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श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पवली दिगम्बर जैन मन्दिर, शिरपुर
प्राया, साथ में एक दो दिगम्बरी बन्धू भी थे। गांव के अनेक स्थलोंपर जो वस्तु-शिल्प तथा मूर्ति है, इनमें मन्दिर में भी परिभ्रमण करते समय श्वेताम्बरी मैनेजर सादश्य है। मैने दाविड मोरिसा प्रांत के प्रमुख पुराने वा अन्य श्वेताम्बरी बन्धु मिले नही, उससे उनको मिल बस्तु-शिल्प-मूर्ति का अभ्यासनीय निरीक्षण किया है। कर मन्दिर बाबत चर्चा करने का योग माया नही। विदर्भ के प्राचीन वास्तु प्रादि का काल ८ से १० वीं ___ मन्दिर समीप जाते ही प्रावार के बाहर जैनों की शताब्दीका पाता है। धर्मशाला लगती है। मन्दिर के बाहर के प्रागन में प्रवेश विदर्भ के प्राचीन वास्तु शिल्प तथा मूर्ति इनको करते ही सामने पूर्व दिशा में श्वेताम्बरियों ने अपने अलग होना वैसा अभ्यास हुमा नही। यह सब भारतीय प्राचीन पूजा के लिये भव्य मन्दिर बना कर जयपुर से खास धन सरक्षण करने की जिम्मेदारी उन धर्मीय लोगोंको संगमरमर पाषाण की विघ्नहर पार्श्वनाथ की श्वेताम्बरीय तथा भारतीय सरकार की है। दूसरे की श्रद्धा को पक्षत की मूर्ति बना कर उसकी यहां प्रतिष्ठापना करने धक्का न देते हुये अपने धर्म का पालन करके दूसरे का ध्यान में पाया । मूल मन्दिर के सामने (पडोस में) को श्रद्धा को धक्का न देते हुये अपने धर्म का पालन करके जो पुरानी धर्मशाला है उसमें सभी यात्रेकरू ठहरते हैं। दूसरे धमियों पर आक्रमण न करके उनसे भाईचारे से ऐसा मालूम पड़ा। फिर मैने मन्दिर के प्रांगन में प्रवेश रहना ही श्रेयस्कर है, ऐसा मेरा इन १-१॥ दिन के किया। वहां से मुख्य मन्दिर के तल घर में प्रवेश किया। निरीक्षण का फल करके मैं नम्रता से जनता के सामने वहां इतना मालूम हुमा कि, मुख्य मूर्ति का जो वाद है या विचार के लिए रखता हूँ। उनके पूजा का जो ममय निश्चित हुपा है उसे छोड कर माने या न माने तो भी यह अहवाल महत्व का ही बाकी मति तथा गुरु पीठ इनकी पूजा मिर्फ दिगम्बरी है। क्योकि, हा०य. खू. देशपांडे साहब ७५ साल के लोग ही कर सकते है । मख्य मन्दिर के बाहर आने पर उमर के हैं, याने वयोवृद्ध होने के माप ज्ञानवृद्ध भी हैं। मामने ही श्वेताम्बरी पथ के व्यवस्थापको की बैठक भारत स्वतन्त्र होने पर भारत की स्वतन्त्रता का इतिहास (अलग अलग) दिखती है।
लिखने मे उनका ही सहयोग था। वे इतिहास संशोधन इस तरह मेरे इन एक दिन के निरीक्षण का त्रोटक के लिये तथा ऐतिहासिक अहवाल प्रसिद्ध करने के लिये अहवाल है। और प्राधारभूत ग्रन्थों का तथा लेखो का देश में या विदेशों में जब जागतीक परिषद हुई तब उसमें अभ्यास करके एक विस्तृत अहवाल प्रसिद्ध करने का यथा समय भाग लेते ही रहे हैं। महानुभावों के मराठी माणस है। मैं खुद वैदिक धर्मानुयायी हूँ। मेरा यह दृढ वाङ्गमय पर उनका विशेष अधिकार है। उन्होंने उसका निश्चय है कि किसी भी धमियों ने पोर धर्मपथियो ने अच्छा सम्पादन भी किया हैं । हिन्दु हो या मुस्लिम सबके अपने अपने श्रद्धा के अनुमार धर्माचरण करना, उन पर इतिहाम की तरफ वे गौरव के माप देखते हैं तथा उन अन्य धर्मियो ने वा पंथियो ने दूसरे के श्रद्धा को धक्का सबका जतन करना वे खुद का कर्तव्य समझते हैं। अब लगेगा ऐसा वर्तन नहीं करना। और ये पुरातन भारतीय भी इस ७५ साल की उमर मे व अभ्यासक ही कहलाते धर्म व पंच परस्पर में भाई-चारे से तथा प्रेम से एकत्र है। अत: उनके इस अदम्य उत्साह के लिये वे भारतीय रहना । पर मत सहिष्णूता यह भारतीयों का प्रमुख गुण जनता के धन्यवाद के पात्र तो हैं ही, लेकिन समस्त है। उससे ही भारत में अनेक धर्म और पंथों ने हजारों भारत के इतिहास की चलती निधी है। प्रभु उनको साल से एकीभाव से रह कर परचक्रका विरोध किया दीर्घाय तथा प्रारोग्य प्रदान करे ऐसी मेरी उनके प्रति है। और यह ही सहिष्णूता परस्पर में प्रेम भाव बढ़ाने प्रादगजली है। को कारणीभूत हुयी है।
उन्होंने जो हमको भाईचारे की शिक्षा दी उसका हम प्रत में यह स्पष्ट करना है कि, विदर्भ में मिलने सादर करंगे और निज पर कल्याण के लिये तैयार रहेंगे वाली प्राचीन वास्तु, शिल्प और मूर्ति, दक्षिण द्रविड़ मी उम्मीद रखता । देश में तथा प्रोरिसा में कोपारक, पुरी व भुवनेश्वर प्रादि