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मागारधर्मामृत पर इतर श्रावकाचारों का प्रभाव
सा. घ. में किया गया है।
दिखलाते हुए जो प्रभिप्राय व्यक्त किया गया है लगभग २. रानकरण्डक में मत्याणवत के स्वरूप को दिम्व. दही अभिप्राय १०माणाधर ने भी अपने सा.ध. में बसे लाते हुए यह कहा गया है कि स्थल झूठ का त्यागी- ही कुछ शब्दो द्वारा व्यक्त किया है। रत्नकरण्डक में मत्याणुवती-ऐसे सत्य वचन को भी न स्वयं बोलता है जंगे परस्त्री का परित्याग 'पापभीतेः' अर्थात केवल पाप पौर न दूसरे को बुलवाता है जो विपत्ति का कारण हो२। के भय से ही कराया गया है, न कि गजदण्डादिक भय इसको स्पष्ट करते हुए उसकी टीका में प्रभाचन्द्राचार्य ने मे, वैसे ही मा. ध में भी उगका परित्याग 'मंहसो कहा है कि जो सत्य भी बचन दूमरे को प्रापत्तिजनक हो भीत्या' अर्थात् पाप के हो भय से कराया गया है, गजउसे भी मत्याणुव्रती नही बोलता है।
दण्डादि के भय नहीं कगया गया। विशेषता यह रही है इम कथन को ५० प्राशाधर ने सोमदेव मूरि के कि 'परदागन्' पद के द्वाग जहाँ मा. समन्तभद्र को अनुसार४ कुछ और विकसित करते हुए 'सत्यमपि स्वा. स्वस्त्री मे भिन्न अन्य मभी स्त्रिया प्रभित है वहा सा. न्यापदे त्यजन्' कहकर यह सूचना की है कि जो सत्य भी ध. में 'अन्यस्त्री' मे अन्य मे सम्बद्ध पत्नी व पुत्री पादि वचन स्व व परको विपत्तिकर हो उसका भी परित्याग उसे मात्र विवक्षित दिखती है, अन्यथा वहां उसके साथ 'प्रकटकरना चाहिए५ । विशेषता यह रही है कि रत्नकरण्डक स्त्री' के ग्रहण की कुछ प्रावश्यकता नहीं रहती८ । दूसरी मे जहा 'विपदे' इनना मात्र सामान्य से कहा गया है और विशेषता यह है कि रत्नकरण्डक मे उक्त प्रत का उल्लेख जिमे उस पर टीका करते हुए प्रभाचन्द्राचार्य ने मात्र पर परदारनिवृनि और स्वदारसन्तोष इन दो नामों से को विपत्तिकर माना है, वहां प० प्राशाधर ने उसे पर के किया गया है, परन्नु मा. घ. मे मात्र स्वदारमन्तोषी के माथ स्व (निज) को भी विपत्तिजनक स्वीकार किया है। नाम मे ही उसका उल्लेख किया गया है। ३. रत्नकरण्डक मे ब्रह्मचर्याणवत के स्वरूप को ४. रत्नकरण्डक (६३) मे निर्गतचार पाच प्रण
व्रतों के पालन का फल स्वर्गलोक की प्राप्ति बतलाया १. म्वामिममन्तभद्रमते पुनः मूरिः स्मरेत् । कि तत् ?
गया है। इसी प्रकार उनके परिपालन का फल मा. ध. म्थुलवधादि स्थूलहिसान्तस्तेय-मथुन-ग्रन्थपञ्चकम् ।
(४-६६) मे भी स्वर्गीय श्री का उपभोग ही निर्दिष्ट क्व ? फलस्थाने पञ्चोदुम्बरफलप्रसगे तन्निवृत्तो वा।
किया गया है। मद्य-मास-मधुविरतित्रय पञ्चाणुव्रतानि चाष्टौ मूल- .
गुणान् स्मरेदित्यर्थ । (सा. घ. स्वो. टीका २-:) ६ न त परदागन गन्छनि न परान गमयति चे पाप२. स्थूलमलीक न वदति न परान् वादयति सत्यमपि भीतयन् । मा पग्दानिवृत्ति स्वदारसन्तोपनामापि।। विपदे । यत्तद् वदन्ति मन्तः स्थूलमपावादव
.क. ५.९ रमणम् ॥५५॥
गोऽस्ति स्वदारमन्नोपी योऽन्यस्त्री-प्रकटस्त्रियो। ३ न केवलमलीकम्, किन्तु मत्यमपि चौरोऽयमित्यादि- न गच्छन्यहमो भीत्या नान्यर्गमर्यात विधा ।। रूप न स्वय वदनि न परान् वादयति । किविशिष्टम् ?
मा० ५०४-५२ यदुक्त मत्यं परस्य विपदेपकाराय भवति । ७ यत् परदारान पग्गृिहीतान् अपरिगृहीताश्च । प्रभा० टीका ३-६
प्रभा० टीका ३-१३ ४ तत् मत्यमपि नो वाच्य यन् स्यात् परविपत्तये । - अन्यस्त्री पग्दागः परिगृहीता अपरिगहीताश्च । तत्र जायन्ते येन वा स्वस्य व्यापदश्च दुरास्पदाः ।। परिगृहीताः सस्वामिकाः अपरिगहीना म्बंरिणी
उपासका० ३७७ प्रोपितमत का कुलाङ्गना वा अनाथा। कन्या नु ५ कन्या-गो-क्ष्मालीक-कूटसाक्ष्य-न्यामापलापवत् ।
भाविमन कत्वात् पित्रादिपरतन्त्रत्वाद्वा मनायन्यन्यस्यात् सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ।। स्त्रीतो न विशिष्यते । प्रकटस्त्री वेश्या । सा० घ०४-३६
मा० ५० स्वो टीका ४-५२