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सुषुम्ना के सक्रिय हो जाने के बाद दोनों स्वरों की गति शान्त और विरल बन जाती है। क्योंकि सुषुम्ना का सम्बन्ध सुषुम्ना शीर्ष तथा पूरे नाड़ी तंत्र के साथ होने के कारण शक्ति केन्द्र, आनन्द केन्द्र, शुद्धि केन्द्र और ज्ञान केन्द्र संचालित करने की योग्यता साधक को प्राप्त हो जाती है। इन केन्द्रों के साथ सम्बन्ध रखने वाली ग्रन्थियाँ भी तब सुन्दर रीति से रसों का परिष्पंदन करेगी और उसी प्रकार केन्द्रों में रहे हुए रंगों के साथ स्थान की एकाग्रता, श्वास की स्तब्धता तथा मंत्र की भावात्मक शक्ति का संयोग आन्तरिक शक्तियों के आलोक को उद्भासित कर देता है। इस प्रकार एकावधानता के प्रयोग एवं प्राप्ति की ये विधियाँ वर्णित की गई हैं, जिन के माध्यम से साधक अपनी विशृंखलित चित्तवृत्तियों को नियोजित करके समानस्वरता प्रदान कर सकता है। यह समानस्वरता अथवा समरसता समीक्षण ध्यान की पूर्व भूमिका का रूप लेती है।
समीक्षण शरीर तंत्र का ___यह दृश्य शरीर भी साधक की साधना के लिए एक महत्त्वपूर्ण अवस्थान है। इस दृश्य शरीर की भी आन्तरिक संरचना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। किन्त यह जीवन दृश्य शरीर की सीमा तक ही सीमित नहीं है। दश्य शरीर के भीतर सक्ष्म शरीर है तथा उससे भी आगे सक्ष्मतम शरीर है। कम से कम ये तीन शरीर तो जीवन की वर्तमान उपलब्धि के रूप में विद्यमान हैं ही। इन तीनों शरीरों की आन्तरिक व्यवस्था एक-दूसरे से सम्बन्धित है। संधि स्थान के रूप में प्रत्येक शरीर की अपनी- अपनी सीमा में कार्य परिणति समुचित रूप से संचालित रहती है। साधक जब तक सूक्ष्म
और सूक्ष्मतम शरीर में आवृत्त सच्चिदानन्द का साक्षात्कार नहीं करता है, तब तक उसके आत्म विकास की महायात्रा गतिमान रहती है।
यदि कोई व्यक्ति किसी दुर्ग में प्रवेश करना चाहता है तो पहले उसे उस दुर्ग की दीवारों, कोटों, कंगूरों तथा उसकी आन्तरिक संरचना की स्थिति को जान लेना जरूरी है। उस जानकारी के साथ उसकी निरीक्षण शक्ति भी प्रखर होनी चाहिये। तभी वह उस दुर्ग में प्रवेश करके अभिवांछित स्थान तक पहुँच सकता है। साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व इसी प्रकार साधक को भी शरीर तंत्र का समुच्चय ज्ञान कर लेना चाहिये। अगर कोई साधक इस तथ्य की उपेक्षा करता है तो वह दुर्ग में छिपे हुए खजाने का अता-पता कभी भी नहीं पा सकेगा। अपने आत्मस्वरूप में ज्ञान और सुख का जो खजाना छिपा हुआ है, उस तक अपनी पहुँच करने के लिए पहले शरीर तंत्र रूपी दुर्ग की सब प्रकार की जानकारी करना तथा निरीक्षण शक्ति को सुघड़ बना लेना जरूरी है। इसके बिना कोई साधक अपने भीतर रहे हुए आनन्द-कोष का उद्घाटन नहीं कर सकेगा।
शरीर भी धर्माराधना का अनिवार्य साधन है। आध्यात्मिक दृष्टि से पहले ही कोई साधक यह मान ले कि इस शरीर के साथ मेरा किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। शरीर विधानों के भीतर चलने वाली प्रक्रियाओं, विधि अथवा व्यवस्थाओं से मेरा कुछ भी लेना देना नहीं है तो वह साधक भूल करता है। शरीर-तंत्र के सम्यक् अनुसंधान तथा नियोजन के बाद ही वह आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश कर सकेगा। आवश्यकता इस बात की है कि इस शरीर तंत्र के सबल माध्यम को सांसारिक काम भोगों में न लगाकर धर्मसाधना के क्षेत्र में समभावपूर्वक नियोजित किया जाय। इस पुरुषार्थ का यह श्रेष्ठ फल साधक के समक्ष आ सकता है कि उसे अपने आत्म-स्वरूप में रहे हुए सच्चिदानन्द का साक्षात्कार हो जाय।
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