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धनपाल विरचित भविसयत्तकहा" और उसकी रचना-तिथि
ज्योज्यों काव्य-तत्वों से उसका ताल-मेल बैठता गया, त्यो अतएव हम इस युग को पुनर्जागरण काल (Renaissance) त्यो वह कहानी और उपन्यास का रूप ग्रहण करती गई। कह सकते है, जिनमे जनवादी प्रवृत्तियां जन्म ले रही थी भविष्यदतकथा को पद्य मे लिखा हा एक प्रकार का मोर पौराणिकता से हट कर साहित्य लोक-चेतोन्मुखी उपन्यास ही समझना चाहिये । यद्यपि रचना-तत्वो मे हो रहा था। प्रतएप लोक-जीवन के विविध तत्व कथाप्रममानता है पर हम उसे कथा ही कहते पाये है और काव्य में सहज ही लक्षित होते है । इस युग में कथाकाव्य इसलिए भी कि वस्तु रूप में वह लोक कथा ही है। का नायक प्रादर्श पुरुष ही नहीं, राजा, राजकुमार, बरिया, संस्कृत में लिखी गई कथाए गद्य मे हैं। बाणभट्ट को राजपूत या अन्य कोई साधारण से साधारण पुरुष हो 'कादंबरी' तो उपन्यास ही जान पड़ती है। परन्तु वह
सकता था जो अपने पुरुषार्थ से साधारण व्यक्तित्व तथा कथा ही है । प्राकृत और अपभ्रश में छोटी तथा बड़ी गुणों को प्रकट कर मानव बन सकता था। सभी कथालगभग सभी प्रकार की कथाये छन्दोबद्ध है । 'कुवलयमाला काव्यो मे यह व्याप्ति पूर्णतया लक्षित होती है । इससे देश कथा' प्रदश्य गद्य मे लिखी मिलती है। इसी प्रकार अन्य के साहित्यिक विकास की एक नवीन उत्थानिका का पता रचनाए भी गिनाई जा सकती हैं, परन्तु प्राकृत और लगता है जो मध्ययुगीन साहित्य की विशिष्टता है। अपभ्रश मे पगबद्ध कथाएं लिखने की सामान्य प्रवृत्ति रही अपभ्रश और हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यो मे निम्नहै । गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' से लेकर प्राज तक न जाने लिखित बातो में बहुत कुछ समानता मिलती है :कितनी तरह की कथाए और कहानिया लिखी गई जो १. कथा-वस्तु एवं घटनामों में कहीं-कहीं अद्भुत नीति-रीति, मानवीय स्थितयों की विविधता और यथार्थता समानता दृष्टिगोचर होती है । प्रत्येक कुवर या राजकुमार मे ममन्वित लिखी जाती रही है। भापा की भाति की समुद्र-यात्रा और सिंहलद्वीप मे सुन्दरी का वरण करना, माहित्यिक विधाम्रो का भी यह परिवर्तन माज इतिहास एक ऐमी सामान्य घटना है जो लगभग सभी प्रेमाख्यानक की वस्तु बन कर रह गया है। उन परिवर्तनो का पूर्ण काव्यों में मिलती है। इसी प्रकार चित्र-दर्शन-रूप-दर्शन, विवरण देना पाज असभव-सा जान पडता है।
प्रथम मिलन व दर्शन में ही प्रेम हो जाना प्रादि बाते अपभ्र श साहित्य का ही नही, यदि हम दसवी समान रूप से मिलती है। शताब्दी से लेकर पन्द्रहवी शताब्दी तक के भारतीय २. सामन्तयुगीन वैभव, भोग-विलास तथा युद्ध के साहित्य का अनुशीलन करे तो ज्ञात होता है कि मध्य- चित्रण भी इन काव्यों में वर्णित है। किमी-किसी कथायुगीन भारतीय काव्यों की मुख्य प्रवृत्ति उदात्त प्रेम की काव्य भे मुन्दरी के लिये भी युद्ध किया जाता है, जैसे
कि भविष्यदत्तकथा में भविष्यदत्त सुमित्रा की रक्षा के प्रेम प्रतिलौकिक भाव-भूमिका में भी चित्रित हा है. लिये युद्ध करता है और अपनी शूर-वीरता प्रदर्शित परन्तु काव्य का समान्य धरातल लौकिक प्रेम में ही अभि- करता है। व्यक्त हमा है। इसलिये अतिलौकिक प्रेम और पादों
३. कथानक-रूढियो के साथ ही प्रबन्ध-रचना एवं को समझने के लिये हमें किन्ही प्रतीकों और रूपको के संघटना म भा साम्य लक्षित हाता है। इश-वन्दना, नम्रतारहस्यो को खोलना पड़ता है। परन्तु अपभ्रश के कथा- प्रदशन, कवि या काव्य-रचनामा का उल्लेख, काव्य पढ़ने काव्यों में प्रायः यह व्यंजना नहीं मिलती है। यद्यपि प्रेम का अधिकारी, काव्य विषयक सकेत तथा मान्यता प्रादि बीज से लेकर उसके विकास तक की सम्पूर्ण परिस्थितियो बातों का उल्लेख परम्पगगत रूढ़िया हैं जिनका प्रचलन एव अवस्थामों का इनमें पूर्ण विकास लक्षित होता है सम्भवत. प्राकृत युग से हुमा है। परन्तु व्यक्तिवादी वैचित्र्य एवं चमत्कार नहीं मिलता। अपम्रश-कथाकाव्यो मे धनपाल कृत "भविसयत्तकहा" वस्तुतः ये कपाकाव्य मध्ययुगीन भारतीय साहित्य की देन का प्रत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। सपा -काव्य साहित्य हैं जो लोकजीवन की परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। में कथाकाव्यों में "भविसयत्तकहा" और प्रेमास्यानक