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अनेकान्त
प्रतिमा, अनेक भिक्षु द्विमासिका भिक्षु प्रतिमा से सप्त चतुर्दश सहस्त्र भिक्षुषों में दुष्कर क्रिया करने वाला है। मासिकी भिक्षु प्रतिमा अनेक भिक्षु प्रथम-द्वितीय-तृतीय मेघकुमार सप्त अहोरात्र प्रतिमा, अनेक भिक्षु एक अहोरात्र प्रतिमा, बिम्बिमार के पुत्र मेघकुमार दीक्षा-पर्याय की प्रथम अनेक भिक्षु एक रात्रि प्रतिमा, अनेक भिक्षु सप्त सप्तमिका रात में संयम से विचलित हो गये। उन्हे लगा, कल तक प्रतिमा, अनेक भिक्षु लघूमोन्द प्रतिमा, अनेक भिक्षु यव- जब मैं राजकुमार था, सभी भिक्षु मेरा आदर करते थे, मध्यचन्द्र प्रतिमा तथा अनेक भिक्षु वज्रमध्यचन्द्र प्रतिमा स्नेह दिखलाते थे। आज मैं भिक्षु हो गया, मेरा वह तप करते थे।"
प्रादर कहाँ ? मुह टाल कर भिक्षु इधर-उधर अपने अन्य विशेषतापो के सम्बन्ध से वहा बताया गया
कामो में दौडे जाते है। सदा की तरह मेरे पास आकर
कोई जमा नहीं हुए । शयन का स्थान मुझे अन्तिम मिला है-"वे भिक्षु जान-सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र सम्पन्न,
है। द्वार से निकलते और पाते भिक्षु मेरी नीद उडाते है। लज्जा-सम्पन्न व लाघव-सम्पन्न थे । वे प्रोजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी पोर यशस्वी थे, वे इन्द्रिय-जयी, निन्द्रा-जयी
मेरे साथ यह कैसा व्यवहार ? प्रभात होते ही मैं भगवान् और परिषह-जयी थे। वे जीवन की प्राशा और मृत्यु के
महावीर को उनकी दी हुई प्रव्रज्या वापिस करूंगा। भय से विमुक्त थे वे, प्रज्ञप्ति प्रादि विद्याप्रो व मंत्रो में
प्रात:काल ज्यो ही वे महावीर के सम्मुख पाये, महावीर
ने अपने ही ज्ञान-बल से कहा-"मेघकुमार । रात को प्रधान थे। वे श्रेष्ठ, ज्ञानी, ब्रह्मचर्य, मत्य व शोच में कुशल थे। वे चारु वर्ण थे। भौतिक प्राशा-बांधा से वे
तेरे मन में ये ये चिन्ताए उत्पन्न हुई। तुमने पात्र-जो
हरग आदि संभला कर जाने का निश्चय किया।" ऊपर उठ चुके थे प्रोत्सुक्य रहित, श्रामण्य-पर्याय में माव
मेघकुमार ने कहा- "भगवन् । पाप मत्य कहते है।" धान और बाह्य-ग्राभ्यन्तरिक ग्रन्थियो के भेदन में कुगल थे । स्व-सिद्धान्त पौर पर-सिद्धान्त के ज्ञाता थे। परवा
महावीर ने उन्हे सयमारूढ करने के लिए नाना उपदेश दियो को परास्त करने में अग्रणी थे । द्वादशाङ्गी के ज्ञाता
दिये तथा उनके पूर्व भव का वृत्तान्त बताया मेधकुमार और मसस्त गरिणपिटक के धारक थे । अक्षरो के समस्त पुन- मयमारह हो गया। सयोगो के व मभी भाषायी के ज्ञाता थे । वे जिन (सर्वज्ञ)
मेघकुमार भिक्षु ने जाति-रमरण ज्ञान पाया । एकादन होते हुए भी जिनके सदृश थे।"
शागी का अध्ययन किया । गुणरत्नसंवत्सर नप की प्रकीर्ण रूप से भी अनेकानेक भिक्षु-भिक्षुणियो के
पाराधना की। भिक्षु की 'द्वादश प्रतिमा' पाराधी।
अन्त में महावीर से आज्ञा ग्रहण कर वैभार गिरि पर जीवन प्रसग पागम-साहित्य में बिखरे पडे है, जिनसे उनकी विशेषतानो का पर्याप्त व्यौरा मिल जाता है।
आमरण अनशन कर उत्कृष्ट देव-गति को प्राप्त हुए।
बौद्ध परम्परा में सद्य: दीक्षित नन्द का भी मेधकुमार काकन्दी के धन्य
जैमा ही हाल रहा। वह अपनी नव विवाहिता पत्नी काकन्दी के धन्य बत्तीस परिणीता नरुणियों और जनपद कल्याणी नन्दा के अन्तिम ग्रामश्रण को याद कर बत्तीस महलो को छोडकर भिक्षु हुए थे । महावीर के साथ दीक्षित होने के अनन्तर ही विचलित-सा हो गया। बुद्ध रहते उन्होंने इतना तप तपा कि उनका शरीर केवल
1. इमेसिण भन्ते ! इदभुई पामोक्खणं चउदसण्हं
। अस्थि कंकाल-मात्र रह गया था। राजा बिम्बिसार के
समण साहसीणं कयरे अरणगारे महादुक्कर कारए चेव द्वारा पूछे जाने पर महावीर ने उनके विषय में कहा
महारिणज्जरकारएचेब ? एवं खलु सेरिणया । इमीसि "अभी यह धन्य भिक्षु अपने तप से, अपनी साधना से
इदभूई पामोक्लवाण चउदसण्ह समण साहसीण धन्ने 1. उववाइय सुत्र, १५
मणगारे महा दुक्करकारए चेज महानिज्जर कारए चेव । 2. उववाइय सुत्र १५-१६
-प्रगुत्तरोबवाई दसाग, वर्ग० ३, प्र. १