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आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर एक प्राचीन दि० टीका
जुगलकिशोर मुख्तार 'पुगवीर'
श्रीमदमितगति निःसमयोगिराजविरचित योगसार प्राभृत की हस्तलिखित मूल प्रतियो तथा उस पर लिखी गई किसी संस्कृत टीका की खोज करते-करते समय मुझे हाल में देव योग मे एक ग्रन्यप्रति उपलब्ध हुई है जिसके ऊपर बाद को किसी दूसरी कलम में लिखा गया है:"अयं योगप्रकाशः ग्रन्थः प्रस्य टोका इंद्रनं विनामा भट्टारकेन कृता "
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ग्रन्थप्रति के अन्त मे ग्रन्थ को 'योगसार' प्रोर टीका को 'योगवार टीका' भी लिखा है परन्तु देखने पर मालूम हुया कि यह अपने अभीष्ट योगसारभूत की टीका नहीं है बल्कि प्राचार्य हेमचन्द के योगशास्त्र पर लिखी गई एक टीका है, जिसमे योगशास्त्र को योगशास्त्र नाम से ही नहीं किन्तु योगप्रकाश' और 'योगसार' नाम से भी उल्लेखित किया है। यह टीका प्रति कारंज (अकोला) के एक शास्त्र भंडार से प्रामाणिकचन्द्र जो चवरे द्वारा उपलब्ध हुई है, जिसके लिए मैं उनका प्राभारी हूँ । इस प्रति की पत्र संख्या ७७, पत्रो की लम्बाई ११। प्रोर चौडाई ४।। । इन्ची है, पत्र के प्रत्येक पृष्ठ पर पक्ति संख्या प्रायः ११-कही कही १२ तथा दो तीन पत्रों पर १३-१० भी है. प्रति पंक्ति अक्षर संख्या प्राय: ५५ से ६० तक, कागज पुराना देशी और लिखाई, जो पड़ी मात्राओ के प्रयोग को भी लिए हुए है, अच्छे सुन्दर अक्षरों में प्रायः शुद्ध है— कहीं कहीं कुछ अशुद्धियाँ भी पाई जाती है। कागज प्रादि की स्थिति को देखते हुए यह प्रति प्रायः ४०० वर्ष पुरानी लिसी जान पड़ती है।
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इस टीका को देखकर मेरे हृदय में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि क्या यह टीका पहले से उपलब्ध एव लोकपरिचय में भाई हुई है अथवा नई ही उपलब्ध हुई है । दिगम्बर शास्त्र भण्डारों को मैंने बहुत देखा है, बहुतों की सूचियाँ भी देखने मे आई हैं परन्तु इससे पहले कहीं से
भी इस टीका का कोई परिचय मुझे प्राप्त नहीं हुमा धीर इसलिए मैंने प० दलसुख जी मालवणिया ( अहमदाबाद ) और पं० सुबोधचन्द्र जी ( जैन साहित्य विकास मंडल, बम्बई ) जैसे कुछ श्वेताम्बर विद्वानों से यह जानना चाहा कि क्या हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र पर उनके स्वोपज्ञ विवरण के बाद की बनी हुई कोई संस्कृत टीका १० शास्त्र भण्डारी में उपलब्ध है ? उत्तर में यही मालूम पड़ा कि ऐसी कोई टीका उपलब्ध नही है ? पं० सुबोधचन्द्र जी ने तो दिगम्बर टीका की उपलब्धि को जानकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए यह भी लिखा कि "योगसार शास्त्र पर दिगम्बरीय टीका होने का (हाल ) मैं सर्वप्रथम सुन रहा हैं, यह प्रानन्द दायक समाचार है।" ऐसी स्थिति मे इस नवोपलब्ध टीका का सर्व साधारण को परिचय देने के लिए मुझे मन्तःकरण से प्रेरणा मिली और मैंने टीका का तुलनादि के रूप में कुछ विशेष अध्ययन प्रारम्भ किया। इस अध्ययन के लिये पं० दरबारीलाल जी जन कोठिया न्यायाचार्य ने योगशास्त्र की स्वोपज्ञ विवरण सहित मुद्रित प्रति मुझे स्याद्वाद विद्यालय काशी के अकलक सरस्वती भवन से भेज दी, जिसके लिये मैं उनका प्रभारी है । परन्तु योगशास्त्र की यह मुद्रित प्रति मोटे कागज पर होने पर भी इतनी जीणं तथा कडकव्वल जान पड़ी कि पत्रों को इधर उधर पलटने पर उनके टूट जाने का भय उपस्थित हो गया और इसलिए उस पर काम करना कठिन जान पड़ा। श्री ए० मुबोधचन्द्र जी को जब किसी दूसरी मूल ग्रन्थ प्रति को भिजवाने के लिए लिखा गया तब उन्होने भी स्वोपज्ञ-विवरण-प्रति की जीर्णता को स्वीकार किया और लिखा कि हमारा मंडल इसको फिर से छपवाना चाहता है। साथ ही एक दूसरी मुद्रित प्रति की सूचना की जो योगशास्त्र मूल के साथ उसके स्वोपश विवरण में पाये जाने वाले 'प्रान्तर' इलोकों को भी भिन्न