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पुनः दीक्षादानका प्रसंग
. पाटणसे पानसर होते हुए भोयणी पधारना हुआ । वहांपर सम्वत् १९७३के फाल्गुन कृष्णा ३के दिन शुभ मुहूर्त लींमडीके रहीश शा. मणीलाल उजमशीभाईको उनके भाइकी आज्ञासे भागवती दीक्षा प्रदान कर उनको अपने शिष्यरूपसे ग्रहण किया और दीक्षितका नाम मुनिश्री मंगलविजयजी रक्खा । वहांसे विहार कर तारंगाजी होते हुए वीसनगर पधारे । वहांपर अहमदावादनिवासी शकरचन्द बालाभाइका दीक्षा ग्रहण करनेका विचार होनेसे वे स्वयं पंन्यासजी महाराजके समीप विनति करनेके लिये आये अत: महाराजश्री वहांसे विहार कर अहमदावाद पधारे और सम्वत् १९७३के जेष्ट शुक्ला १०के दिन शुभ मुहूर्तमें बडी धामधूमसे शेठ हठीभाई की वाडीमें शकरचन्द बालभाइको भागवती दीक्षा प्रदान कर अपना शिष्य बनाया और दीक्षितका नाम मुनीश्री सुमतिविजयजी रक्खा । वहां उंझाके संघकी ओरसे कइ आदमियों द्वारा विनति होनेपर महाराजश्रीने उंझाकी ओर विहार किया और चातुर्मास वहीपर किया और चातुर्मासमें उपधान तपकी क्रिया शुरू की और माला पहिनाने पश्चात् महाराजश्रीने विहार कर चाणस्मा होते हुए पाटणमें पदार्पण किया। विहार और तीर्थयात्रा
मरुधर प्रान्तकी ओर विहार करने निमित्त अपनी जन्मभूमिके लोगोंकी कई वर्षोंसे आग्रहभरी विनंति होनेसे पंन्यासजी माहाराज अपने पूज्य गुरुमहाराजकी आज्ञासे पाटणसे विहार कर पालनपुर होते हुए आबू गिरिराजकी यात्रा करते हुए जावाल होकर थांवला पधारे । सम्वत् १९७४को चातुर्मास संघ