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अनेकान्त
गलती मे नम्बर ७६ पड़ गया है। जब कि वह नही पड़ना (६) टीका के माठवें अधिकार में योगशास्त्र का, चाहिए था
११वा प्रकाश है, जिसकी पद्य सख्या ६० है, विवरण में वीतरागो भवेद्योगी यत्किचदपि चिन्तयेत् ।
यह ६१ दी है। कुछ पद्यो में यवाह' प्रादि श्लोकों की तदेव ध्यानमाम्नातमतोऽन्यद ग्रन्थविस्तरा ॥७॥ दृष्टि से कुछ अन्तर भी है; जैसे पत्ते न खलु स्वास्थ्य'
टीका में इस प्रकाश के पद्यो की सख्या ८६ दी है, नाम के तीसरे पद्य के नीचे 'स्पष्टम' पद के बाद जो 'यदाह' इस वृद्धि के साथ दोनों में परस्पर कुछ पद्यों की न्यूना- कहकर 'छिन्ने भिन्ने हते दग्धे' प्रादि दो पद्य दिये हैं उन्हें धिकता भी पाई जाती है, जैसे कि विवरण के निम्न तीन टीका में मनरूप से ग्रहण किया है। पद्य टीका में नही है -
(७) टीका के हवे अधिकार मे योगशास्त्र का १२वा तदेव च क्रमात्सूक्ष्मं ध्यायेद बालाग्रसन्निभम, (२६)
प्रकाश है, जिसकी पद्य संख्या विवरण मे ५५ दी है, टीका प्रच्यावमानसहनक्ष्यादलक्ष्य दधतः स्थिरम् ( ७)
मे वह ४७ हो रही है, जिसका कारण कुछ पद्यो पर दोएव च मत्रविद्यानां वर्णेष च पदेषु च (८०
बारा पूर्व के नम्बर पड़ जाना है । विवरण का निम्न पद्य ___ इममे टीका मे अन्य १२ पद्यों की वृद्धि समझनी
टीका में नहीं पाया जाना जो 'गुरुमेव स्तोति' वाक्य के चाहिए, जिन्हें तुलना करके मालूम करने की जरूरत है।
साथ दिया है.कुछ महत्व के पाठमेद भी है जैसे पापभक्षिणी विद्या के
यद्वत्सहस्त्रकिरणः प्रकाशको निचिततिमिरमग्नस्य । मत्र मे 'क्ष' के प्रागे तथा 'क्षी' के पूर्व क्षे अक्षर की वृद्धि
य(त)द्वद्गुरुरत्र भवेदज्ञानध्वान्त-पतितस्य ॥१६॥ है और 'ज्ञानवद्भिः ममाम्नातं वज्र वाम्यादिभिः स्फुटम्' वाक्य में प्रयुक्त 'वज्रस्वाम्यादिभिः' पद के स्थान पर
हो सकता है कि यह पद्य विवरण के समय बढाया 'वनस्वाहादिभिः' पद टीका म दिया है और उसका अर्थभी गया हो अथवा टीका मे छूट गया हो। 'वनरेग्यास्वाहादिः येषां तेः ते तैः स्फुटं प्रकटक ज्ञानवर्वादः
(८) शेष रहा टीका का दूसरा अधिकार, यह योगसमाम्नातः समाराध्यः' ऐसा दिया है। इस अधिकार में
शास्त्र के पांचवे प्रकाश को प्रात्मसात् किए हुए है, जो यत्र भी दिये है, जो विवरण मे नही है और कुछ मत्र भी पद्य संख्या की दृष्टि से ग्रन्थ का सबसे बड़ा प्रकाश है । अधिक दिये है। पूरी तरह तुलना करने की जरूरत है, विवरण मे इसके पद्यों की संख्या २७३ दी है जब कि टीका जिसके लिए अवकाश नहीं मिल सका।
में वह ३२४ के लगभग पाई जाती है । दोनों में मूल पद्यों
का जो परस्पर अन्तर पाया जाता है उसका स्थूल रूप से (४) टीका के छठे अधिकार मे नवमा प्रकाश है,
सक्षिप्त सार इस प्रकार है:जिसके १५ पद्य है; जब कि विवरण मे पद्य संख्या १६
टीका में निम्न पद्य को पचम प्रकाश का प्रथम पद्य दो है, जिसका कारण निम्न 'उक्त च' पद्य पर १४वाँ
निर्दिष्ट किया हैनम्बर पड़ जाना है - येन येन हि भावेन युज्यते यंत्रवाहकः ।
प्रथात्मसिद्धिमानेतुं मनो वशे विधीयते । तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणियथा ॥१४॥
तन्मनः पवनाधीनमभ्यस्ता मारुतं ततः ॥१॥ विवरणो मे मूल पद्यों का कोई अर्थ नहीं; जबकि इसमें प्रात्मसिद्धि के लिये मन को वश में करने आदि टीका मे वह पाया जाता है।
की जो बात कही गई है उसका सम्बन्ध प्रथम अधिकार (५) टीका के सातवे अधिकार में योगशास्त्र का के अन्तिम (५८वे) पद्य मे प्रयुक्त 'पवनस्य वश्यता १०वा प्रकाश है। विवरण में इस प्रकाश के २४ मूल पद्य विषाय सद्योगिवरा: स्वसिद्धये वाक्य के साथ जुड़ता है। दिये है, जबकि टीका में उनकी संख्या ६१ दी है । विवरण यह पद्य जिसके प्रारम्भ में 'प्रथ' शब्द मंगल का भी मे नवमादि पद्यों के अनन्तर जिन्हे 'पान्तर श्लोक' लिखा वाचक है । विवरण मे नही है । विवरण में इस प्रकाश है वे टीका मे प्राय. मूल पद्यो के रूप मे पाये जाते है। का पहला पद्य है: