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अनेकान्त
सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय का रहा है। इसीलिए इसका में जहा तहा कहीं स्वामी समन्तभद्र ५, कही केवल स्वामी, रत्नकरण्डक-रनो की पेटी-यह सार्थक नाम भी और कही रत्नकरण्डक७ नाम का भी निर्देश स्वयं किया प्रसिद्ध हुमा है२ । उक्त धर्म की प्ररूपणा करते हुए वहा है । इसके अतिरिक्त यत्र क्वचित् बिना किसी प्रकार के यथाक्रम ने प्रथमत. ४१ श्लोकों मे सम्यग्दर्शन का वर्णन नामोल्लेख के भी रत्नकरण्डक के मत का निर्देश किया किया गया है। पश्चात् ४२-४६ श्लोको मे सम्यग्ज्ञान के गया है। मा० समन्तभद्र की विषयवर्णनपद्धति को स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए उसके विषयभूत प्रथमानु- उन्होंने कही तो अपना लिया है और कही मतान्तर के योग प्रादि चार अनुयोगों का कथन किया गया है। तदनन्तर रूप में उसका उल्लेख कर दिया है । यथा४७-१२१ श्लोको में सम्यक्चारित्र का विवेचन करते हुए
वचन करते हुए १. प्रा. समन्तभद्र ने विकलचारित्र की प्ररूपणा करते उसके सकल और विकल इन दो भेदो का निर्देश करके
हुए प्रथमत. पांच अणुव्रतों के स्वरूप का निर्देश किया है। उनमे सकल चारित्र के निर्देशपूर्वक विकलचारित्रभूत थाव
तत्पश्चात् पाठ मूलगुणो का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार काचार का कुछ विस्तार से निरूपण किया गया है।
किया हैतत्पश्चात् १२२-३५ श्लोको मे सल्लेखना का विचार मच-मांस-मघत्याग सहाणुव्रतपञ्चकम् । करके प्रागे १३६-४७ श्लोको मे श्रावकपदो के- प्रष्टो मलगणानाहगंहिणां श्रमणोत्तमाः ॥६६॥ ११ प्रतिमानो के-स्वरूप मात्र का निर्देश किया गया है।
अर्थात् मद्य, मांस और मधु के परित्यागपूर्वक पाच अन्त मे (१४६) उपसहार करते हुए उद्देश के अनुमार
अणुव्रतों का पालन करना; ये पाठ मूलगुण है जो श्रमयह कहा गया है कि पाप-रत्नत्रय स्वरूप धर्म के प्रति
णोत्तम-गणधरादि-के द्वारा निर्दिष्ट है। पक्षभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये
समन्तभद्र को अभीप्ट इन पाठ मूलगुणो का निर्देश जीव के शत्रु है३, क्योकि वे भवपद्धति स्वरूप है-ससार परिभ्रमण के कारण है४, और रत्नत्रयस्वरूप धर्म उस ५. [क] स्वामिसमन्तभद्रमते पुन सूरिः स्मरेत् (२-३)। जीव का बन्धु-हितपी मित्र है। ऐमा निश्चय करके यदि [ख] एतेन यदुक्त स्वामिसमन्तभद्रदेव. 'दर्शनिकस्तमुमुक्ष भव्य जीव समय को-परमागम अथवा प्रात्मा स्वपथगृह्म' इति दर्शनप्रतिमालक्षणं तदपि सगहीतम्। को-जान लेता है तो वह निश्चित ही श्रेष्ठ ज्ञाता हो
(३-२५) जाता है।
६. [क] स्वाम्युक्ताष्टमूलगुणपक्षे (२-३)। पण्डितप्रवर पाशाधर ने अपने सागारधर्मागत की
[ख] यत्तु "सम्यग्दर्शनशुद्ध ...॥" इति स्वामिमतेन रचना में इस रत्नकरण्डक का पर्याप्त उपयोग किया है।
दर्शनिको भवेत् ....... (४-५२) । उन्होने अपनी भव्य-कुमुदचन्द्रिका नामकी स्वोपज्ञ टीका
[ग] स्वामिमतेन विमे-अतिवाहनातिसग्रह
(४-६४) १ सदष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदु ।
[घ] अत्राह स्वामी यथा-विषय-विपतोऽनुपेक्षा। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति ॥ र. क. ३
(५-२०) २. येन स्वय वीतकलविद्या-दृष्टि-क्रियारत्नकरण्डभावम् । [3] स्वामी पुन गोपभोगपरिमाणशीलातिचागननीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ।। न्यथा पठित्वा (७-११)।
र. क. १४६ [च] यदाह स्वामी "अन्नं पान खाद्य...(०-१५) ३ पापमगतिधर्मो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन् । ७. अन्यत्र पुना रत्नकरण्डकादिशास्त्रे रात्रिभक्त शब्दो समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता ध्रव भवति ॥ निरुच्यते"(७-१५)।
र. क. १४८ । ८. ततो न 'श्रावकपदानि देवरेकादश देशितानि (र.क. ४. देखिये टिप्पण ।
१३६)' इत्यनेन बिरोधः (३-८)।
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