Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
________________
२७४
भगवती सूत्रे
पुरुषनपुंसक वेदको वा भवेदिति कृत्रिम नपुंसकइत्यर्थः । ' मुहुमसं परायसंजओ अहक्वायसंजओ य जहा नियंठे' सूक्ष्मसंपरायसंयतो यथाख्यातसंयतश्च यथा निग्रन्यः क्षीणोपशान्तवदेत्वेनाऽवेदक एव भवतीत्यर्थः । इति वेदद्वारम् ||
अथ रागद्वारं तृतीयम् - 'सामाइयसंजर णं भंते !" सामायिक संयतः खलु भदन्त | 'किं सरागे होज्जा बीयरागे होज्जा' किं सरागो भवेत् वीतरागो वा भवेदिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'सरागे होज्जा नो वीयरागे होज्जा' सरागो भवेत् सामायिकसंयतस्य रागवश्वमेव न तु रागराहित्यमिति भावः । ' एवं जान सुहूमसंपरायसंजए' एवं में वेद का कथन पुलाकोक्त वेद के कथन जैसा जानना चाहिये । अर्थात् परिहार विशुद्धिक संयत पुरुषवेदक भी होता है और पुरुष नपुंसक वेदक भी होता है। पुरुष नपुंसक का मतलब कृत्रिम नपुंसक से है। 'सुमसंपरायसंजओ अहक्खाय संजओ य जहा नियंटे' निर्ग्रन्थ के जैसे सूक्ष्मसंपराय संयत और यथाख्यातसंवत भवेदक ही होते हैं क्यों कि ये उपशान्तवेदवाले और क्षीणवेदवाले होते हैं वेद द्वार समाप्त २ । तृतीय रागद्वार का कथन
'सामाइयसंजर णं भंते किं सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा' हे भदन्त ! सामायिक संयत क्या सराग होता है अथवा वीतराग होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोयमा ! सरागे होज्जा, नो बीयरागे होज्जा' हे गौतम! सामायिकसंयत सराग होता है, वीतराग नहीं होता है । ' एवं जाव सुहृमसंपराय संजए' इसी प्रकार से
કના સબંધમાં કહેલ વેદના કથન પ્રમાણે સમજવુ જોઇએ. અર્થાત્ પરિહાર વિશુદ્ધિક સયત, પુરૂષ વૈદક પણ હાય છે, અને પુરૂષ નપુંસક વેદક પશુ होय छे. पु३ष नपुंसउ भेटते हृत्रिम नपुंस थेप्रमाणे समन्वु', 'सुहुप संपरायसंजओ अहक्खायसंजओ य जहा नियंठे' निर्थन्धना उथन प्रभा સૂક્ષ્મ સૌંપરાય સયત અને યથાખ્યાત સયત અવેદકજ ડાય છે. કેમકે તેઓ ઉપશાંત વેદવાળા અને ક્ષીણુ વેદવાળા હાય છે.
ખીજું વેદદ્વાર સમાપ્ત !
ત્રીજા રાગદ્વારનું કથન
'सामाइय संजय णं भंते! किं खरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा' डे भगवन् સામાયિક સયંત શુ' સરાગ હોય છે ? અથવા વીતરાગ હૈય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरभां अलुश्री हे छे - 'गोयमा ! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होज्जा' डे गौतम | सामायिक संयंत सराग होय छे, वीतराग होता नथी. 'एष' जाव
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬