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अनेकान्त
विचार उक्त शोधप्रबन्ध में नहीं किया गया। यह सम्भव कालान्तर में काव्य के साचे में प्रबन्ध के रूप मे ढाल दी भी नहीं था । क्योकि डा. जैन १६५६ ई० मे गई है। इसीलिये इन कथानो में कई प्रकार के परिवर्तन अपना शोधप्रबन्ध लिख चुके थे। इस प्रबन्ध के लिखे जाने तथा जोड़-मोड़ मिलते है। कुछ कथाए लोककया या के उपरान्त जो महत्त्वपूर्ण रचनाए प्रकाश में आई है जन थति के रूप में प्रचलित होने पर भी व्रत-माहात्म्य उनमे से एक साधारण सिद्धसन कृत-"विलासवईकहा' है, तथा अनुष्ठानों से सम्बद्ध होकर काव्य-बध का अग ही जिसका उल्लेख डा० कोछड, डा० तोमर और डा० जैन नहीं, प्राण बन गई है। हीरोइक पोट्री में कया अल्प की किसी भी कृति में नहीं है। इसी प्रकार अन्य रचनाए तथा सूक्ष्म रहती है। परन्तु कथाकाव्य मे मुख्य वस्तु. भी है। प्रतएव जब तक सम्पूर्ण प्रकाशित-अप्रकाशित एव कथा संयोजना तथा घटनाओं का महत्वपूर्ण वर्णन रहता हस्तलिखित अपभ्र श-साहित्य का अनुशीलन न किया है। भविष्यदत्तकथा ऐसी ही कथा है जो पहले श्रुति के जायेगा तब तक डा० जैन जैसे विद्वान् भले ही अपभ्रंश- रूप में जन-मानस में प्रचलित रही और फिर परम्परागत कथाकाव्य की स्वतन्त्रविधा का अस्तित्व स्वीकार न करे प्रबन्ध काव्य की शैली में लिखी गई । इसीलिए हीरोइक पर प्राकृत-अपभ्रश साहित्य मे कथाकाव्यमूलक कई प्रकार पोइटी से भी कई बातो मे अन्तर दिखाई पड़ता है, की रचनाए मिलती है, जिनसे यह पता चलता है कि क्योकि जब हीरोइक पोइदी रोमाश में परिणत होने कथाकाव्य की इस विधा का विकास अपभ्रंश में प्राकृत
लगती है तब उसमे गेय चेतना, कोमल भावनाप्रो और काव्य-धाग से हुआ।
पाकर्षक दृश्यों से मृदु तथा साहसिक कारों के मध्य भारतीय माहित्य में कथाकाव्य की परम्परा अत्यन्त विराम देने वाली ग्रानन्दमयी अनुभूतियों से मवेदनीय हो प्राचीन काल से चली पा रही है । काल के मूल मे जीवन जाती है । प्रतएव अपभ्र श तथा भारतीय साहित्य में की लिपिबद्ध कथाए ही है जो श्रुति रूप में वर्षों तक कथाकाव्य तथा चरितकाव्य की विधा अपने ढग की अलग प्रचलित रही है और देश-देशान्तरो मे अपने अपने मूल ही प्रबन्ध-रचना है। अप में स्थानान्तरित होती रही है। अपभ्रंश मे ऐसी ही भारतीय साहित्य में कदाचित् प्राकृत और अपभ्रश कथाएं महाकाव्यों की कडी में परिबद्ध कथाकाव्य के रूप में इस साहित्यिक विधा का मूत्रपात हमा जिनमें कथा में लक्षित होती है जिनमे मानवीय सवेदना कतिपय और काव्य मिल कर लोक जीवन के परिपावं मे यथार्थ घटनामो के विग्रह मे सजीव एव चारित्रिक बन्धनो मे रीति से गनिशील तथा मनुष्य जीवन में घटनायो का अनुस्यत रहती है । कथा ही कथाकाव्य में मुख्य होती है रोमाचक एवं वास्तविक प्रभाव दर्शाते हुये लक्षित होते जो किसी उद्देश्य से कही जाती है और वह उद्देश्य नायक है। यद्यपि कही कही पौराणिक प्रवृत्ति के अनुगमन से के कार्य-व्यापागे से मम्बद्ध रहता है। यह कथाए प्राय घटनाप्रो मे अस्वाभाविकता-सी जान पड़ती है परन्तु वक्ता-श्रोता शैली में कही जाती है । इनमे कही-कही सुनने प्रबध-मंघटना और रचना-शिल्प में शिथिलता नहीं दिखाई वाला कथा एवं घटना के सम्बन्ध मे जिज्ञासा और पडती । अपभ्र श के इन कथाकाव्यो की विशेष प्रवृत्ति उत्सुकता प्रकट करता चलता है और लेखक उसकी है-प्रेम की मधुर व्यजना । अधिकतर नायक पवित्र प्रेम उत्सुकता की वृद्धि करता हुआ आगे की घटनाग्रो का से प्रेरित एव सचालित दिग्वाई पड़ते है। कही-कही प्रेम सजीव वर्णन करता चलता है। चरितकाव्यों मे नायक के की उदात्त व्य जना धामिक वातावरण में हुई है और न हीजीवन का समूचा इतिवृत्त अलौकिक रूप मे वणित रहता कहीं शुद्ध मानवीय । इस रूप मे हिन्दी के प्रेमाख्यानक है। उनमे अभिप्राय विशेष भी नायक के प्रादर्श तथा काव्यवस्तु एव शिल्प-रचना की दृष्टि से ही नहीं शैली असाधारण गुणों तथा अतिलौकिक चमत्कारो से समन्वित और प्रेम की मधुर व्यजना में भी अपभ्रश के इन कथाहोते है। जिन कथाकाव्यो मे वस्तु सोद्देश्य नियोजित नहीं काव्यो से प्रभावित जान पड़ते है। है वे लोककथाएं है जो साहित्यिक रूढ़ियों के साथ कथा पहले पाख्यात थी, जो शुरू इतिवृत्त थी परन्तु