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माचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन दिगम्बर-टीका
१०६ के ऊपर है, द्वितीय विभाग के ऊपर जो कुछ है उसे प्रायः द्वितीय विभाग के पाठो प्रकाशों पर हो मुख्यत. प्रस्तुत नाम मात्र का विवरण कहना चाहिए-जगह जगह टीका लिखी गई है, जिससे मालूम होता है कि जिन इलोस्पष्टः, स्पष्टी, स्पष्टाः प्रादि लिखकर उसकी स्थान पूति को को स्पष्ट' कहकर छोड़ दिया गया है उनमे विवरण की गई है। शायद इसी से योगशास्त्र की प. हीरालाल के योग्य कितना तत्व भरा हया है । द्वितीय विभाग के श्रावक कृत जो गुजराती टीका (भाषातर) सन् १८६६ माठो प्रकाश टीका में क्रमश द्वितीय अधिकार से प्रारम्भ मे प्रकाशित हई थी उसकी प्रस्तावना मे शा० भाण जी होते है. योगशास्त्र विवरण और टोका मे परस्पर पद्यो का पाथा ने यह साफ लिख दिया है कि
कुछ अन्तर भी पाया जाता है --कुछ पद्य एक दूसरे मे तेमा बारा प्रकाशो छ; तेमाना पहेला चार प्रका
कमतो-बढती उपलब्ध होते है----मनेकानेक पाठ भेद भी शोन तेमणे विवरण कय छ, भने बाकोना पाठ प्रकाशो
पाये जाते है, जिनका कुछ परिचय पागे चलकर दिया नुं क नयी।
जायगा । यहाँ सबसे पहले टीका के प्रथम प्रधिकार गत इसमे ग्रन्थ के १२ प्रकागों में से प्रथम चार प्रकाशो
मूल पद्यों पर विचार किया जाना ग्रावश्यक है। इस का ग्रन्थकार ने विवरण किया है बाको पाठ प्रकाशो का
प्रधिकार में मूल योगशास्त्र के ५.८ पद्यो का उल्लेख है,
अधिकार में प्रल गोगा ७.: ततो विवरण नहीं किया, ऐसी स्पष्ट सूचना की गई है । यदि जिनमें मे पहला पद्य टीका-महिन इस प्रकार है:यह ठीक है तब आठ प्रकाशों पर जो कही कही कुछ परमात्मा जिन सर्वदेह व्याप्य निरजनः । विवरण पाया जाता है वह किंगका किया हुप्रा है ? यह
सर्वत्र सर्वगः शुदः बुद्धो वसति नित्यशः ॥१॥ एक नया प्रश्न पैदा होता है।
टोका-प्रथादो मगलार्थ प्रथम इम पदं कथ्यते प्रथम विभाग के तीन प्रकाशो पर जो विवरण है
यदक, प्रादौ मध्ये वम ने च मगल भाषित बुध.। उसमे अनेक लम्बी लम्बी कथाएं. कथानक तथा चरित्र
तजिनेन्द्र गुगास्तोत्र तद्विघ्नप्रशान्तये ॥१॥ दिये है. जिनके नाम इस प्रकार है१.महावीर चरित, २-सनत्कुमार चरित, ३-भरत
अत्र नमस्कारार्थ जिनेन्द्रस्तुनिविधीयने । जिन पतंत्र चक्रिकथा, ४-प्रादिनाथ चरित, ५-मरुदेवी दृष्टान्त,
वमति । इति म चराचर लोक्ये वमति । कि कृत्वा सर्वदेह ६-दृढ प्रहारि कथा, -चिलानिपुत्र कथा, -सुभूम-ब्रह्म
व्याप्य मर्व च ततदेह सकलशरीर चाभिगम्य वमति । कि
विशिट ? परमात्मा परमश्चामावात्मा परमात्मा प्रकृष्टादत्त कथा, ६-काल सौकरिक पुत्रकथा, १०-कालिकार्य वसुगज कथा, ११-१४ कौशिक-गैहिनेय-रावण मुदर्शन
त्मेति । कथ वसनि ? नित्यश सर्वदेव । पुन. कथं भून ।
सवंगः सर्व गच्छति जानात्येव मग । ज्ञानन कृत्वा मवं की कथाए १५-१८ सगर कुचिकणं-तिलक-नन्द के कथानक,
बजति इति वा । शुद्ध. निमल. कर्मकलकजिन । बुद्ध. १६.अभयकुमार कथा, २०-चन्द्रावतम कथा, २१-चुलिनी
बुध्यते स्म बुद्ध कान्य वेदोनि । पुन कथ भून ? निरंजन. पितु कथा, २२-२४ मगमक-स्थूलभद्र-कामदेव की कथाए. पौर प्रानन्द श्रावक की कथा ।
निर्गतमजन यस्मात् निरजन कलिमल र हित इनि। १॥ इन सब कथा कथानकी के चित्रण मे, जिनमें से इससे प्रकट है कि यह पद्य, जिनेन्द्र-गुणस्तुति को अधिकाश का योग विषय के माथ कोई सम्बन्ध भी नहीं लिये हा मूल ग्रन्थ के मगलाचरण प मे उल्लिखित हुमा है पोर न योगशास्त्र में जिनको प्रस्तुत ढग से उदाह है। इसके बाद "प्रथोत्पनिमाह" हम प्रस्तावना वाक्य के करके रखना उपयुश्त तथा प्रावश्यक मालम होता है, जिम माथ दूसरा पद्य टीका-सहिन इस प्रकार है ममय और शक्ति का व्यय हा है वे दोनो यथेष्ट मात्रा मे
प्रादो तस्योत्पत्तिश्चाऽत्र कथ्यते सा सविस्तरा। पवशिष्ट नहीं रहे और इमलिए कुछ परस्थितियो के वश
पश्चात्तस्य मया मभ्यग लक्षण परमात्मनः ।।२।। द्वितीय विभाग के पाठो प्रकागो को प्राय विना विवरण टाका-पादो प्रथम तस्य परमनिरजनस्य मदा के ही समाप्त कर देना पडा, ऐसा जान पड़ता है । अस्तु, चिदानन्दरूपस्य परमात्मन उपनिरुद्भव कथ्यन उच्यते