Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
'वर' इत्यादि, 'णवरं जंमणसंतिभावं पडुच्च चउसु वि पलिभागेसु नत्थि' नवरं जन्मसद्भावं च प्रतीत्य चतुष्वपि प्रतिभागेषु सुषमसुषमा- सुषमा सुषमदुःपमा दुःषमसुषमा समानकालरूपेषु नास्ति न भवतीत्यर्थः ' साहरणं पडुच्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा' संहरणं प्रतीत्य अन्यतरस्मिन् प्रतिभागे भवेदिति । एतावदेव वैलक्षयं वकुशापेक्षया छेदोपस्थापनीयस्येति ।
वहां पर भी निषेध किया गया है। यही बात सूत्रकार ने 'नवरं जम्मणसंतिभावं पडुच्च चउसु वि पलिभागेसु नरिथ' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है कि जन्म और सद्भाव की अपेक्षा से चारों प्रतिभागों में सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा और दुःषमसुषमा इनके समान काल में वह छेदोपस्थापनीय संयत नहीं होता है । 'साहरणं पटुच्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा' संहरण की अपेक्षा से इन चारों में से किसी एक प्रतिभाग- समानकाल में होता है यही बकुश की अपेक्षा से छेदोपस्थापनीय की विलक्षणता भिन्नता है । यहां जो कहा है कि सुषमसुषमादि चार कार्यों में से किसी एक काल में संहरण की अपेक्षा से होता है किन्तु सब कालों में नहीं होता है उसका कारण यह है कि छेदोपस्थापनीय चारित्र महाविदेह में नहीं होने के कारण सुषमसुषमादि आरों में संहरण की अपेक्षा से भी नहीं मिलेगा, क्यों कि उससमय में तो छेदोपस्थापनीय चारित्र का ही अभाव होता है तो फिर संहरण तो हो ही नहीं सकता है । 'सेसं तं चेव' नवरं इस सूत्र पाठ द्वारा कथन किये गये
निषेध आहे हे. मेन वात सूत्रहारे 'णवर जंमणसंतिभाव पडुच्च चउसु वि पलिभागेसु नत्थि' या सूत्रपाठ द्वारा प्रगट पुरेस छे, डे-भन्स भने સદ્ભાવની અપેક્ષાથી ચાર પલિભાગમાં—સુષમસુષમા, સુષમા, સુષમદુઃખમાં, અને દુ:ખમ સુષમાના સમાનકાળમાં તે છેદેાપસ્થાપનીય 'યત હૈાતા નથી. 'साहरणं पडुकच अन्नयरे पलिभागे होज्जा' सरगुनी अपेक्षाथी मा न्यारे પૈકી કઈ એક પ્રતિભાગ-સમાનકાળમાં હાય છે. અકુશના કથન કરતાં છેદ્યાપસ્થાપનીયના કથનમાં એટલું જ જુદાપણું છે.
અહિયાં જે કહ્યુ` છે કે સુષમસુષમાદિ ચારે કાળ પૈકી કોઈ એક કાળમાં સ'હરણની અપેક્ષાથી થાય છે. પણ સઘળા કાળમાં થતા નથી તેનું કારણ એ છે કે-છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્ર મહાવિદેહમાં ન હોવાથી સુષમસુષમાદિ આરાઓમાં સહરણની અપેક્ષાએ પણ મળતા નથી. કેમકે એ સમયમાં તેા છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્રના જ અભાવ થઇ જાય છે. તેથી સહરણ થઈ જ શકતુ નથી.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬