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श्री नीतिविजयजी गणिवरने उनकी योग्यता तथा विद्वत्ताको देखकर संवत् १९७० के मार्गशिर्ष शुक्ला १३ के दिन उनको. गणिपद अर्पण किया और पूर्णिमाके दिन पंन्यास पद अर्पण किया । उस सुअवसर पर राधनपुरके संघकी ओरसे अट्ठाई महोत्सव तथा पावापुरी व मेरुपर्वतकी रचना हुई। पूर्णिमाके दिन अष्टोत्तरी स्नात्र हुआ व सायंकालको नवकारसी हुई । तत्पश्चात् वहांसे पूज्य गुरुमहाराजके साथ साथ विहार करते हुए आपश्रीका पालीताणे पधारना हुआ । वहां कुछ समय तक बिराजकर तीर्थयात्रा कर फिर सिहोर, वला, भोयणी आदि नगरोंमें होते हुए वीरमगाममें पदार्पण किया । वहां अहमदावादके श्रावकोंने वारंवार विनति करनेपर पूज्य गुरुमहाराजकी आज्ञा लेकर पंन्यासश्री हर्षविजयनी गणीवर अहमदावाद पधारे और सम्वत् १९७० का चातुर्मास वहींपर किया । इस चातुर्मासमें आपने प्रज्ञापनासूत्र तथा वस्तुपाल चरित्रपर कई सारगर्भित व्याख्यान दिये । चातुर्मासकी समाप्ति पर आप गुरुमहाराजको वन्दना करनेके लिये पानसर पधारे और वहांसे विहार कर पीछे अहमदावाद पधारे तथा सम्वत् १९७१ का चातुर्मास गुरुमहाराजके साथ वहीं पर किया । वहांसे कपडवंज पधारना हुआ। वहां आगमवाचनामें आवश्यकसूत्र उत्तराध्ययन पाई टीका और अनुयोगद्वारसूत्रका अध्ययन किया । वहाँसे विहार कर पेथापुर पधारे और सम्वत् १९७२का चातुर्मास वहांपर किया । इस चातुसिमें व्याख्यानके उपरान्त समय मिलनेपर विशेषावश्यक महाभाष्यका अध्ययन किया । वहांपर शकरचन्द कालीदासकी ओरसे अट्ठाई महोत्सव तथा समवसरणकी रचना की गई। वहांसे विहार होनेपर चाणस्मा होते हुए पाटण पधारना हुआ, जहांपर एक या दो महिने बिराजना हुआ ।