Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 690
________________ ६७६ भगवतीसो कारको भङ्गो भरतीति पूर्वभवापेक्षया द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियेषु अपर्याप्तावस्थायां सम्यक्त्वादि चतुष्टयस्य सद्भावे तत्समये आयुर्वन्धाभावात् । 'पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते तइओ भंगो' पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां सम्यग्मिथ्यात्वपदे तृतीयोऽबध्नात् न बध्नाति भन्त्स्यतीत्याकारको भङ्गो ज्ञातव्य इति । 'सेसेसु पदेसु सरस्थ पढमतइया भंगा' शेषेषु सम्यग्मिथ्यात्वातिरिक्तेषु सर्वपदेषु मथमतृतीयौ अबध्नात् बध्नाति भन्स्यति१, अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यती. त्याकारको द्वावेव मङ्गौ भवत इति । 'मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकसाइंमि य तइओ भंगों' मनुष्याणां सम्पग्मिथ्यात्वे अवेद के अषायिनि च तृतीयो भङ्गः, अबध्नात् न बध्नाति भन्स्यति इत्याकारक एव भवतीति । 'अलेस्स केवलनाण अयोगी य न पुच्छि जंति' अलेश्या केवलज्ञानी अयोगी च न पृच्छयन्ते अपेक्षा से इन दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों में अपर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्वादि चतुष्टय का सद्भाव रहता है। और इस समय आयुका पंध नहीं होता है। ____पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते तइओ भगो' पञ्चे. न्द्रियतिर्यग्योनिकों के सम्बग्मिथ्यात्व में तृतीय भंग होता हैं। 'सेसेलु पदेसु सव्वस्थ पढमतझ्या भंगा' सम्पग्मिथ्यात्वसे अतिरिक्त और समस्त पदों में प्रथन और तृतीय ऐसे दो ही भंग होते है 'अषनात्, बध्नाति, भन्स्थति,' यह प्रथम भंग है 'अवधनात् न बध्नाति, भन्स्यति' यह तृतीय भंग है, 'मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकसाइंमि य तइओ भंगो' मनुष्यों के सम्यग्मिथ्यात्व, अवेदक और अकषायी इन तीन पदों में तृतीय भंग होता है, 'अलेस्स केवलनाण अयोगी य न पुच्छिन्नंति' अलेश्य, केवलज्ञानी 'पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते तइओ भगो' पयन्द्रियतिय"य योनियाणासान सभ्यभिथ्यात्वमा ५ enाय छे. 'सेसेसु पएसु सव्वत्थ पढमतया भगा' सभ्यभिच्या शिवायना भी संघ स्थानीमा पडतो भनेत्री सम में भी डाय छे. 'अबध्नात् , बध्नाति भन्स्यति' म पडतो An छे. 'अबध्नात् , न बध्नाति, भन्स्यति' मा श्री at छे. _ 'मणुस्खाणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकसाइमि य तइयो भंगो' मनुष्याने સમ્યકૃમિથ્યાત્વ, અવેદક અને અકષાધિ આ ત્રણ સ્થાનમાં ત્રીજો ભંગજ साय छे. 'अलेस्स केवलनाण अयोगी य न पुच्छिज्जति' असेश्य, ज्ञानी, શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬

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