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मालोप पाश्र्वनाथ-प्रासाद
जाता है, यह प्रासाद इस का अपवाद नही, शिखर पतियो ने स्वतन्त्र कलोपकरणों का उन्मुक्त भाव से कालिमावृत्त है । क्षुप उत्पन्न हो गये हैं, सभा मण्डप के उपयोग कर प्रान्तीय या क्षेत्रगत शैलियो को सुरक्षित पाषाण खिसकने लगे है। भीतरी अंश भी जल धारा से रखा है। राजस्थान के मध्यकालिक देवायतन के प्रवेशप्रभावित है । गर्भगृह चमगादड़ो से परिपूर्ण है। कक्षासन द्वार गुप्तयुगीन कलोपकरणों से सर्वथा अप्रभावित नहीं की प्रतिमाए और मण्डावरीय मूत्तिएँ सरकाई जा चुकी है। नागदा स्थित सास-बहू का मदिर और कैलाशपुगेस्थ हैं, सुन्दर पत्थर गिरने की स्थिति में हैं। तात्पर्य प्रत्येक लकुलीशप्रासाद और प्रशत: कुम्भश्याम गुप्तकला मे दृष्टि से प्रासाद को क्षति पहुंचाने के सभी प्रयत्न साकार प्रभावित होने के बावजूद भी उनमें अपना क्षेत्रगत हुए हैं। बावजूद भी उसका अपना अस्तित्व है। निजत्व है। प्रवेशद्वार
वास्तुशास्त्र विज्ञों ने अपनी परिभाषा के अनुसार
चार भागो में विभक्त किया है। उदुम्बर-ऊबरा-दहली प्रवीण स्थपतियो ने प्रासाद-प्रवेश द्वार को सवारने दो पार्वस्तम्भ, उत्तरंग-सिरदल इन चतुरगो को स्व. का पूरा प्रयत्न किया है। सौदर्यमण्डित ऐसे द्वारो से क्षमतानुसार सर्वत्र सजाने-संवारने का सदप्रयत्न किया न केवल व्यक्ति का मात्विक भावनामों को ही बल है। द्वारशाखा के निचले अश में अर्द्धच द्राकार प्राकृति मिलता है, अपितु, प्राराध्य के प्रति भी हार्दिक श्रद्धांजलि दोनो गगारे, शंखावटी एवम् लतासह पद्मपत्रो का अपित करने को मन विकल हो उठता है। प्रवेशद्वारो अकन किया जाता था। कवि कालीदास ने उत्तर में इन पर खनित प्राकृतिया प्राध्यात्मिक भाव सृष्टि के साथ शब्दो में उल्लेख किया है :जनजीवन का भी उद्दीपन करती हैं। भारतीय कला की द्वारोपान्ते लिखितवपुषी शंखपवमोच वष्टवा यही सर्वागीण विशेषता है।
दहली के तीन अंश कर, तमध्यवर्ती भाग मे लता
युक्त कमल पंखुड़ियो का अद्ध गोलाकार तक्षण करने का गुप्तकाल में वास्तु और मूत्तिकला उन्नति के चरम
विधान रहा है, शिल्पी परिभाषा में इसे मन्दारक कहते उत्कर्ष पर थी। उस युग के प्रवेशद्वार सौदयाभिव्यजन के साथ अन्तर्मुखी जीवन-विकास की अोर दिशा निर्देश
पाश्वस्तम्भो के तीन भागो को छोड कर एक करते है। तिगवा और देवगढ के द्वार इसके साक्षी है ।
भाग के उदय में दोनों ओर द्वारपाल बनाने का उनकी कलाभिव्यक्ति अद्भुत है। यहा उल्लेखनीय है
विधान' है। शेष स्तम्भ शाखा बनानी चाहिए । इन कि गुप्त या गुप्तपूर्वकाल से मध्यकाल तक के इस प्रकार
शाखामों को कलाकार अपनी कलामो द्वारा सजातेके गृहा या मन्दिरो के द्वारो का क्रमिक विकास इतिहाम शिल्प-स्थापत्यशास्त्र के प्रकाश में लिखा जाना चाहिए,
सवारते थे। इनका क्रम प्रासाद प्रगानुमार रहता था। ताकि विविध कलात्मक अलंकरणो की विकसित परम्परा
उत्तरंग अथवा मिरदल भी द्वारका महत्वपूर्ण अंग का सम्यक अध्ययन प्रस्तुत किया जा सके। मन्दिर पौर है। इसक मध्य म गभगृह स्थापित प्रतिमा का बिम्ब मूत्तिकला के विकास मान इतिवत्त के समान इसका भी रहता है, जन मान्दग में इसका सवत्र परिपालन दष्टिरोचक इतिहाम कम उपादेय नही। स्वल्प अध्ययन में 1- द्वारदघय चतुर्थाश द्वारपालो विधीयते । विदित हसा कि प्राचीनतम शैल्पिक रचनामो के सम्पूर्ण म्तम्भ शाखादिक शेष त्रिशाखा च विभाजयेत् ॥६२ सिद्धान्तो का परिपालन सर्वत्र प्रासादो में दृष्टिगोचर
-प्रासादमण्डन, अध्याय ३ नहीं होता। यह क्रम मध्यकाल और तदनन्तर भी 2- यस्य देवस्य या मृतिः मैव कार्योत्तरंगके । प्रचलित रहा है । इमका एक मात्र कारण यही ज्ञात शालायां च परिवारो गणेशश्चोनरगके ॥६॥ होता है कि मौलिक सिद्धान्तों की रक्षा करते हए म्थ
---प्रामादमण्गुन, प्रध्याय ३