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धर्मकान्त
यों का जो गौरव सुरक्षित रहा है उसे समझने के स्थित है। विशाल गिरिशृंग से सटा है। यहां भी किसी लिए अन्तर्दृष्टि चाहिए और संवेदनशील हृदय । समय सोपान थे। तोरण सहित सिंहद्वार भी था, किन्तु शताब्दियों के मूसलाधार जल प्रवाह के कारण इन सबका अस्तित्व विलीन हो गया। अवशिष्ट चिह्नों से से इसका सहज ही अनुमान होता है। गिरिशृंग की मुख्य जलधारा का पठन केन्द्र सौपान ही थे, पहाड़ी की तलहटी में निर्मित दोनों प्रासादो को भी पर्याप्त क्षति पहुँची है। यहां तक कि पद्मावती प्रासाद तो बहुत ही ढक गया है। गर्भ गृह का स्थानकिंचित् ही दृष्टि-शेष रहा है। यदि इसी प्रकार इस शिल्प वैभव के प्रति कुछ वर्षों तक उपेक्षा रही तो मन्दिर का उल्लेख केवल इतिहास के पृष्ठो में ही रह जायगा ।
अनोप पाश्र्वनाथ का प्रासाद भी किंवदन्तियों के अम्बर से अनावृत नहीं है। जनता का विश्वास है कि ग्रामोन्य मन्दिर पद्म रावल का है, जैसे सुमान देवरा फोरममीपवर्ती पद्मावती का मन्दिर, जिसे पद्म रावल की भगिनी का मन्दिर माना जाता है। ये दोनों श्रद्धांगिनी स्मारक नागदा में हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से यह विचार गीय है, किसी भी नरेश का स्मारक बनाने का जहां तक प्रश्न है, यह बात समझ में पानी है, कि पर उनके नाम पर स्वतन्त्र प्रामाद बने हो और वह भी नागदा में । यह तो सर्वथा ही सम्भव है। पुष्ट प्रमारण के प्रभाव में इस जनश्र ुति पर विश्वास नही किया जा सकता, कारण कि मन्दिर के सम्बन्ध में विशेष कुछ कहने की अपेक्षा यहां की शैल्पिक शैली स्वयं बोलती है। स्थापत्य ही उसका इतिहास है । यद्यपि यह सत्य है कि पाट के सिहासन पर पद्मसिंह शक्ल हुआ है जो मथनसिंह का उत्तराधिकारी था, इमी ने योराज को नागदे की कोतवाली सुप्रत की थी, मममुच यदि उनका मन्दिर होता तो चीरवा - प्रशस्ति में उल्लेख अवश्य हो मिलना उनकी रानी पद्मावती रही होगी, सच बात तो यह है कि प्रासाद पाश्र्श्वनाथ का है और पद्मावती उनकी पिटा है प्रामाद की शिल्पकला और तथा उत्कीर्ण लेख भी उपयुक्त तथ्य का समर्थन करते हैं, दूसरी बात यह है कि यहा की मूर्तियाँ स्वयं अपने आपमें अकाट्य प्रमाण है । सं १९६२ का लेख भी इसे जैन मन्दिर ही प्रमाणित करता है, पद्म रावल का अस्तित्व समय तेरहवी शती है। तात्पर्य प्रसाद पर्याप्त पूर्ववर्ती है। प्रासाद-स्थान
नागदा से देवकुलपाटक- देलवाडा जाने वाले पुरातन राजमार्ग से कुछ ऊपर उपत्यकारी वरिंगत प्रासाद प्रव 1. ओपर्चासहभूपालो योगराजस्तनारता । नागहृदेपुरे प्राय पौरखीतिप्रदायक ॥ - बोरवा प्रवास्ति
प्रासाद का नव्य नामकरण
जैन स्तुतिपरक साहित्य में "नाग हृदेश्वर" पार्श्वनाथ का उल्लेख पाता है और उसको लेकर दोनो सम्प्रदायों में कभी बाद भी चला था जिसका विस्तृत विवेचन यथा स्थान होगा, यहाँ तो केवल इतना ही संकेत श्रलम् होगा कि पुरातन 'जैन साहित्य और सिलोरकीर्ण लेखों में पार्श्वनाथ के इस मन्दिर का उल्लेख पाया जाता है पौर समय-समय पर जो भी यात्री आये उनमें के कुछेकने अपने आगमन काल और उद्देश्य मन्दिर की भित्ति पर अंकित कर दिये है।
मन्दिर की वर्तमान अवस्था पर विचार प्रकट करने के पूर्व प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इसका नाम "अलोप पार्श्वनाथ" कैसे पहा ? भगवान् शंकर भौर तीर्थकरों में पार्श्वनाथ के अनेक नाम हैं, उनमें यह नव्य है। केवल यात्रियो के सकेतो में यह नाम पाया जाता है। अनुमान है कि गर्भगृह में धन्यकार होने के कारण दिन को भी प्रतिमा अदृश्यवत् प्रतीत होती है इस लिए नामकरण भी वैसा ही कर दिया गया है, इस नामकरण का इतिहास १६ वी शती से प्राचीन नहीं है, शिलोत्कीर्ण प्रशस्तियो में तो पार्श्वनाथ का ही सूचन है।
प्रासाद की वर्तमान स्थिति
कभी-कभी प्रेरक भी स्वय प्रेरणा का पात्र बन