादिन्य के शासनका हमें कोई भी जन अभिलेख नहीं मिलता है। लेकिन
काल के केवल एक अभिलेख का सम्बन्ध जैनधर्म से है। इससे यह अनुमान निकालना प्रसगत ही होगा कि उपयुक्त इममे विनयादित्य द्वारा पाक ६०८ मे मूलसघ परम्परा की मम्राटो के समय मे जैन सम्प्रदाय और धर्म के प्रचार मे
देवगण शाखा के किसी जैन प्राचार्य को दान देने का गज्य की तरफ से कोई रुकावट थी ।
उल्लेख है१४ । फ्लीट महोदय ने लक्ष्मेश्वर से उपलब्ध पुलकेशिन् द्वितीय के शासन काल के दो अभिलेखों
इस मभिलेख को भी जाली करार दिया है१५ । परन्तु का सम्बन्ध जैनधर्म से है। प्रथम अभिलेख एहोल प्रशस्ति का लेखक रविकीति एक जिन उपासक था। इस
६ इ० ए० जिल्द ७, पृ० १०६ ।
१० इ० ए० जिल्द ३०, पृ० २१८, न० ३७ प्रशस्ति मे पुलकेशिन द्वितीय की विजयों तथा अन्य कार्य
११ इण्डियन एण्टि क्वेरी जिल्द ७. पृ० ११६ और मागे। ४ पुलिकेरि, प्राडूर, परलूर तथा अण्णिगेरि प्रादि । १२ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० २१६ ५ इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ७, पृ० २०६
१३ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० २१६ तथा जिल्द ३० ६ इ० ए०, जिल्द ७, पृ० २०९-२१४
पृ० २१७ नं. ३० ७ इ. ए., जिल्द ७, पृ० २०९-२१४ एवं जिल्द ३०, १४ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० ११२ और आगे।
पृ० २१८, न० ३५ १५ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द ७, पृ० ११२ तथा प्रागे ८ एहोल प्रशस्ति, ए० इ०, जिल्द ६, पृ. ७
पौर जिल्द ३०, पृ० २१८, नं० ३८