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अनेकान्त
मा उत्पत्तिः सविस्तरा कथ्यते । पश्चात्तस्य परमात्मनो उसे योगशास्त्र-टीका का मादिम-मधिकार बतलाया है। मया सम्यक सम्यक्तया मासारिकत्वापेक्षया कथयित्वा इस अधिकार के परे ५८ पद्य योगशास्त्र के उक्त निरंजनेनोच्यते कथ्यते ॥२॥
स्वोपज्ञ विवरण में नहीं पाए जाते; तब यह प्रश्न पैदा इम पद्य मे मगलाचरण-गत परमात्मा की शरीर से होता है कि ये पद्य टीका में कहाँ से प्राए? जो टीकाकार उत्पत्ति को विस्तार के साथ कथन करने की प्रतिज्ञा की योगशास्त्र की टीका लिखने की प्रतिज्ञा करे और उस गई है और उसके बाद परमात्मा का सम्यक् लक्षण बतलाने प्रतिज्ञा के अनन्तर ही एक पूरा प्रकरण किसी दूसरे ग्रन्थ की बात कही गई है। तदन्तर "प्रथोत्पत्ति दर्शयन् गर्भ- मे उठाकर रखे तथा मन्धि-वाक्य मे भी उसे योगशास्त्र स्थानस्वरूपमाह" इस प्रतिज्ञावाक्य के माथ मूल का का अंश मूचित करे, यह बात कुछ जी को लगती मालूम तीसग पद्य दिया है, जो टोका-सहित निम्न प्रकार है:- नही होती-खासकर ऐसी हालत में जब कि टीकाकार
स्त्रियो नाभेरषोऽधश्च हूँ शिरे नालवत्ततः। मूलकार के प्रति बहुमान का भाव रखता है। टीकाकार कोशवद्योनिराम्रस्य मंजरीवास्ति पेशिका ॥३॥ ने हेमचन्द्राचार्य को एक जगह (प० ३) 'विद्वद्विशिष्ट'
टीका-स्त्रियो नार्याः नाभेरध द्वे शिरे स्त शिरा द्वय- (विद्वानो में श्रेष्ठ) लिखा है और दूसरी जगह द्वितीय मस्ति पद्मकोशवत् पद्मनाल इव । ततस्तस्मादधः कोशव अधिकार में पचम प्रकाश के 'पृथ्वीबीजसंपूर्ण' इत्यादि ४३वें द्योनिरस्ति । कोश इव योनिगं त्वत्त्याशयः वर्तते। (५८) पद्य की टीका मे-'हेमचन्द्राचार्य के पृथ्वीबीज ततोऽप्यध. अाम्रस्य चूतवृक्षस्य मजरीव पेशिका मास- 'क्ष' का समर्थन करते हुए, उन्हे 'परमयोगीश्वर' बतलाया ग्रन्धिरस्ति इति ॥३॥
है, जैसा कि टीका के निम्न अंश से प्रकट है:इसमे गर्भोत्पनि स्थान की शिरायो तथा प्राकारादिक "पृथ्वीबीजं क्षंकारं तेन बीजेन संपूर्ण सम्यक पूर्णीकृतं । का उल्लेख करते हुए उत्पत्तिकम के कयन को प्रारम्भ केचनाचार्या लंकारं वदन्तीति । षडावयत्सांभभोरामार्गता किया गया है और फिर "तम्मान कि जायते" इत्यादि प्राराधकेन लामावि क्षात्यामक्षरमूर्त्या विलसन्ति इति प्रस्तावनावापों के माथ मूल के अगले चतुर्थादि पद्यो को वचनात तेन हेतुना परमयोगीश्वरेण हेमचन्द्राचार्येण देकर उनकी टीका दी गई है, जिन सबमें शरीर से पर. कारं बीज इष्टं।" मात्मा की उत्पनि का कथन है। अन्त में उपमहारात्मक ऐसी स्थिति मे बहुत सभव है कि योगशास्त्र की जो ५८वा पद्य दिया है, जो इस प्रकार है:
पहली प्रति लिखकर तैयार हुई हो उसके प्रथम प्रकाश मे शरीरमित्थं कथितं ममासतः योगस्य समाधनहेतवे च यत। उक्त प्रकरण हो, उस प्रति पर से होने वाली कुछ प्रतियाँ तदूह्या(?)मवं पवनस्य वश्यतां विधाय सद्योगिवरा स्वसिद्धये। बाहर चली गई हों और उन्ही में से कोई प्रति टीकाकार
इस पद्य पर टीका नहीं। इसका प्रागय इतना ही को प्राप्त हुई हो। बाद को विवरण लिखने प्रादि के समय जान पडता है कि जो शरीर योग के ससाधन का हेतु है हेमचन्द्राचार्य ने स्वेच्छा से अथवा किसी की प्रेरणा पाकर उमे सक्षेप में इस प्रकार बतलाया गया है, इस प्रकार के उक्त प्रकरण को योगशास्त्र जैसे ग्रन्थ के लिए अनुपयुक्त शरीर को लेकर पवन को स्वाधीन करने का विधान कर समझते हुए निकाल दिया हो। कुछ भी हो, यह विषय सद् योगिवर अपनी सिद्धि के लिये प्रवृत्त होते हैं। विद्वानो के लिए अनुमधान के योग्य है और इसकी मच्छी
इस पद्य के अनन्तर अधिकार को समाप्त करते हुए खोज होनी चाहिए, जिससे वस्तुस्थिति का ठीक पता जो सन्धिवाक्य दिया है वह इस प्रकार है:
चल सके। ___ "भट्टारक श्री इन्द्र नन्दिविरचितायां योगशास्त्र- इस प्रकरण के प्रारम्भिक २-३ पद्यो को अन्तिम पद्य टीकायां गर्भोत्पत्याविनामाविमोधिकारः ॥१॥" सहित प० सुबोधचन्द्र जी के पास बम्बई भेजकर मैने यह
इसमें अधिकार का नाम 'गभोत्पत्त्यादि' दिया है, जो मालूम करना चाहा था कि क्या हेमचन्द्राचार्य के किसी परमात्मा की गर्भ से उत्पत्ति मादि का सूचक है मोर ग्रन्थ मे ये पद्य पाये जाते है। उत्तर मे उन्होने लिखा था