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देवगढ का शान्तिनाथ जिनालय
प्राकार क्रमशः छोटा होता गया मौर खजुराहो तक रित है । सामने के दो स्तम्भ एक समान है, जबकि माता प्राता लगभग १०'x१०' का रह गया प्रथवा पश्चाद्वर्ती दो स्तम्भ पूरी तरह से प्रसमान है । मेरा लुप्त हो गया।
विश्वास है कि मूल स्तम्भों के खण्डित हो जाने से इन्हें महामंडप के पश्चात् गर्भगृह अर्थात् मुख्य मन्दिर किसी अन्य स्मारक के अवशेषों में से लाकर समाविष्ट का निर्माण होना चाहिए | इसकी रेखाकृति, अधिष्ठान, किया गया होगा। क्योकि यदि उनमें प्रलंकरण मादि प्रवेशद्वार, उस पर का प्रलकरण, शिखर को गुम्बदनुमा का सूक्ष्म अंकन न भी किया जा सकता, तो भी मोटाई प्राकति. उसके साथ प्रगशिखगें और उरूगी का प्रभाव प्रादि में समानता तो लाई ही जा सकती थी। उन दोनों प्रादि कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो इसे गुप्तकाल या उसके की चोकिया भी माघारण पत्थरो से बना दी गई। किचित अनन्तर का सिद्ध करते हैं। यहीं के 'दशावतार यद्यपि उनके शीर्ष मौलिक है। मन्दिर' की अनुकृति पर यह या इसकी अनुकृति पर वह
सामने के स्तम्भो पर चौकियो के ऊपरी भाग के निर्मित हुया हो, यह अधिक सम्भव है।
चारो मोर क्षेत्रपालो का अंकन है, और उनके ऊपर प्रदक्षिणापथ, निविवाद रूप से गर्भगृह के पश्चात् शिखराकतियो मे यक्त देवकलिकामो में तीन तीन मोर निर्मित हमा है क्योंकि : १. गुप्त कालीन मन्दिरो मे प्रद-
कायोत्सर्गासन तीर्थकरो और एक मोर एक एक यक्षिणी
- क्षिणा पथ प्राय: नही देखा जाता, २. इम मन्दिर की पर
प्रतिमानो का अंकन हमा है। उनके ऊपर दोनो स्तम्भो 'कानिश' को काट कर बाद में समाहित किये गये प्रद- पर प्रत्येक मोर एक क कायोत्मर्ग तीर्थकर दिखाये गए क्षिणापथ के 'उष्णोष' अपनी असमानता को इस समय हैं, और उनके दोनों ओर दो सुन्दरियां उन्हे रिझाने का भी नही छिपा सकते, ३. इसकी भित्तियो के बहिर्भाग निष्फल प्रयत्न कर रही है। उनके भी दोनो ओर एक में चिनी हई जातियां और यक्षिणी प्रतिमानो के प्रकन एक पुरुषाकृतियाँ और एक एक नारी प्राकृतियां दशित सहित स्तम्भो की कला म्वुज़राहो की कला (स्वी शनी हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक उन पर मकरमुखो का प्रलकरण ई.) के समकालीन प्रसीत होती है। ४. यक्षिणी और उसके ऊपर विभिन्न देवी देवताग्रो का प्रकन है। प्रतिमानों के नीचे उत्कीर्ण उनके नामो के वरणों की उसके भी ऊपर नत्य मण्डली का अत्यन्त मनोरम मंकन लिपि १०वी शती या ११वी शती की मम्भावित है। हमा है, जिसके ऊपर नयनाभिराम जालीदार कटाव है। ५. प्रदक्षिणा-पथ का प्रवेश द्वार मुख्य मन्दिर के माथ इसके पश्चात् समग्र मण्डप का भार सम्हालने में दत्तचित ही उसके प्रर्धमण्डप के द्वार के रूप में निर्मित हुया था, कीतिमुख दिखाए गए हैं । तोग्गा पर भी मुख यक्ष के क्योकि इसके और गर्भगृह के द्वार की कला और प्रत:- अनन्तर विविध वाद्ययन्त्रो से सज्जित एक लम्बी सगीत करण प्रादि में पूर्ण समानता स्पष्ट रूप से देखी जा मण्डली का अग्न काफी दिलचस्प बन पड़ा है। सकती है, जबकि प्रदक्षिणा-पथ के बाहर अंकित
इस मण्डल के दक्षिण-पूर्वी म्तम्भ पर एक ऐतिहासिक यक्षिणियो की मूर्तियों और प्रदक्षिणा-पथ के प्रवेश-द्वार प्रभिलेख उत्कीर्ण है, जिमके द्वारा देवगढ़ का प्राचीन में अंकित मूर्तियों तथा अन्य अन्तःकरण में किसी भी नाम एवं राजा भोजदेव की राज्यमीमा व समय निर्धारित दृष्टि से समानता नहीं है।
करने में बहुत बडी महायता मिलती है। यह अभिलेख प्रदक्षिणा पथ के साथ या उसके कुछ समय प्रास- १० पक्तियो में १ फूट ढाई इच ऊचे और १ फुट ५ इच पास ही अन्तराल पौर अर्घमण्डप का निर्माण हुआ होना चौडे स्थान में उत्कीर्ण है। इसके एक अक्षर की लम्बाई चाहिये।
लगभग १ इच है। प्रर्ष मण्डप :
अन्तराल का प्रवेशद्वार :इस मन्दिर का प्रचं माप चार स्तम्भो पर प्राधा- अन्तराल का प्रवेश द्वार विशेष रूप से प्रलकृत है।