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अनेकान्त
भांति दुःख तया वेदनामो को झेलते है।
में किसी न किसी प्रादर्श की प्रतिष्टा हुई है। भारतीय यद्यपि चरितकाव्यो में भी नायक के साहस तथा शूर- मान्य सिद्धान्तों की भाति इनका मूल स्वर प्रादर्श का है, वीरता के कार्य व्यापारी का वर्णन रहता है पर वह अति- यथार्थ का नहो । यद्यपि व्यक्तिवादी प्रादर्शो तथा मान्यता लौकिक शक्तियों से प्रेरित तथा समन्वित होता है। की अवहेलना नहीं की गई है और कही-कही उनका प्रभाव इसलिए उममें सहज ही देवी भाव लक्षित होता है। भी दर्शाया गया है किन्तु सन्त धार्मिक वातावरण तथा पुराणों की भाति चरितकाव्यों में प्रायः एक से अधिक प्रादर्श सिद्धान्तो के पालन और पूर्णता के साथ हुअा है। कथाए एक साथ वणित देखी जाती है। कथा में से कथा स्पष्ट ही अपभ्रश के कथा तथा चरितकाव्यों का प्रारम्भ फुट कर जन्म-जन्मान्तरों की घटनामों तथा इतिवृत्तों से और अन्त शान्त रस में पर्यवसित हुमा है। इमलिये इन इस प्रकार स युक्त हो जाती है मानो कथा की ही मुख्य काव्यो के अध्ययन से कभी-कभी यह प्रतीत होने लगता है अंग हों। चरितकाव्यों की अपेक्षा कथाकाव्यों में इस प्रकार कि जीवन के मूल्यों की अपेक्षा की गई है परन्तु मरे ही की चिप्पिया कम लगी मिलती है और कम से कम पूर्वार्द्ध क्षण शान्त और वैराग्य की झलक बहिर्मुखी लोक से कथानों तथा घटनायो मे ऐमा व्यवस्थित क्रम मिलता है अन्तर्लोक की पोर प्रापित किये बिना नही रहती है। कि क्रियान्वित का निर्वाह नही देखा जाता है । चरितो के यही इसकी सामान्य विशेषता है। माध्यम से प्रपम्रश कवियो ने किसी-किसी चरितकाव्य मे धामिक उद्देश्य भी प्रकट किया है। महाकवि पुष्पदन्त ने भविसयत्तकहा की रचना-तिथि 'जसहरचरिउ' पी रचना "हिमा परम धर्म है" इस यह प्रत्यन्त प्राश्चर्य की बात है कि दसवी शताब्दी मन्यता को प्रभावशाली ढग से प्रकट करने के लिये को से लेकर मोलहवी शताबी तक जो अपभ्र श-साहित्य है, और इस उद्देश्य के साथ ही ग्रन्थ की भी समाप्ति लिखा गया उसमे कही भी- धनपाल का उल्लेख किसी हो जाती है। हिन्दी के प्रेमाख्यानो में भी यही प्रवृत्ति भी कवि नही किया।
भी कवि ने नही किया। इसका एक कारण यह कहा मिलती है।
जा सकता है कि कवि की प्रसिद्धी लोक मे अधिक समय अपभ्रश के कथा तथा चरितकाव्यों मे जिस सामन्त· तक नहीं रही। इसलिए अपभ्रश के परवर्ती कवियो ने कालीन वातावरण का चित्रण मिलता है वहीं प्रागे चलकर जिन पूर्व कवियों का उल्लेख किया है उनम किसी भी कुतुबन कृत्त 'मृगावती' तथा अन्य मूफी एव प्रेमाख्यानक धनपाल का नाम नहीं मिलता। अपश मे धनपाल काव्यों में दिखाई पडना है राजकुमार का बहुपत्नीत्व, नामक दो कवियों का विवरण प्राप्त होता है। इनमे से समुद्र-यात्रा, आदर्श प्रेम, रोमान्च तथा धन-यौवन प्रादि "भविसयत्तकहा' के लेखक धनपाल चौदहवी शताब्दी के वैभव एवं समद्धि से उल्लसित जीवन इमी तथ्य की ओर लगभग हए थे। और दूसरे धनपाल "बाहुबलि चरित" संकेत करते है।
के रचयिता है, जो पन्द्रहवी शताब्दी के कवि थे। ये इस प्रकार मध्ययुगीन साहित्य मे विकसनशील गजरात के परबाड वश के तिलक स्वरूप थे। इन दोनो पौराणिक तथा लोकाख्यानो से एक नवीन काव्यधाग का ही कवियों का विशेष विवरण प्राप्त नही हाता। "भविप्रचलन हुमा, जो आगे चलकर सूफी प्रेमारूपानक तथा सयत्तक हा" मे अवश्य स्वयं कवि ने उल्लेख किया है कि हिन्दी के प्रेमापानकों मे पल्लवित तथा पुष्पित हई। उसे सरस्वती मे वर मिला था। इससे यह अनुमान वस्तुत: अपभ्रश-कथाकाव्य की यह धारा चिरप्रचलित लगाया जाता है कि कवि प्रसाधारण व्यक्तित्व से सम्पन्न प्राकृत लोकाख्यानो की परम्परा मे विकसित हुई है. जो था काव्य-रचना से इस संबंध में विशेष पुष्टि नहीं होती। मूलत: नायको के चरित तथा धार्मिक प्रभाव को प्रकाशित परन्तु यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि अपभ्रंश एवं प्रसारित करने में प्रत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए हैं। यही कथाकाव्यों में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। रचनाकारण है कि अपभ्रंश के प्रत्येक कथा तथा चरितकाव्य परिभाग की दृष्टि से कथाकाव्य की विधा में अभी तक