Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ ३.६ सू०९ अष्टादशं कषायद्वारनिरूपणम् १७५ भावः । 'णियंठेगं पुच्छा' निम्रन्थः खल्ल भदन्त ! कि सकषायी भवेत् अकषायी वा भवेदिति पृच्छा-प्रश्नः, भागवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'गो सकसाई होज्जा' नो सकषायी भवेद निर्ग्रन्थः किन्तु अकषायी भवेत् 'जइ अकसाई होज्जा कि उवसंतकसाई होना खीणकसाई होज्जा' यदि अकषायी भवेत् निर्ग्रन्थस्तदा स किम् उपशान्तकषायीभवेत् क्षीणकषायी वा भवेत् भग. वानाह-'गोयमा' उपसंतकसाई वा होज्जा खीण कसाई वा होज्जा' उपशानकापायी वा भवेत् क्षीणकषायी वा भवेत् 'सिगाएवि एवं चेत्र' स्नातकोऽपि है। इसका कारण यह है कि जब पूर्वोक्त श्रेणियों में उसके माया का उपशम अथवा क्षय हो जाता है तब वह एक संज्वलन सम्बन्धी लोभ. वाला होता है। क्यों कि १० वें गुणस्थान में एक सूक्ष्म लोम ही अवशिष्ट रहता है। 'णियंठे गं पुच्छा' हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ साधु कषाय वाला होता है । अथवा अकषायवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! 'यो सकसाई होजना, अकसाई होजजा' हे गौतम ! निग्रंन्य कषायवाला नहीं होता है किन्तु कषाय रहित होता है। 'जइ अकसाई होज्जा, कि उवसंतकसाई होज्जा, खीणकसाई होज्जा' हे भदन्त ! यदि वह कषाय रहित होता है तो क्या उपशान्त कषाय वाला होता है अथवा क्षीणकषायवाला होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'उवसंतकसाई वा होज्जा, खीण कसाई वा होजा? हे गौतम ! वह उपशान्तकषायवाला भी होता है और क्षीणकषायवाला भी होता है। 'सिणाए वि एवं चेव' निर्ग्रन्थ की तरह स्नातक भी कषाप છે. તેનું કારણ એ છે કે-જ્યારે પૂર્વોક્ત શ્રેણિયેમાં તેઓને માયાને ઉપશમ અથવા ક્ષય થઈ જાય છે, ત્યારે તે એક સંજવલન સંબંધી ભવાળા હોય छ. भ इसमा गुणस्थानमा ४ सूक्ष्म सम 1 माडी २९ छे. 'णियंठेणं पुच्छा' सावन निन्य साधु उपाय हाय छ १, ४ाय विनाना हाय छ ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा !' गौतम! 'णो सकसाई होज्जा, अकसाई होज्जा' हे गौतम! निश्रन्थ पायवाणाडता नथी. ५२ षाय विनाना जाय छे. 'जइ अकसाई होज्जा, कि उवसंतकसाई होज्जा, स्त्रीणकसाई होज्जा' भगवन्ने ते अषय विनाना डाय छे. तो શું ઉપશાન્ત કષાયવાળા હોય છે? કે ક્ષીણ કષાયવાળા હોય છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु हे छे 3-'उवसंतकसाई वा होज्जा, खीणकसाई वा રોકા' હે ગૌતમ ! તે ઉપશાંત કષાયવાળા પણ હોય છે અને ક્ષીણકષાય.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬