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धनपाल विरचिन "भविसयत्तकहा" और उसकी रचना-हिघि
कई काव्यों मे अठारह, बीस, बाईस, चौबीस, तीस, बत्तीस की कथाये भी जैन कथाम्रो से बहुत कुछ मिलती जुलती और छत्तीस तक पक्तिया तथा छन्द एक कडवक मे है२ । परम्परागत प्रचलित भारतीय लोककथापो को ग्रहण लक्षित होते है। कडवक द्विपदी या दुवई प्रथवा दोहा के कर मूफी कवियों ने प्रेम अभिव्यजना तथा अलौकिक प्रेम आकार के किसी छन्द से जुड़े रहते है। कही कही कड- की अभिव्यक्ति के लिए कहीं-कही उनमे परिवर्तन भी वक के प्रादि मे और कही-कही अन्त-मादि दोनो में दोहा किया और पन्तकथानो को छोड कर जन मानम में अपने के आकार का कोई न कोई छन्द सयुक्त रहता है। ग्रादर्शी की प्रतिष्ठा करने का भी प्रयत्न किया। वस्तुत: अधिकतर यह पन्त मे जड़ा देखा जाता है। प्रबन्ध-रचना वे इस रीति को छोडकर भारतीय जनता के बीच लोक की यह शैली अपभ्रंश तथा हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यो प्रिय नही बन सकते थे। इसलिये कथा, चरित्र, शैली, के समान रूप से मिलती है। वस्तु, घटना, कथानक-रूढि भाषा और अभिव्यक्ति के अन्य उपादानो को भी उन्होने नथा चरित्र-चित्रण में ही नही प्रबन्ध रचना भी मुफी ग्रहण कर पादों का प्रचार किया। अपभ्रंश के कथा काव्य अपभ्रश काव्यो की परम्परा से प्रभावित जान पडत नथा चरितकाम्यो से ये केवल एक बात में ही भिन्न है । स्पष्ट रूप मे हिन्दी के प्रेमाख्यानक काव्यो की रचना लक्षित होते है और वह है-चलते हुये कथानक मे चौपाई-दोहा शैली में हुई है जो अपभ्रश काव्यो का दन अलौकिक प्रेम की व्यजना । परन्तु यह विशेषता जायसी है। यह अवश्य है कि अपभ्रश काव्यो की रचना सन्धि, के पद्मावत मे ही मिलती है। अपभ्रश की अभी तक परिच्छेद, विक्रम या भास प्रादि में की गई है और सूफी कोई रचना नहीं मिल सकी है। तथा प्रेमाख्यानक काव्यो की रचना शीर्षकबद्ध है। परन्तु अपभ्र श में प्राकृत की भाति धार्मिक वातावरण मे प्राकृत का 'गउडवह', कुवलयमालाकहा और अपभ्रश म ही लोक-जीवन की उन्मुक्त दशाग्रो मे भी स्ववत्र भावहरिभद्रमूरि रचित मिरणाहचरिउ' सर्गहीन रचनाए है। भूमि पर लोक गाथाम्रो को प्रेम एवं रममयी वाणी प्रदान मभव है कि इस प्रकार की रचनाए और भी लिखी गई की गई है उनमे लोक-चेतना का महज प्रवाह लक्षित होता हो पर काल-प्रवाह में न वच पाई हो। इम सबध में श्री है। तथा मामन्तकालीन प्राभिजात्य वग के मामाजिक रूप परशुराम चतुर्वेदी द्वारा निष्कर्ष रूप मे अभिव्यक्त विचार का स्पष्ट दर्शन होता है। अपभ्रश मे कथा काव्यो म ही उचित जान पडता है-"जिस समय हिन्दी के मूफी प्रयुक्त अधिकतर कथाए प्रेमगाथाए है जो किन्ही विभिन्न प्रेमाख्यानो की रचना प्रारम्भ हुई उम ममय तक उनके उद्देश्यो मे कई उप-कथानो के माथ जुड़ी हुई है और रचयितानों के लिये ऐसी अनेक बाते प्रस्तुत की जा चुकी उद्देश्य प्रशन होने के कारण कई स्थानों पर धार्मिक थी जिनका वे किसी न किसी रूप में बड़ी सरलता से वातावरण में अभिव्यक्त की गई है। चरितकाव्यो की उपयोग कर सकते थे। क्या कथा-वस्तु, क्या काव्य-रूप, कथानो मे मोह तथा परिवर्तन कम है, क्योकि उनमे क्या रचनाशली, और कथा-रूड़ियो जैसी सामग्री, इनम प्रारम्भ मे ही नायक को अमाधारण एव अनिलौकिक रूप से कदाचित् किसी के लिये भी उन्हे न तो कोई सवया चित्रित किया जाता है । देव लोग उनका स्नान-अभिषेक नवीन मार्ग निर्मित करने की आवश्यकता थी और न करते है, तरह-तरह के माधन जुटाते है और उनके प्रतिअधिक प्रयास करने को१" । और यह सर्वमान्य सत्य है कि शय म्प तथा माप में पहले में ही प्रभावित एव सूफी प्रेमाख्यानों में प्रयुक्त अधिकतर कथाय भारतीय है, प्राकर्षित रहते है। किन्तु कथाकाव्य में दुख मुख के भारतीय लोक-जीवन की है। उदाहरण के लिये-अपभ्रश भलो में झूलते हुए, मघर्ष-विषयो मे टकराते हुए, प्राशाकी 'विलासवतीकथा' और दुखहरनदासकृत 'पृहपावती'
निगशा में डूबते-उतरने हुए नायक अपने जीवन का स्वय मे अद्भुत साम्य है। इस प्रकार पद्मावती तथा मृगावती नि
HATHIावती निर्माण करते है और माधारण मे माधारण पुरुष की १. "लोकगाथा और मूफी प्राख्यान" शीर्षक लेग्य, २. देखिये, कुतुबन कृत मगावनी-डा. शिव गोपाल "हिन्दुस्तानी", भाग २३ अक २, पृ० ३८ ।
मिश्र, हिन्दी साहित्य मम्मेलन, प्रयाग ।