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श्री गुरुवर्य गोपालदासजी वरया
समाज उनके उपकारों से अनृण नही हो सकता है । उनको थे। एक दो बार पेशकार ने कुछ लञ्चा ले ली थी। प. स्नेहपूर्ण कृतियों को हम स्मरण कर उनके चरणो मे जो उस पर अत्यधिक कुपित हुए पुनः उसको पृथक कर श्रद्धाजलि समर्पित करते है।
दिया। १० जी का राज्य में विशेष प्रादर प्रभाव था। एक बात प्रकरणान्तर की कहानी है। मुझे पं० ग्वालियर के महाराज साहब ने पण्डित जी को दरबारी दुर्गादास जी, जीवमनाथ झा, हरिवश ओझा, सहदेव झा, पोशाक देकर सत्कृत किया था। राज्य के तदानीन्तर अम्बादासजी शास्त्री, रामावतार पाण्डेय, आदिवष्णव पमारसाब तो गुरुजी के मित्र थे तथा शिक्षा मन्त्री एच. विद्वानो से सिद्धान्तकौमुदी, मनोरमा शब्देन्दुशेखर, व्युत्पत्तिः एम बुल (अग्रेज) पण्डितजी को मान्य करते थे। यो राज्य, वाद, शक्तिवाद, काव्यप्रकाश, रसगगाधर, सामान्य निरुक्ति, राष्ट्र प्रजाजनो मे पण्डितजा का पुस्कल पादर सम्मान था। सिद्धान्तलक्षण, साधारण, सन्प्रति पक्ष प्रादि वैष्णव ग्रन्थी
स्थानीय रईस ला० रामजीवनजी (सभापति), लाला को पढ़कर जो आनन्द प्राप्त हया था। गुरुजी से धर्मशास्त्र ।
मिट्ठनलालजी (व्यापारी), ला वशीधरजी चौधरी, सेठ के ग्रन्थ पढकर वह सब प्रकाण्ड सुख के सम्यग्ज्ञान रूप से
गिरवरजी, छीतरमलजी जैन, सभी प्रतिरिठत नागरिक परिणत हुप्रा । यह सब गुरु जी के प्रसाद से प्राप्त हुग्रा
सज्जन पं. जी को उच्चासन देते थे। ' विद्वान् सवत्र पूज्यते" "तेभ्यो गुरुभ्यो नम." गुरुजी को जैन ग्रन्यो के ही अध्ययन
प. जी ने सम्मेदशिखरजी, जैनबद्री, सोनागिरिजी, अध्यापन का पक्ष था।
मुक्तागिरिजी आदि अनेक तीर्थों की भावभक्ति पूर्ण वन्दपुज्य प० वर्णी जी महाराज गणेशप्रसाद जी (गणश- नाए की थी। धर्म अर्थ, काम का परस्परविरोध से सेवन कोति मनिराज) १० महेन्द्रकुमार जी, ५० दरबारीलान करते थे। न्यायपूर्वक प्राजीविका करते थे। अल्प प्रारम्भ जो कोटिया आदि विद्वानो ने भी अवच्छेदकावच्छिन्न परिग्रह उनको रुचिकर था। संवेदी निवदी थे। फक्किकानों, परिष्कार ग्रादि पढ़ाने में भारी श्रम किया
पण्डितजी के एक कौशल्या लड़की थी। भाई माणिकहै। मैंने भी १५ वर्ष घोर अध्यवसाय कर वैष्णव न्याय,
चन्द्र एक लडका था। दो पौत्र थे। पण्डितानी, पुत्रवधू, व्याकरण, साहित्य के अध्ययन में अजमेर, जयपुर, मथुग,
पौत्र, नातिनी २ यो छोटा सा ही परिवार था । मोरना मे काशी मे समय यापन किया है किन्तु इनमे अमृताब्धि
प्राड़त की दुकान की। साधारण वस्त्र भूपावेप था। विलोडन कर भी प्रवाल ही प्राप्त हुआ।
पण्डित जी का पठन-पाठन चर्चावार्ता, शङ्का समाधान हा गोम्मटसार, राजवात्तिक, श्लोकवात्तिक ग्रन्थो में
व्याख्यान, लेख लिखना, यही रात्रि दिवसीयचर्या थी। पर्याप्त अमृतसर्वस्व मुझे प्राप्त हुमा । अत. मस्कृताध्ययन
सात्त्विक वृत्ति के जैन पत्रो के सम्पादक भी रह चुके थे। करने वाले छात्रों से मेरा साग्रह निवेदन है कि वे अल्प
उम समय पंडितजी के लेखो का भारी प्रभाव था। सार ग्रन्थों में अधिक श्रम नहीं कर जैन वाइमय जैनन्याय
निर्भीक होकर पागमोक्त तत्वो का प्रतिपादन करते थे। काव्य ग्रन्थो मे परिश्रम करे। जिनसे ठाम विद्वत्ता के साथ
वे किमी धनिक के प्रभाव या चादकारिता के प्रसङ्ग मे स्वपर कल्याण करते हए घोर परिश्रम को सफल कर
नहीं पडे। मके । "तद्धि जानन्ति तद्विदः"
न्याय पक्ष अनुमार वे धनिको को भी भत्सित कर शासक
देते थे। अन्तरग मे दयालुता, धार्मिक स्नेह, समुद्र तरगित पण्डितजी महोदय गोपाल सिद्धान्त विद्यालय के तो रहता था । पण्डितजी जैन समाज के प्राधार स्तम्भ थे। मर्वागीण शासनकर्ता थे ही। स्थानीय म्युनिसिपल्टी के मे नि स्वार्थ उपकारी, धुरन्धर विद्वान् भी काल कवलित भी कमिश्नर थे तथा स्थानीय पचायती बोर्ड के भी मजि- हो गए । “यमम्य करुणा नास्ति कर्तव्यो धर्म सचयः ।" स्ट्रेट रह चुके थे। वे सत्य और न्याय अनुसार निर्णय देने
(जैन मन्देश मे साभार)