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चाचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन दिगम्बर टोका
कि 'गर्भोत्पत्त्यादिविषयक उल्लिखित श्लोक कही नहीं मिले परन्तु आगम मे जो पाठ है उसे लिखकर साथ मे भेजा है यदि इस पाठ की आवश्यकता हो तो लिखे। तो पूरा लिखकर भिजवाऊंगा । श्रागम का जो पाठ उन्होंने लिख कर भेजा वह दो गाथाम्रो के रूप में टीका सहित इस प्रकार है -
थाहाराधिकारे किञ्चिद् गर्भादिस्वरूपमाहइत्योए नाभिहिट्ठा सिरादुर्ग पुप्फनालियागार । तरस य हिट्ठा जोणी घहोमूहा सठिया कोसा ॥६॥
हे श्रायुष्मन् ! हे गौतम स्त्रिया नाय नाभेधोभागे पुष्पालिकाकारं सुमनोवृन्तसदृश शिराद्विक धर्मनियुग्म वर्तते, च पुनस्तस्य गिराद्विकस्याधो योनि स्मरकूपि - का संस्थिताऽस्ति । किंभूना ? अधोमुखा । पुन किभूता ? (कोस ति) कोना लहानकाकारेत्यर्थ ॥६॥ तस्स य हिट्ठा चूयस्स मंजरी तारिसाउ मंसस्स । तंरिकाले कुडिया सोविया विमोयन्ति ॥ ॥
( तस्स य ) तस्याश्च योनेरधोऽधोभागे चूतस्या म्रस्य यादृश्यों मर्यो बल्लयों भवन्ति तादृश्यों मासस्य पतनस्य मञ्जर्यो भवन्ति, ता मञ्जर्यो मासान्ते स्त्रीणा यदजस्रम दिन स्रवति तद्कालीन तस्मिन स्फुटिता प्रफुल्ला मत्य. शोणितलवकान् रुधिर बिन्दून् विमुञ्चन्ति स्रवन्ति ।
'सप्ताहं विन्द्यान् ततः सप्ताहमदम् । दाज्जायते पेसी पेसीतोऽवि घनं भवेत् ॥ १॥
उक्त दोनो गाथाएं (६-१०) कौन से प्रागम ग्रन्थ की है, यह कुछ मालूम नहीं हो सका; परन्तु वे जिस श्वे ० श्रागम ग्रन्थ की भी है उसके श्राहाराविकार से सम्बन्ध रखती है प्रोर उनमे जिस विषय का उल्लेख है वह योगशास्त्र की टीका के प्रथम अधिकार मे दिये हुए उक्त पद्य न० ३ के विषय में बिल्कुल मिलता जुलता है और इमलिए मैंने प्रागम के उस मारे कथन को टीका सहित उद्धृत करके क्षेत्र देने को लिख दिया था, परन्तु पं० वाचन्द जी अपनी कुछ परिस्थितियों के वश प्रभी तक उसे भेज नहीं पाए इसे धागे का तुलना कार्य नहीं हो सका हो सकता है उक्त प्रागम की गाथाम्रों के विषय को लेकर प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा 'गर्भोत्पत्यादि' नाम के उस प्रकरण
को मकलित किया गया हो जो योगशास्त्र की टीका में प्रथम अधिकार रूप से पाया जाता है, यह भी मनुसन्धान तथा खोज का विषय है ।
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अब मैं द्वितीय विभाग के चारों प्रकाशों को लेता है, जो टीका में क्रमशः द्वितीयादि अधिकारों के अन्तर्गत है। और मोटे रूप से यह दिखलाना चाहता है कि उनमें परस्पर पद्यों की क्या कुछ कमी-बेशी पाई जाती है ।
(१) टीका के तृतीय अधिकार में योगशास्त्र के छ प्रकाश के छह पद्य है, जबकि विवरण मे उसकी सख्या आठ दी है। निम्न दो पद्य टीका में ग्रहीत नही है - जित्वापि पवनं नानाकरण: क्लेशकारः । नाइ प्रचारमायत्त विषायापि वपुर्गतम् ॥२॥ पूरणे कुम्भने पंय रेचने च परिभ्रमः । सिक्लेशकरणा मुक्तः प्रत्कारणम् ॥५॥
हो सकता है कि ये दोनों पद्य विवरण के समय ग्रन्थ मे नये प्रवृष्ट किये गए हो अथवा अपने अपने पूर्ववर्ती पद्य के साथ 'प्रान्तर' श्लोक के रूप मे हो और इन पर गलती से नम्बर पड गये हों। इन पर तथा इनके पूर्ववर्ती पद्यों पर भी कोई विवरण नहीं है। चौथे पद्य को देखते हुए विवरण में यह प्रस्तावना-वाक्य दिया है- "प्राणाया मस्त कश्चिदाश्रितो ध्यान-सिद्धये इति यदुक्तं तत् श्लोकद्वयेन् प्रतिक्षिपति ।" श्रौर इसके बाद चौया पद्य निम्न प्रकार से किया है सम्माप्नोति मनः स्वास्थ्यं प्राणायामः करचितम् प्राणास्यायमने पीडा तस्यां स्याश्चिसविप्लवः ॥ ॥
इस पद्य के स्थान पर जो पद्य टीका में पाया जाता है का रूप इस प्रकार है
प्राणायामस्ततो [तः] कंचिदति मोमि नाप्नोति मनः स्वास्थ्यं प्राणायामः कदर्पितम् ॥ ॥
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(२) टीका के चौथे अधिकार में योगशास्त्र का मा तव प्रकाश पूरे २८ पद्यो को लिए हुए है। विवरण में उन पद्यो का प्रायः कोई अर्थ नही दिया, जब कि टीका में अच्छा प्रथं यत्र-मंत्रादि के साथ दिया हुआ है।
(३) टीका के अधिकार में योगशास्त्र का पाठव प्रकाश है, जिसके विवरण में पद्य सरूपा ८१ दी है, जो ८० जान पड़ती है; क्योंकि निम्न 'उक्त च' श्लोक पर मी