Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
भङ्गा भवन्ति शुक्लपाक्षिकस्येव । 'मिच्छादिट्ठी गं पढमवितिया गंगा' मिथ्याटीनां प्रथमद्वितीय भङ्गौ, अवघ्नात् बध्नाति भन्रस्यति, अवधनात् बध्नाति न भन्त्स्यतीत्याकारकौ ज्ञातव्यौ मिथ्यादृष्टेर्वर्त्तमानकाले मोहकर्मणो भावेन अन्त्य - द्वयभङ्गभावादिति । ' सम्मामिच्छादिट्ठी णं एवं चेव' सम्यग्र मिथ्यादृष्टीनाम् एवमेव - मिथ्यादृष्टिवदेव आद्यावेव द्वौ भङ्गौ ज्ञातव्य नतु तृतीयचतुर्थो अत्रापि स एव हेतुरिति ४ । 'नाणीणं चत्तारि भंगा' ज्ञानिनां चत्वारोऽपि भंगा ज्ञातव्याः ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में ही पापकर्म का बन्ध किया है वर्तमान में जो पापकर्म का बंध नहीं करता है और न भविष्यत् काल में ही वह पापकर्म का बन्ध करेगा, इस प्रकार शुक्लपाक्षिक के जैसे ही यहां चार भंग होते हैं ।
'मिच्छादिट्टीणं पहमबितिया' मिथ्यादृष्टि जीवों के प्रथम और द्वितीय ऐसे दो भंग होते हैं। जैसे 'अवघ्नात् बध्नाति भन्त्स्यति १ अबध्नात्, बध्नाति न भन्त्स्यति' । मिथ्यादृष्टि जीव के वर्तमानकाल में मोह के सद्भाव से ये आदि के दो भंग हुए हैं अन्त के दो भंग नहीं हुए हैं 'सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं चेव' मिश्रदृष्टि वाले जीवों के आदि के दो ही भंग होते हैं तृतीय और चतुर्थ ये अन्त के दो भंग नहीं होते है क्यों कि उसको वर्तमान काल में मोह कर्म का सद्भाव रहता है। '५ ज्ञानद्वार - 'नाणीणं चत्तारि भंगा' ज्ञानी जीवों के चार भंग होते है
એવા હોય છે કે-જેણે પહેલાં પાપ કમના અધ કર્યાં હાય છે, વર્તમાન કાળમાં જે પાપ ક્રમના અધ કરતા નથી. અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કર્મ ના મધ કરશે નહિ. આ પ્રમાણે શુકલપાક્ષિકના કથનની જેમજ અહિયાં પણુ ચાર ભગા થાય છે.
'मिच्छादिट्टीणं पढभबितिया' मिथ्यादृष्टिवाना लवाने पहेले। मने मीले थे मे लगो द्वाय छे. नेम है- 'अबध्नात्, बध्नाति, भन्त्स्यति, अबध्नात्, वध्नाति न भन्त्स्यति' मिथ्यादृष्टिवाणा भवने वर्तमान अणमां भोहना સદૂભાવમાં આ આદિના એ ભગા થાય છે. અંતના એ ભગા થતા નથી. તેમ સમજવું.
'सम्मामिच्छादिट्ठी एवं चेव' मिश्रदृष्टिवाणा भवने याहिना मे ४ ભગેા થાય છે. ત્રીજો અને ચેાથે એ એ ભગા થતા નથી. કેમકે તેને વત માન કાળમાં માહનીય કાઁના સદ્ભાવ રહે છે.
'नाणीणं चत्तारि भंगा' ज्ञानी कवीने यारे लगो होय छे, प्रेम -
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬