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अनेकान्त
और अध्यात्मरस से सराबोर है पढ़ते ही हृदय में विषयों लाया है। वे मात्म-सम्बोधकी भावना से परिपूर्ण है। के प्रति ग्लानि और स्वरूपको पहिचानने की दृष्टि मा जाती खटोलना गीत भी माध्यात्मिकता से प्रोत-प्रोत है। यह है, उनका हृदय पर प्रभाव पडे बिना नहीं रहता, किन्तु रचना अनेक वर्ष १० कि० ३ में प्रकाशित हा चुकी है। मोहवश वह प्रल्पकालिक होता है। पाठकों की जानकारी ग्यारहवें कवि जगजीवन हैं-जो आगरा के निवासी के लिए यहां तीन-चार दोहे दिये जाते है :
पोर संघवी अभयराज तथा मोहनदे के पुत्र थे । यह परकी सगति तुम गए, खोई अपनी जाति ।
विद्वान कवि और अध्यात्म शैली के वरिष्ठ प्रेरक थे। पापा पर न पिछानहू, रहे प्रमावनि माति ॥४२ इनकी जाति अग्रवाल मौर गोत्र गर्ग था। सघवी प्रभैराज बिना तत्स्व पर लगत, अपरभाव अभिराम ।
उस समय सबसे अधिक सुखी और सम्पन्न थे। उनके ताम और रस हचित हैं, प्रमत न चाख्यो जाम 10%
अनेक पत्नियां थीं; जिनमें सबसे छोटी मोहनदे से जगचेतन के परवं बिना, जप तप सब प्रकयत्य ।
जीवन का जन्म हुआ था। सघवी अभयराज ने प्रागरा कन विन तुष ज्यों फटकते, कछु न प्राव हत्य ।।८५
मे एक जिनमन्दिर बनवाया था। जगजीवन जाफर खां चेतन सौ परचं नहीं, कहा भये व्रतधारि ।
के दीवान थे, और जाफरखा बादशाह शाहजहा का पाँच सालि विहने खेत की, वृथा बनावति वारि ८६
हजारी उमराव था। उस समय की अध्यात्म शैली मे मगल गीत प्रबन्ध और नेमिनाथ रास दोनों ही सुन्दर रचनाएं है । जो पाठकों को अपनी प्रोर
हेमराज, रामचन्द्र, मथुरादास, भवालदास, भगवतीदास प्राकर्षित करती हैं । समवसरण पाठ संस्कृत की
और प० हीरानन्द प्रादि थे। “सम जोग पाइ जगजीवन रचना को सं० १६६२ मे बना कर समाप्त किया था।
विख्यात भयौ, ज्ञानिन की मण्डली में जिस को विकास वह आगरे मे पाये थे और तिहुना साहु के देहरे (मन्दिर)
है।" प० हीरानन्द की जगजीवन की प्रेरणा से समव
है। में टहरे थे। तब बनारसी दास और उनके साथियों ने सरण विधान सं० १७०१ में बनाया था और उन्हीं गोम्मट सार ग्रंथ बचवाया था, रूपचन्दजी ने कर्म सिद्धान्त जगजीवन की प्रेरणा से सं० १७११ में पचास्तिकाय का का वर्णन कर एकान्स दृष्टि को दूर किया था, इससे पद्यानुवाद रचा था।
(क्रमशः) बनारसीदास और उनके साथी जैनधर्म में दृढ़ हुए थे। देखो जैन ग्रंथ सूची प्र० ४ पृ० १०२।। पाप प्रध्यात्म रस के रसिया थे। पापके प्रध्यात्मिक पदों ३.पब सुनि नगरराज पागरा, सकल सोभ अनुपम सागरा। मे विषय-विरक्ति और अध्यात्मरम का अनुभव मिलता है,
साहजहां भूपति है जहां, राज करै नयमारग तहां ।७५ पद बड़े ही सरल एवं प्रात्म-मम्बोधक है। परमार्थी दोहा
ताको जाफर खां उमगव, पंचहजारी प्रगट कराउ। पालक मे सुन्दर दोहों द्वारा विषय सेवन से होने वाले
ताको अगरवाल दीवान, गरगगोत सब विधि परधान ७६ कटुक फलों का दिग्दर्शन कराते हुए उन्हें निस्सार बत
मघही प्रभैराज जानिए, सुखी अधिक सबकरि मानिए। १. श्रीरसहारेऽस्मिन्नरपतिनुतयविक्रमादित्य राज्ये- वनितागण नाना परकार, तिनमें लघु मोहनदे सार ।।८० ऽतीतेदुगनंदभद्रांशु कत परिमिते (१६७२) कृष्णपक्षेषमासे। ताको पूत पूत सिरमौर, जगजीवन जीवन की ठौर ।। देवाचार्य प्रचारे शुभनवमितिथी सिद्धयोगे प्रसिटे। सुदररूप सुभग मभिराम, परम पुनीत घरम धन-धाम १
-समवसरण विधान पौनर्वस्वित्पुटर थे (?) समवसृतिमहं प्राप्तमाप्ता समाप्ति ।।।
त।" ४. पभैगज संघपति संघही को वनि उदेहरोनीको हो, २. अनायास इस ही समय नगर पागरे थान ।
साहिमती वाई उत्तिम सती सयानी भोरी हो। रूपचन्द पडित गुनी, प्रायो गम जान।
गिरधर पहित गुनगन मंडित बंधु नरायन जोरी हो। -प्रर्ध कथानक, ६३० प. तिहुनासाहु देहरा किया, तहा प्राइ लिन डेरा लिया।
___ बन्धु नरायनु गिरधरि पांडे, बहुत बिनो करि राखे ।
-अर्गलपुर जिनवन्दना जैन सं० शोषां० ५ सब प्रध्यात्मी कियो विचार, ग्रन्थ वचायो गोम्मटसार ॥ ५. किम साहु तिहना अग्रवाल और गर्ग गोत्रीय थे। इन्होने
सावन सुदि सातमि बुधि रमै । सं० १६१६ में प्राषाढ़ सुदि एकम के दिन मात्मानु- ता दिन सब संपूरन भया, शासन की सटीक प्रति लिसवाई थी।
समवसरन कहवत परिनया ॥२-समवसरण विधान