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अलोप पावनाम-प्रामाद
और सूक्ष्मकोरणी का परिचायक है । शिखर के कोणो में अवोषो से सिद्ध है। इसका मर्वोच्च भाग नोपाज श्री प्रतिमाए है जो पद्मावती का सफल प्रतिनिधित्व करती है। लिग जी के पुरातत्व मग्रहालय की गोभावद्धि कर
रहा है। मानस्तम्भ
मन्दिर के अगभाग में विशाल स्तम्भ स्थापित करने प्राचीन उल्लेख को परम्परा रही है । इसे मानम्तम्भ की मंजा म अभिहिन नागददेश्वर पाना मा तीर्थ का पा किया जाना है। स्मरणीय है कि भारतीय ललितकला के नरोकीरिणत लेखों में स्पष्ट है। परन्तु इमके माहित्यिक इतिहास मे स्तम्भ अनुप्रेक्षणीय नहीं रहे। यजमण्डपो मे उल्लेख १३ वी शती के पूर्व के नही मिलते । क्या इस व्यवहत स्तम्मो का ही विकास शिल्पकृतियों में हुअा है। काल मे उपेक्षित रहा? या कहा जा सकता है जैन यो तो मुख्यत शब्द मे वितानाधार का ही बोध होना है, माहित्य मे प्राचार्य मदनकोति ने सर्वप्रथम इसका उल्लेख पर गिल्यशास्त्रज्ञो ने इसके अनेक प्रकार बताकर उनकी अपनी चतुम्बिशिका मे इस प्रकार किया है .वैज्ञानिकता पर विशद् प्रकाश डाला है। उनकी उप- स्रष्टेति द्विजनामहरिरिति प्रोटगीयते वैष्ण योगिता सर्वव्यापक रही है। मौर्यकाल में वास्तुकला मे बौद्धतिप्रमोद विवशः शलीतिमाहेश्वरः मम्बद्ध उपलन्ध स्तम्भो मे प्रमाणित है कि उनका निमाण कुष्टानिष्ट-बिनाशयोजनदशां यो लक्ष्यत्तिविभुः कामिक परिवेश में हुया थ।। गुग्नवान मे उगवला ने सश्रीनागहृदेश्वरो जिनपति विग्वाससां शासनम् पौर भी विकाग किया, मानमार पीर बृहन्महिना जैसे
१५वी शनी के उदयकोत्ति ने भी अपनी निर्वाणमप्रतिष्ठि ग्रन्थो मे इनके भेद-प्रभेदी वी चर्चा है । पीति
भक्ति में इस प्रकार उल्लेख किया है :म्तम्भ, गरुडम्तम्भ, विजयम्नम्भ । म्मारक ग्तम्भ और मानस्तम्भ प्रादि के रूप में म्नम्भो ने अपनी विकाम
नागद्दह परसु सयभुदेउ हां बवजसु गण
णस्थि छेव यात्रा की है। धर्मस्तम्भों में गरुडध्वज विशेष महत्व रखता है।
परन्तु दिगम्बर जैन विद्वानों ने नागदह का मध्यप्रदेश विष्ण] प्रामादो के सम्मुख यह स्वडा किया जाता था
का नागदा मान लिया था, जब उग प्रामाद-प्राप्ति की और इसके सर्वोच्च भाग मे गाड की प्रतिमा बैठाई जाती।
मूचना मैने प. परमानन्द जी को दी तो वे प्रसन्न हुए मौर थी, ऐसे स्तम्भो का ढलन गुप्त मुद्राग्री में हना था, अब पथ विष्णु मन्दिरो के मभा मण्डपो में गरुड़ को स्थापना की मी प्रकार बनाम्बर जैन माहित्य में भी नागदा जाती है या मम्मुग्व स्वतन्त्र मण्डप बनाया जाता। के पावनाथ तीर्थ का मन है, पर वह भी प्राचीन नही कैलाशपुरी मे ऐसा स्वतन्त्र मण्डप कुम्भकर्ण ने बनवाया है, इस पर अन्यत्र विचार किया गया है।
२०१२२६ के विध्यवन्नी विनोलिया के गिलोत्कीर्ण
था।
जैन तीर्थंकरो की सभायात्रा के सर्वाग्र भाग म 1 श्राना मदनकोनि विदरेय ग्रन्थकार और विशाल. "इन्द्रध्वज" की व्यवस्था रहती थी। मम्भव है इमी का कीनि केशाय थ। म० १४०१ मे राजशेखरमूरि अनुकरण दिगम्बर जैनो ने किया हो। इसमें मनोरन दाग प्रगी। प्रबन्धकोग मे उनका विग्नत परिचय इतना ही किया है कि मानम्तम्भ ऊपरी प्रम में दिया हुआ है। इनका अमिन ममय वि० मं. चतुर्मुख-मनाभद्र-जिनप्रानमाए स्थापित रहनी थी, १२६ है । विशेष के लिए दाटव्य :नागदा के महातीर्थ पाश्र्वनाथ मन्दिर के आगे भी विशाल -प० दरबारीलाल जी जैन, चन्दाबाई अभिनन्दन मानम्तम्भ का अस्तित्व था जमा कि उसने. विम्बर ग्रन्थ, पृट ७३,