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साहित्य-समीक्षा
है, उस पर श्वेताम्बरीय मागम का कोई प्रभाव नहीं है। जरूर होता, पर ऐसा नहीं है; और न उसका खण्डन ही पोर न समयसारादि ग्रन्थो की मान्य चर्चा भी भागमो है। श्वेताम्बरीय प्रग माहिप पर बौद्ध साहित्य का में मिलती है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थो मे स्थान प्रभाव है। कहा नहीं जा मकना कि ऐसी प्रसगत एव पाहुड और समवाय पाहुड आदि अथो का कोई उल्लख धर्म विरुद्ध बाने अग-मूत्री में कैसे प्रविष्ट हो गई। नहीं किया। पाहुडो के वे नाम कल्पित जान पड़ते है। ये मब कशन प्राचार शिथिलता के द्योतक है। ऐसी इतिहास के पृष्ठ ११४ और १३६ के कथनो की
थिान में वर्तमान प्रागम दिगम्बरो को मान्य रहे, सगति अहिमा धर्म के साथ संगत नही बैठनी, क्योंकि लिखना ममुचित नही है। उसमें मांस भक्षण की स्पष्ट अनुमान है। कोई भी अहि- प्रग साहित्य में अनेक कथाम्रो का उल्लेख मिलता सक व्रती थावक माम का नाम सुनकर भोजन छोड है, जिनका मक्षिप्त परिचय प्रस्तुन ग्रन्थ में दिया है, देता है। साथ में मद्य, मक्खन और मधु का मेवन भी भाषा सरल और मुहावरेदार है। अती गृहस्थजनो में वजित है। फिर साधु के नो उमकी (३) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग २ । सम्भावना ही कैमे हो मकनी है? वह तो पनपाप के लेखक, डा. जगदीशचन्द्र और मोहनलाल मेहता। माथ ग्रारम्भ परिग्रह का भी त्यागी है महावना है। प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम जोध संस्थान, जैनाश्रम
अग्राह्य भोजन का कथन करते हा प्र० ११६ में हिन्दू युनिवमिटी, वाराणसी-५ | पृष्ठ ४६०, मूल्य १५) लिखा है कि-"कही पर अतिथि के लिए माम अथवा प्रस्तुत भाग अग बाह्य पागम से सम्बद्ध है। इसमें मछली पकाई जाती हो अथवा तेल में पूए नले जाते हो उपागों का परिचय दिया हमा है। उपांगो को तीन तो भिक्षु लालचवश लेने न जाय । किमी रुग्ण भिक्षु के भागो में बांटा गया है। उपाग, मूलमुत्र और छेदसूत्र । लिए उसकी पावश्यकता होने पर वैसा करने में कोई इन मबका परिचय उपागो की अच्छी जानकारी प्रदान हर्ज नही। मूलसूत्र में एक जगह यह भी बताया गया करता है। अंग सूत्रो के परिचय से उपागों की कथनगया है कि भिक्षु को अस्थि बहुल अर्थात् जिसमें हड्डी ली और वस्तु-तत्त्व का विवेचन विस्तृत और सरल है। की बहलता हो वैसा मांस व कंटक बहुल पर्थात् जिमम उपागो में प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन पावश्यक, दशवकाकाटों की बहुलता हो, वैमी मछली नही लेनी चाहिए। लिक, पिण्डनियुक्ति, वहकल्प, अनुयोगदार और नन्दियदि कोई गृहस्थ यह कहे कि प्रापको ऐसा माम व मूत्र मादि है, जिनमें वस्तु तत्व का विस्तृत व्याख्यान मछली चाहिए? तो भिक्षु कहे कि यदि तुम मुझे यह मिलता है। जिससे जिज्ञासु पाठक अपन विचाग को देना चाहते हो तो केवल पुद्गल भाग दो और हडिया विशद बनाने म ममयं हो सकते है। इस भाग में उपागों व काटे न पावें, इमका ध्यान रखो। ऐसा कहत हा का परिचय मक्षिप्त और मरल गति में दिया गया है। भी गृहस्थ यदि हड्डीवाला मास व कांटो वाली मछली माथ में कुछ पौराणिक मान्याना का भी उल्लेख किया दे तो उसे लेकर एकान्त में जाकर किमी निर्दोष स्थान है, और उसे बोधगम्य बनाने में डा. महता ने अच्छा पर बैठकर माम व मछली खाकर बची हुई हड्डियो व श्रम किया है। उपागो के प्रकाशित सम्करणों का भी काटो को निर्जीव स्थान पर डाल दे।"
फूटनोट में परिचय कगया गया है। इस तरह जनइम कथन में भी मांस भक्षण का स्पष्ट उलेख है। माहित्य के इनिहाम का यह द्वितीय भाग भी अपनी जैन प्राचार तो पहिसक मोर संयम प्रधान एवं निवृत्ति- विशिष्टना को लिए हुए है । इसके लेखक विद्वान् भोर परक है। उसमें इस प्रकार के कथनो की मर्गात उपयुक्त प्रकाशक संस्था मभी धन्यवाद के पात्र हैं। नही है। यदि उस काल के जैन साधुमो में माम भक्षण (6) जन प्राचार -लेखा, हा. मोहन लाल की प्रवत्ति होती तो दिगम्बर माहित्य में उमका उम्मलेस मेहना, प्रकाशक पाश्र्वनाथ विद्याथम जोषसस्थान,