________________
१२
अनेकान्त
लेख में नागहृदीय पार्श्वजिनेश्वर का उल्लेख' है।
अद्यतनोल्लेख
डा० भाण्डार करने नागदा के अवशेषो का वर्णन माकियोलोजिकल सर्वे प्रोफ़ इंडिया १९०५-६ के वार्षिक वृतान्त में किया है। इसके आधार पर ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने उल्लेख किया है कि:
"एकलिंगजी की पहाड़ी के नीचे एक मन्दिर जैनियो पद्मावत के नाम से है। भीतर छोटे मन्दिर हैं । दाहिनी तरफ चौमुखी मूर्ति है शेष खाली है। लेख सं० १३५३ और १३९१] के हैं यहाँ पार्श्वनाथ को मूर्ति होगी चाहिए। यह दिगम्बर जैनों का है। मण्डप में एक मूर्ति श्वेताम्बर रखी है जो किन्हीं धन्यत्र स्थान से लाई गई है । इस पर राजा कुंभकर्ण का खरतरगच्छ का लेख है । एक वेदी पर पाषाण है जिसके मध्य में एक ध्यानाकार जिन मूर्ति हैं। ऊपर मगल-बगल शेष तीर्थंकरो की मूर्तियाँ हैं।"
उद्धरण का पद्मावती मन्दिर पास ही बना है। यहां तीन मन्दिरो का प्रश्न ही नहीं उठता, उपयुक्त वर्णन पार्श्वनाथ मन्दिर पर चरितार्थ होता है, कारण कि इसके गर्भ गृह में दोनो ओर के विशाल श्रालो में सभवतः उन दिनो प्रतिमाएं रही हो। जिस चौमुखी प्रतिमा का संकेत है वह तो मानस्तभ का ही उच्च भाग है । कुम्भकरणं को लेखवाली प्रतिमा श्राज उदयपुर के राजकीय पुरातत्व संग्रहालय में
1. तदा नागहृ देयक्ष गिरिस्तत्र पपात सः ॥७३॥ यदावतारमाकमदन पादजिनेश्वरः ।।
X
X
X
X
तत्राहमपि यास्यामि यत्र पार्श्वविभुर्मम । वीरविनोद पृष्ठ ३८७ 2. प्राचीन जैन स्मारक, पृष्ठ १४५, ( मध्य भारत मौर राजपूताना )
विद्यमान है। भाजक दिगम्बर विद्वान इस मन्दिर के अस्तित्व स्थान के सम्बन्ध में संदिग्ध ही थे । मुनि श्री हिमाणुविजय जी ने भी इस प्रासाद को देखा था, परन्तु यह साम्प्रदायिक अभिनिवेश या इसके साथ न्याय न कर सके, श्रापने इमे श्वेताम्बर प्रासाद स्थापित करने का विफल प्रयास किया, इनके गुरु इतिहास प्रेमी मुनि विद्या विजय जी ने मेवाड़ की यात्रा में इसका तो क्या अबद जी के अतिरिक्त किसी भी जैन मंदिर का उल्लेख ही नहीं किया, एक कलाप्रेमी और शोधक की दृष्टि से केवल यह मंदिर प्रोफल रहा, यह बात नहीं है आपने तो दवद्जी के समीपवर्ती मोकल से भी पूर्व के दो कलापूर्ण मंदिरों का भी सकेत नहीं किया है। यह बड़े । खेद की बात है कि शोधक भी साम्प्रदायिक क्षुद्रता का परित्याग नही कर पाते ।
निर्माण काल
यद्यपि तीर्थ स्थापनकाल पर विस्तार से "आचार्य समुद्रसूरि और पार्श्वनाथ तीर्थ" शीर्षक में विचार किया गया है, यहाँ संक्षेप में प्रासंगिक रूप से ही सकेत करना अलम् होगा । यहा पर उत्कीरिणत लेखों से ऐसा कोई स्पष्ट संकेत उपलब्ध नही जो इस समस्या को समाधान का रूप दे सके । यद्यपि १६ वी सती के प्रभावशाली प्राचार्य मुनि सुन्दरसूरि ने अपनी गुर्वावली में उल्लेख किया है कि मौर्य सम्राट् सम्प्रति ने नागहृद मे मंदिर बनवाया था, परन्तु इस कथन की पुष्टि में आज तक कोई अकाट्य प्रमारण उपलब्ध नहीं हो सका है, सच बात तो 1. लेख इस प्रकार प्रकित है
-
१ श्रीनामदपुरे राणा श्री कुम्भकर्ण राज्ये २ श्री पादिनाथ विवस्य परिकरः कारितः
३ प्रतिष्ठितः श्री वरतरगच्छे श्रीमतिवद्ध नमूरि ४ भिः । उत्कीर्णवान् सूत्रधार धररणाकेन। श्री ॥ घरा मुत्रधार के लिए दृष्टव्य" कुम्भण्याम प्रासाद ।"
2. आत्मानन्द जन्म शताब्दीच गुजराती विभाग, पृष्ठ १३१
,