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अनेकान्त
पौर दाये मोर की मढिया में किसी अन्य जैन यक्षी की मन्दिर तीन या चार बार में निर्मित हुमा प्रतीत होता प्रतिमाय थी, जिन्हे अब वहाँ से धर्मशाला में स्थाना- है। इसका महामण्डप अपनी मादगी से स्पष्ट ही घोषित न्तरित कर दिया गया है।
करता है कि उसका निर्माण गुप्तकाल से पूर्व, कदाचित् अन्तराल को पार करके हम ४ फूट ३ इच चौडे मौर्यकाल मे हुया था। इसके मध्यवर्ती चार स्तम्भो के प्रदक्षिणा-पथ में प्रवेश करते है, इसमें चारो ओर बीच एक वेदी थी', जिसमे जडा हुआ एक 'जान शिला' विशालाकार पद्मासन ६ और ४८ कायोत्सर्गासन ५४ नामक शिलालेख प्राप्त हया है। तीर्थकर प्रतिमाये अंकित है। इनमें से १५ अभिलिखित इस अभिलेख की लिपि यद्यपि अनेक भारतीय है । अन्तराल से चार सीढियो द्वारा उतर कर इस मदिर लिपियो का मिश्रण है तथापि इममें अशोक कालीन में भव्य गर्भगृह में पहुंचा जाता है। इसमें एक विशाला- ब्राम्ही लिपि के लक्षण अधिक और स्पष्ट देखे जा सकते कार कायोत्सर्गासन तीर्थकर मूर्ति है, जो यहाँ की मौलिक हैं। इम महामन्डप के मौर्यकालीन होने का नीमरा कारण प्रतिमा है । इसके अतिरिक्त प्रवेश द्वार से मटी हुई दाये यह है कि इतने विशालाकार महामन्डपो का निर्माण बायें दो, और तीर्थंकर की विशालाकार मूर्ति के दोनो उस काल में ही होता था। बाद में महांमडपो का पोर एक एक अम्बिका मूर्तियां विद्यमान है।
अवध । अलाहाबाद, १८६१॥ स्थापत्य कला के विकास की दृष्टि से यह सम्पूर्ण (स) माहनी, दयागम, एनुअल प्रोग्रेस रिपोर्ट प्राफ
दि मुप्रिन्टेन्डेन्ट हिन्दू एण्ड बुद्धिस्ट मानुमेन्टम, प्रतिष्ठामारोद्वार के अनुसार इस देवी के १६ हाथ
नार्दनं मर्विस, (लाहौर, १९१८) पृ०६ किन्तु प्रतिष्ठा तिलक पृ० ३४०-३४१ के अनुसार
(ड) श्री परमानन्द जी वग्या, जो देवगढ के जीर्णो२० हाथ होते है। विभिन्न स्थानो मे कलाकारो ने
द्वार में प्रारम्भ में ही दत्तचित्त है, ने भी इम इम देवी के हाथो की संख्या और उनमें धारण को गई वस्तुपो में विविधता का निरूपण किया है।
तथ्य की पुष्टि की है। यह वेदी अभी कुछ
ममय पूर्व हटा दी गई है। यह वेदी मूलतः देवगढ के इम मन्दिर में इस देवी की २० भूजाये है
उस समय की होगी जब यह 'महामण्डप' मूल और मभी में चक्र धारण किये है।
मन्दिर के रूप में निर्मित हुआ होगा। 8. दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही इसे २१वे तीर्थकर 8. साहनी, दयाराम, ए. प्रो. रि०, पृष्ठ १० ।
भगवान नेमिनाथ की शासन देवी के रूप में स्वीकार 9. (म) देवगढ का यह महामण्डप ४२ फुट ६ इच का करते है।
आयताकार है। दृष्टव्य (म) प्रतिष्ठा सारोद्वार, २ । १७६, पत्र ७३। (ब) मोर्ययुग से स्तम्भो पर मन्दिर निर्मित होने
(ब) प्रतिष्ठा तिलक, ७ । २२, पृष्ठ ३४७ । लगे थे, पर उडीसा के स्थापत्य में स्तम्भो का (स) बप्प भट्ट सूरि, चतुर्विशतिका, पृष्ठ १५० काई महत्व नही रहा। (3) भारतीय वास्तुशास्त्र, प्रतिमाविज्ञान, 10. 'केवल म्तम्भो पर आधारित मन्दिर, इससे (खूजु
पृष्ठ २७४, राहो मे) बहुत पहले देवगत मे निर्मित होने 7. (म) कनिघम, ए : पाकियोलाजिकल म आफ लगे थे।
इंडिया, जिल्द १०, (कलकत्ता, १८८०) पृष्ठ देखिये--अनेकान्त, दिल्ली, १९६६ । वर्ष १९, १००-१०१,
किरण ३ मे प्रकाशित प० गोपीलाल 'अमर' एम. (ब) फुहरर, ए : मानुमेन्टल एन्टिक्विटीज एण्ड ए. के 'खुजुराहो का घण्टई मन्दिर' शीर्षक निवध
इशक्रिप्शन्स, इन दी नार्थ वेस्टनंप्राविशेज एण्ड की पादटिप्पणी मंख्या १८, पृ. २३ ।