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अनेकान्त
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सुदि १५ के दिन रची गई थी रचना में पंचसहेलियों के विरह का वर्णन है। वर्णन सहज और स्वभाविक है।
पन्थीगीत - सासारिक दुख का एक पौराणिक उदाहरण है। इसे रूपक काव्य कहा जा सकता है। यह पौराणिक दृष्टान्त महाभारत और जैन ग्रन्थो मे पाया जाता है । वहाँ इसे संसार वृक्ष के नाम से उल्लेखित किया गया है :
एक पथिक चलते चलते रास्ता भूल गया और सिहो के वन मे पहुँच गया । वहा रास्ता भूल जाने मे बह जगल मे इधर उधर भटकने लगा। उसी समय उसे सामने एक मदोन्मत्त हावी प्राता हुआ दिखाई दिया, उसका रूप रौद्र था और वह क्रोधवश अपने शुण्डादण्ड को हिलाता हुमा था] रहा था। पथिक उसे देख भयभीत होकर भागने लगा और हाथी उसके पीछे पीछे चला वहा पासपूम से ढका हुम्रा एक धन्धा कुप्रा था पन्थी को वह न दिखा, और वह उसमें गिर गया, उसने वृक्ष की एक टहनी पकड ली मौर उसके सहारे लटकता हुप्रा दुख भोगने लगा । उस कुए के किनारे पर हाथी खडा था, उसमे चारो दिशाम्रों में चार सर्प मौर बीच मे एक प्रजगर मुहवाए पड़ा था । उम कुए के पास एक वटवृक्ष था, ਰਸ ਸ मधुमक्खियों का एक छत्ता लगा हुआ था। हाथी ने उसे हिला दिया, जिससे भगति मधु मक्सिया उडने लगी और मधु की एक एक विन्दु उम पथिक के मुख मे पड़ने लगी । इसमें कूप संसार है, पंथी जीव है, सर्प गति है, निगोद है, हाथी अज्ञान है और मधु विन्दु विषय
कवि कहता है कि यह संसार का व्यवहार है। प्रतः हे
गवार तू चैत, जो मोह निद्रा मे गोते है वे अधिक असा! वधान है । इन्द्रियरस मे मग्न हो परमब्रह्म को दिया भुला है, इस कारण तेरा नर जन्म व्यर्थ है । कवि छोहल कहते है कि हे धात्मन् तू जिनेन्द्र प्रतिपादित धर्म का अवलम्वन कर कर्म बन्धन से छूट सकता है— जैसा कि उक्त गीत के निम्न पद्य से प्रकट है:"संसार को यह विवहारो चित चेतहरे गंधारी, मोहनिद्रा में से जनता से प्राणी प्रति के गूता । प्राणी में बहुत से जिन परमा विसारियो, भ्रम भूमि इंद्रिय तनो रस, नर जनमगंवाइयो ।
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अजगर
है।
बहु काल नामा दुख बरसा छील हे कश्चिर्म, जिन भाषित जुगतिस्यो त्यो मुक्ति पद लह्यो ।” पचेन्द्रिय बेलि ४ पद्यों की एक लघु रचना है, जिसमें धात्मसम्बोधन का उपदेश निहित है। अपने धराध्यदेव को घट में स्थापित करने के लिये हृदय की पवित्रता - वश्यक है, यदि घट पवित्र है तो जप, तप, तीर्थयात्रा दि सब व्यर्थ है, मत घट की प्रान्तरिक शुद्धि को लक्ष्य में रख कर भव-समुद्र से तिरा जा सकता है ।
चौथी कृति बावनी है, जो छोहल बावनी के नाम से प्रसिद्ध है यह रचना ० १५०० की कार्तिक शुक्ला प्रष्टमी गुरुवार के दिन रची गई है १ । इसकी पद्य संख्या ५३ है । कवि ने इसमे पांचो इन्द्रियो के विषय राग से होनेवाले परिणाम का सुन्दर चित्रण करते हुए इन्द्रिय विषयों से अपना मरक्षण करने की प्रेरणा की है। कवि की भाषा पर ब्रज और राजस्थानी का प्रभाव अंकित है उसका आदि और अन्त भाग इस प्रकार है:
मोंकार प्राकार रहित प्रविगत अपरम्पार । अलख जोनी . सृष्टि कर्ता विश्वम्भर । घट-घट अंतर वस तासु चीन्हह नहि कोई 1 जल-बल-सुर-पालि जिहां देख तिहं सोई। जोगसिद्ध मुनिवर जिनके प्रबल महातप सिद्ध । 'छोहल' कहs त पुरुष को किणही प्रन्त न लख ॥। १ X X X
नाव श्रवण धावन्त तजह मग प्राण ततक्खण, इन्द्रिय परस गयद वारिज, प्रति मरह विचक्षण । लोण बुधपतंग पड़ाव पेलन्तर । रसना स्वाद विलग्गि, मीन बज्झइ बेखन्तउ मृग मीन- भंवर कुजर पतग ए सम विणसह इक्करसि छोहल कहइ रे लोइया इन्द्रिय रक्खउ प्रप्यवसि ॥२ मृगवन मज्झि चरंत रिउ पारधी पिक्ख तिहि । जब पछि पुनि चल्यो अधिक रोपिय भतिहि । दिसाहिबान सिंह जिय सन्मुख धाय । १- चउरासी प्रग्गल सइजु पनरह संवच्छर ।
सुकुल पक्ष प्रष्टमी कालिंग गुरुवासर - बावनी हृदय उपग्मी बुद्धि नाम श्री गुरु को लीन्हों । सारद तराइ पसाह कवित सम्पूरण कीन्हों ।। "बावनी