Book Title: Madan Parajay
Author(s): Nagdev, Lalbahaddur Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या प्रमुख चारित्र शिरोमणि सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज हीरक जयन्ती वर्ष के उपलक्ष में मदनपराजय [ श्री नागदेव विरचित ] सम्पादक: डॉ० लालबहादुर शास्त्री दिल्ली प्रकाशक : भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद द्रव्यदाता: श्रीमती शान्तिदेवो सेठी धर्मपत्नी : श्री मोहनलालजी सेठी सीमापुर (भासाम) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागवेवविरचितो मदनपराजयः प्रथमः परिच्छेदः * १ यदमसपदपद्म श्रीजिनेशस्य नित्यं शतमखशत सेय्यं पद्मगर्भादिवन्थम् । दुरितमनकुठारं ध्वस्त मोहान्धकारं सर्वाखल सुखहेतु त्रिप्रकारं नमामि ॥१॥ यः शुद्धरामकुलपद्मविकासनाक जातोऽथिनां सुरतरुभुंषि चङ्गवेवः । तन्वतो हरिरसत्कविभागसिंहः तस्माद्भिषजनपतिभुंवि नामदेवः ||२|| तावुभौ सुभिषजाविह हेमरामौ रामात्प्रियङ्कर इति प्रियदोऽथिनां यः तश्चिकित्सितमहाम्बुधिपारमाप्तः श्रीमल्लुगिकि जनपदाम्बुजमत्तभृङ्गः ॥३॥ तज्जोऽहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयुतः छन्योऽलङ्कारकाव्यानि नाभिधानानि वेद्म्यहम् ||४|| कथा प्राकृतबन्धेन हरिवेयेन या कृता । वक्ष्ये संस्कृतबन्धेन भव्यानां धर्मवृद्धये ॥५॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] यस्मिन भव्यजनप्रबोधजनिका या मोक्षसौख्यप्रदासंसाराब्धिम होम्मिशोषणकरी नृणातीय प्रिया मवनपराजय यस्याः सुश्रवरणात् पुराकृतमधं नाशं समूलं व्रजेत् या दारिद्रयविनाशिनी भयहरा यक्ष्ये कथां तामहम् ॥१६॥ * १ में, मन, वचन और कायसे श्री जिनेन्द्र भगवान् के उन निर्मल चरण-कमल को नमस्कार करता हूँ, जिनकी इन्द्र उपासना करते हैं और ब्रह्म प्रादिक वन्दना करते हैं । जो पापरूपी वनके लिए कुठारके समान हैं, मोह-अन्धकारके नाशक हैं और वास्तविक सम्पूर्ण सुखको देने वाले हैं। पृथिवीपर पवित्र रघु कुल रूपी कमलको विकसित करने के लिए सूर्यके समान चङ्गदेव हुए। चङ्गदेव कल्पवृक्ष के समान याचकोंके मनोरथ पूर्ण करते थे । इनका पुत्र हरिदेव हुआ । हरिदेव दुर्जन कवि हाथियोंके लिए सिंहके समान था । इनका पुत्र नागदेव हुआ, जिसकी भूलोक में महान् वैद्यराजके रूप में प्रसिद्धि हुई । नागदेव के हेम और राम नामके दो पुत्र हुए। यह दोनों भाई भी अच्छे वैद्य थे । रामके प्रियङ्कर नामका एक पुत्र हुआ, जो श्रथियोंके लिए बड़ा ही प्रिय था। प्रियङ्करके भी श्रीमल्लुमित् नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रीमल्लुगित् जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलके प्रति उन्मत्त भ्रमर के समान अनुरागी था और चिकित्साशास्त्र समुद्र में पारंगत था । श्रीमल्लुगित्का पुत्र मैं - नागदेव हुआ । मैं ( नागदेव ) अल्पज्ञ हूँ तथा छन्द, अलङ्कार, काव्य और व्याकरण - शास्त्र में से मुझे किसी भी विषयका बोध नहीं है । - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद हरिदेवने जिस कथा (मदन-पराजय) को प्राकृतमें लिखा था, भव्य जीवोंके धामिक विकासकी दृष्टिसे मैं उसे संस्कृत में निबद्ध कर रहा हूँ। मैं यहां जिस कथाको चर्चा कर रहा हूँ, वह भव्यजनों का विवेक जागृत करनेवाली है और प्रविनश्वर सुख देने वाली है। संसार-सागरकी महत् ऊमियोंको विलीन करती है और श्रोतानोंको अत्यन्त प्रिय है। इतना ही नहीं, इस कथाके सुननेसे पूर्व जन्मके समस्त पाप समुल धुल जाते हैं और दारिद्रय तथा भय भाग जाते हैं । __ कथा इस प्रकार है : * २ अस्ति मनोहरमेकं भवनाम पत्तन प्रसिद्धम् । तत्रेषकोदण्डमण्डितो मकरध्वजो नाम राजाऽस्ति । सेन मकरध्वजेन सकलसुरसुरेन्द्रनर नरेन्द्रणिफणीन्द्रप्रभृतयो दण्डिताः । एवंविधस्त्रैलोक्यविजयो युवाऽतिरूपवान् महाप्रतापी त्यागी भोगी रतिप्रीतिभाद्वियो 'मोहप्रधानसमन्वितः सुखेन राजक्रिया वर्तमानोऽस्यात् । सच मकरध्वज एकस्मिन् दिने शल्यत्रबगारवत्रय दण्डनायकम्मष्टिकाष्टावशदोषालय-विषयाभिमानपदप्रमाव - दुष्परिणामासंयमसप्तव्यसनभटप्रभृतिभिः सर्वैः सभासदेखेंटितोऽपरराजबद्वाजते । एषम पैरपि नरनरेन्द्रः सेवितो मकरध्वजः सभामण्डपे मोहं प्रति वचनमेतदुवाच भो मोह, लोकत्रयमध्ये काचिवपूर्वा वार्ता ताऽस्ति ? प्रय मोहोऽसयोस्-देव, वातका पूर्वा श्रुताऽस्ति । तदै (बे) कान्ते भवद्भिः च यताम् । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] मदनपराजय "अपि स्वल्पतर कार्य यद्भवेत् पृथिवीपतेः । तन्न वाच्यं सभामध्ये प्रोवाचेदं बृहस्पतिः ॥१॥" तथा बो तथोक्तञ्च "षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रश्चतुष्कर्णः स्थिरीभवेत् । तस्मात् सर्वप्रयत्लेन षट्कर्णोऽरक्ष एव सः ॥२॥" * २ भय नामका एक प्रसिद्ध तथा मनोहर नगर या । इस नगरका राजा मकरध्वज था। मकरध्वज अपने सफल धनुष-बाणसे मण्डित था और उसके द्वारा इसने इन्द्र, नर, नरेन्द्र, नाग और नागेन्द्र-सबको अपने अधीन कर रखा था। वह अतिशय रूपवान् पा। महान प्रतापी था। दानशील था। विलासी था। रति पौर प्रीति नामकी उसकी दो पत्नियां थीं। इसके प्रधान मन्त्रीका नाम मोह था। मकरध्वज त्रैलोक्य-विजयी था और अपने प्रधान सचिवके सहयोगसे बड़े आरामके साथ राज्यका संचालन करता था । एक दिनकी बात है। मकरध्वज के सभा भवन में शल्य, गारच, दण्ड, कर्म, दोष, प्रारब, विषय, अभिमान, मद, प्रमाद दुष्परिणाम असंयम पीर व्यसन प्रादि समस्त योधा उपस्थित थे। अनेक राजामहाराजा मकरध्वज की उपासनामें व्यस्त थे। इसी समय महाराज मकरध्वजने अपने प्रधान सचिव मोहसे पूछा-मोह, क्या तीनों लोकमैसे कहीं कोई अपूर्व बात का सुनने का समाचार तो तुम्हें नहीं मिला है ? मोहने उत्तर में कहा-महाराज, एक अपूर्व बात अवश्य सुनने में पाई है; पर उसे श्राप एकान्तमें चलकर सुनें । क्योंकि बृहस्पतिनं बतलाया है कि राज-सभामें राजाके लघु कार्यकी भी चर्चा नहीं होनी चाहिए ! कहा भी है : ___ "तीन व्यक्तियों तक पहुंचकर किसी भी गुप्त बातका भेद खुल जाता है । जब तक वह दो व्यक्तियों तक रहती है, सुरक्षित रहती Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद है। इसलिए इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिए कि मात्र दो व्यक्तियों तक ही सीमित रहे । *३ एवं तद्वचनं श्रावयितुमेकान्ते गत्वा मोहमल्लः कामं प्रत्याह-भो स्वामिन्, सञ्चलनेन विज्ञप्तिकेयं प्रेषिता । तद्भवद्भिरवधार्यताम् । एवमुक्त्वा मोहोऽनङ्गहस्ते विज्ञप्तिकामदात् । ततस्तो विज्ञप्तिका मदनो यावद वाचयति, तावदतिचिन्तापरिपूर्णी मूचा मोहं प्रत्यभणत्-मोह, मया जन्मप्रभूत्येतदिदानीमपूर्घ श्रुतम् । तदेतत्सत्यं न भवत्येवं मे मनसि वर्तते । यतोऽशेष लोक्यं मया जितम् । तवन्यस्त्रिभुवनमाह्यो जिननामा राजा कोऽसौ जातोऽस्तोति । असम्भाव्यमेतत् । तच्छ स्वा मोहो बभाण-हे देव, अवश्यमेयेयं सत्या वार्ता । यतः सवलनोऽसौ स्वामिनं प्रति मिश्योक्ति न करोत्येव । उक्तंच "सर्वदेवमयो राजा वदन्ति विबुधा जनाः । तस्मात्त देववत् पश्यन्न व्यलीकं कदाचन ॥३॥" तथा च-- "सर्वदेवमयस्यापि विशेषो भूपतेरयम् । शुभाशुभफलं सद्यो नृपाद्द वाद्भवान्तरे ॥४॥" अन्यच्च, भो स्वामिन, तं जिनराज किं न वेरिस ? पुरामाकञ्च भवनगरे दुर्गतिवेश्याया पाश्रमे यः सततं वसति, चौर्यकर्म करोति । भूयोभूयोऽपि कोदृपालकेन मृत्युनापि बुध्यते माय्यते च । एवमेकस्मिन् विने दुर्गतिवेश्यायां विरक्तो भूत्वा कालादिसब्धिवशेन अस्मच्छ तभाण्डागार Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनपराजय प्रविश्य त्रिभुवनसारं रत्नत्रयं प्रभूतार्थ गृहीत्वा तत्क्षणाद् गहभा-विसमूहं स्यक्रवोपशमाश्वमारुह्य विषयभटेन्द्रियभटइंदरपालिमार सौ साल पञ्चमहायतसुभटा ये सन्ति तः प्रमूसार्थ रत्नसंयुक्त राज्ययोग्यं दृष्ट्वा तस्मै तपो. राज्यं दत्तम् । एवं तस्मिश्चारित्रपुरे गुणस्थानसोपानाला कुते दुर्गवदुर्गमे सुखेन राज्यक्रियां वर्तमानोऽस्ति । अन्यसन, देव, तस्य जिनस्येदानों मोक्षपुरे विवाहो भविष्यतीति सकलजनपदोत्सवो वर्तते । तच्छ वा कामेनाभाणि-भो मोह, तत्र मोक्षपुरे कस्यात्मजा, कोशाऽस्ति ? *३ मोह अपनी अपूर्व दात सुनानेके लिए मकरध्वजको एकान्तमें ले गया। वहां उसने मकरध्वज के हाथ में एक विज्ञप्ति दी और कहा-महाराज, संज्वलनने यह विज्ञप्ति भेजी है । इसे देखिए । जैसे ही मकरध्वज ने विज्ञप्ति पढ़ो; उसके ललाटपर चिताकी रेखाएँ उभर आई। वह मोहसे कहने लगा-मोह, मैं इतना बड़ा हो गया, लेकिन इस प्रकारकी बात माज ही सुन रहा हूँ। मुझे लगता है, यह बात सच नहीं है । जब मैं तीनों लोक अधीन कर चुका हूँ तो त्रिभुवनसे अतिरिक्त यह 'जिन' नामका राजा कहाँसे आ गया ? नहीं, यह बिल्कुल सम्भव नहीं है। उत्तरमें मोह कहने लगा-देव, यह बात असम्भव नहीं, बल्कि बिल्कुल सत्य है। क्योंकि संज्वलन आपके साथ कभी भी असत्य. व्यवहार नहीं कर सकता । वह इस बातको खूब समझता है कि"विद्वज्जन, राजाको समस्त देवोंका प्रतीक मानते हैं । इसलिए राजाको देवस्वरूप ही समझना चाहिए और उसके साथ मिथ्या Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I प्रथम परिच्छेद [ ७ व्यवहार कदापि नहीं करना चाहिए ।" साथ ही वह इस बात से भी परिचित है कि- " यद्यपि राजा समस्त देवों का प्रतिनिधि है फिर भी उसमें और देवमें एक अन्तर है। और वह यह है कि राजा के पाससे अच्छा-बुरा परिणाम तत्काल ही मिल जाता है, जब कि देवके पाससे वह जन्मान्तर में प्राप्त होता है ।" फिर स्वामित्, क्या जिनराजकी आपको बिलकुल स्मृति नहीं है ? राजन्, बहुत वर्ष पहले यह जिनराज हमारे इसी भव-नगर में रहता और दुर्गति- वेश्या के यहाँ पड़ा रहता था। चोरी करनेकी रोजकी प्रादत थी । फलतः यह कोतवाल के द्वारा पकड़ा जाता, पीटा जाता और यहाँ तक कि दी जाती । एक दिन काललब्धि से यह दुर्गति वेश्यासे विरक्त होकर अपने श्रुत मन्दिर में घुसा । वहाँ इसे त्रिभुवनके सारभूत अमूल्य तीन रत्न हाथ लगे। इन रत्नों ने इसे इतना आकर्षित किया कि इनके आकर्षणसे यह घर, स्त्री, बाल-बच्चे - सबको भूल गया और तुरन्त उपशम-श्रश्व पर सवार होकर चारित्र-पुर चला गया । विषय और इन्द्रिय योधाओंने इसे वश भर रोका, परन्तु वे रोकने में समर्थ न हो सके । देव, इतना ही नहीं, जब चारित्र-पुरके पाँच महाव्रतभटों ने देखा कि जिनराज अमूल्य रत्नत्रयीका स्वामी है और यह राज्य संचालनके सुयोग्य है तो उसे तपोराज्य दे दिया । स्वामिन् इस प्रकार यह जिनराज गुणस्थानरूपी सीढ़ियोंसे सुशोभित और दुर्ग-जैसे दुर्गम चारित्र-पुर में सुखपूर्वक राज्य कर रहा है । महाराज, इसके सम्बन्धका एक नया समाचार और सुना है कि अचिर भविष्य में जिनराजका मोक्षपुर में विवाह होगा। इसलिए समस्त जनपदों में उत्सव समारोह मनाया जा रहा है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ J मदनपराजय मकरध्वजने ज्यों ही मोहकी यह बात सुनी उसे अत्यन्त आश्वर्य हुआ। वह मोहसे कहने लगा मोह, यह तो बतलाओ, मोक्षपुरमें किसकी कन्या है और उसकी रूप राशि किस प्रकारकी है, जिसके साथ जिनराजका विवाह होने जा रहा है ? *४ भ्रम मोहोऽवदत्-हे देव, तस्मिन् मोक्षपुरे सिद्धसेनतनुआ मुक्तिनामाऽसि सुन्दरी, शिखिगल निभतीलयमुनाजल निभमधुकरकुल सेवितसुरभिकुसुमनिचयनिचित मृदुधनकुटिलशिर सिजा, उदितषोडशकलापरिपूर्ण शशध एससिभवदन बिम्बा, त्रिवशेन्द्रप्रचण्ड भुजदण्डसज्जीकृत वक्र कोदण्डसश्शा लतिका विकसितचंचल नीलोत्पलदलस्पद्धिविशाललोचना, निजधतिविस्फुरदमल सुवर्णमुक्ताफलभूषण विभूषित ललिततिलक कुसुमसमानमासिकाचा अथिति ) स्मितविराजमान बिम्बाधरा, नानाविषेन्द्रनीलहीरक माणिक्य रत्न वचितमनोहरोज्ज्वलवतुं लभुक्ताफलहा रलम्बमानालङ, कुतरे - खात्रय मण्डित कम्बुषद् (म्बु) ग्रीवा, प्रभिनवथरचम्पक कुसुमशुभतरहुतकनकरुचिनिभगौरवर्णाङ्गा (ङ्गी), प्रभिनवशिरीषदामोपमबाहुलतिका, प्रथमयौवनो ड्रिलकर्कशस्तन फलशभरनमितक्षाममध्या । इत्यादिनाभिजघनजानु गुल्फचर रगतललावष्यलक्षणोपेतायाः सिद्धनाया रूपवर्णनं कृत्वा जिनं प्रति दयानामदूतिकया यथा द्वयोविवाह्घटना भवति तयोपायं (यः) सुमार (घोड ) स्ति । A - ↑ एवं तस्य मोहस्य वचनमाकर्ण्य विषयव्याप्तो भूत्वा मकरध्वजोऽभणत्-है मोह, तदद्य संग्रामे जिनेश्वरं जित्वा सिद्धङ्गनापरिणयनं यद्यहं न करोमि तत् स्वं नाम त्यजामि । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद इत्युक्त्वा पंचविधकुसुमबाणसहितं धनुः करतले महोत्वा तत्सङ्ग्रामार्थमगमत् । * ४ मोह कहने लगा-महाराज, कन्याके सौन्दर्य के सम्बन्ध में आप क्या पूछते हैं । वह सिद्धसेनकी कन्या है । मुक्ति सिद्धि) उसका नाम है और सौन्दर्यमें वह अनुपम है । प्रसका केश-पाश मयूरके गले के समान नील है, फूलोंके समान कोमल, सधन तथा कुटिल है । उसमें अनेक प्रकारके सुगन्धित कुसुम गुथे हुए हैं, जिनपर यमुनाजलको तरह काले भ्रमर गुनगुनाया करते हैं । उसका मुख सोलह कलाओंसे पूर्ण उदित चन्द्र जैसा है और भ्र लता इन्द्र के प्रचण्ड भुजदण्ड में स्थित टेड़े धनुषके समान है । उसके नेत्र विशाल हैं और वे विकसित एवं वायु-विकम्पित नील कमलोंसे स्पर्धा करते हैं । उसको नासिका कान्तिमान् है। सुवर्ण पौर मोतियोंके प्राभूषणसे भूषित है। तथा तिलक-वृक्ष के कुसुम के समान सुन्दर है । उसका अधर-बिम्ब अमृत-रस से परिपूर्ण है और मन्द तथा शुभ्र स्मितसे विलसित हो रहा है। उसका कण्ठ तीन रेखाम्रोसे मण्डित है और उसमें अनेक प्रकारके नीले, हरे मरिणयों तथा सुन्दर उज्ज्वल एवं गोल-गोल मोतियोंसे अलङ कृत हार पड़े हुए हैं। उसका शरीर चम्पाके अभिनव प्रसूनकी तरह स्वच्छ और तपाये गये सोनेकी कान्तिके समान गौर है। उसकी बाहु-लता नूतन शिरीष-मालाकी तरह मदुल है और मध्यभाग प्रथम योवनसे विकसित तथा कठोर स्तन-कलशके भारसे झुका हुआ और कृश है। उसकी नाभि, जघन, घुटने, चरण और चरण-प्रन्थियाँ लावण्य से निखर रही हैं । स्वामिन्द इसके सिवाय दया नामकी दूती इस बातके लिए कटिबद्ध है कि जिनराज और इस मुक्ति-कन्याका यथाशीघ्र विवाह हो जाय । मकरध्वज मोहके मुहसे मुक्ति-कन्याके इस अद्भ त लाग्यका वर्णन सुनकर विषय-व्याकुल हो गया। वह मोहसे कहने लगा-मोह, . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनपराषय यदि यह बात है तो तुम मेरी प्रतिज्ञा भी सुन लो। 'मैं निश्चम करता हूँ कि यदि प्राजकी लड़ाईमें जिनराजको जीत कर मैंने मुक्तिकन्याके साथ विवाह नहीं किया तो में नकर ही किस का ?' यह कहकर मकरध्वजने कुसुम-बारगवाला धनुष हाथ में लिया और जिनराजसे संग्राम करने के लिए चल पड़ा। २५ अचं तमुत्सुकत्वेन निर्गच्छन्तमवलोक्य मोहोऽजल्पतदेव, वचनमेकं शृणु । निजबलमज्ञात्या संग्रामार्थ न गम्यते । उक्तंच, यत: "स्वकीयबलमज्ञाय सङ्ग्रामार्थन्तु यो नरः । गच्छत्यभिमुखो नाशं याति वह्नौ पतङ्गवत् ।।५।।" तपा स "भृत्यविरहितो राजा न लोकानुग्रहप्रदः । मयूखैरिव दीप्तांशुस्तेजस्थ्यपि न शोभते ॥६॥" अन्यच्च "न विना पार्थिवो भृत्यन भृत्याः पाभिवं विना । एतेषां व्यवहारोऽयं परस्परनिबन्धनः ॥७॥" तथा च "राजा तुष्टोऽपि भृत्यानामर्थमात्रं प्रयच्छति । तेन (ते तु) सम्मानमात्रेण प्राणरप्युपकुर्वते ।।८।। एवं ज्ञात्वा नरेन्द्रण भृत्याः कार्या विचक्षणाः। कुलीनाः शौर्यसंयुक्ताः शक्ता भक्ताः क्रमागताः ॥६॥" तथा च "न भवेद्वलमेकेन समवायो बलावहः । तृणैरेव कुता रज्जुर्यया नागश्च बढ्यते ॥१०॥ . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ ११ एवं तस्य वचनमाकण्यं सवाणं कार्मुकं परित्यज्योपविष्टः । ततो मोहं प्रत्यवोचत-भो मोह, यो तस्वं सकलसैन्यमेलनं कृत्वा इसतरमागच्छ । ततो मोहो जजरूप-देव, एवं भवति युक्तम् । एकमुमत्वा तं मकरध्वनं प्रणम्य निर्गतः । अथ मोहमले गते सति मकरध्वजः अतावस्था व्याप्सः श्लोकमेन(स) मपठत"मत्त भकुम्भपरिणाहिनि कुङ कुमा तस्याः पयोधरयुगे रतिखेदखिन्नः । वक्त्रं निधाय भुजपजरमध्यवर्ती स्वप्स्ये कदा क्षणमहं क्षणदावसाने ॥११॥" * ५ जब मोहने देखा कि मकरध्वज जिनराजसे लड़ाई लड़ने चल ही पड़ा है तो वह कहने लगा-अरे महाराज, पाप इस प्रकार उत्सुकतासे कहीं जा रहे हैं ? मेरी बात तो सुनिए । अपनी शक्तिको बिना पहिचाने युद्ध के लिए नहीं जाना चाहिए । कहा भी मजो मनुष्य अपने बलका विवेक न रखकर युद्ध के लिए तैयार होता है वह अग्निके सम्मुख आए हुवे कोट-पतंगकी तरह भस्म हो जाता है ।" और "जिस प्रकार तेजस्वी भी सूर्य किरणों के प्रभावमें न स्वयं ही सुशोभित हो सकता है और न प्रकाश ही कर सकता है उसी प्रकार भृत्योंके बिना राजा भी लोकका उपकार नहीं कर सकता।" प्रथ च "जाका भृत्योंके बिना काम नहीं चल समाता और भृत्योंका राजाके धिना। इस प्रकार राजा और भृत्योंको स्थिति एक-दूसरे के प्राश्रित समझनी चाहिए। साथ ही Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] मदनपराजय "राजा भृत्योंसे प्रसन्न होकर उन्हें केवल धन ही देता है । लेकिन भृत्य यदि राज-सम्मानित होते हैं तो अवसर आनेपर राजाके लिए उ.पने प्राण तक निछावर कर डालते हैं।" इस तथ्यको ध्यान में रखते हुए राजाका कर्तव्य है कि वह कुशल, कुलीन, शूरवीर, समर्थ, भक्त और परम्परासे चले पाये हुए भृत्योंको गाने 'हाँ स्थान दे ! कोंकि नीतिकारों का कथन है ___“बलाधान एकसे नहीं होता । बलके लिए समुदाय वाञ्छनीय रहता है। अकेला तिनका कुछ नहीं कर सकता। लेकिन रस्सीके रूपमें उन्हीं तिनकोंका समवाय हाथीको भी बन्धनमें रखता है।" मोह कहता गया-'इसलिए आपको अकेले समर-भूमिमें नहीं उतरना चाहिए।' मोहकी बात सुनकर मकरध्वजने धनुष-बाण एक ओर रख दिया और अपने प्रासनपर बैठ गया। वह मोह-से फिर कहने लगामोह, यदि तुम्हारा इस तरहका आग्रह है तो समस्त सैन्य तैयार करके तुम यहाँ जल्दी ग्रामो। ___मोह मकरध्वजसे कहने लगा-महाराज, अब कही है आपने ठिकानेकी बात । लोजिए, मैं यह चला। इतना कहकर उसने मकरध्वजको प्रणाम किया और वह वहाँसे चल पड़ा। मोह-योधाके चले जानेके पश्चात् मकरध्वज इस प्रकार गंभीर चिन्तामें निमग्न हो गया "वह सोचने लगा-वह समय कब पावेगा जब रात्रिके पिछले समय रति-खेदसे खिन्न होकर मैं क्षणभरके लिए मदमत्त हाथीके गण्डस्थलके समान विशाल और कुकुमसे आई मुक्ति-कन्याके स्तनयुगपर प्रपना मुख रखकर उसकी भुजाओंमें बँधा रहूँगा।" Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद # ६ एवंविधमुचलित चित्तं शोकज्वरसन्तप्ताङ्गमतिशी. कायं दृष्ट्वा रतिरमणो प्रीतिसखों प्रत्यपृच्छत् हे सखि, साम्प्रतमस्मद्भर्त्ताऽयमुच्चलित चित्तश्चिन्तापरिपूर्णः । कथमेतत् ? तवाकण्यं प्रीतिः सखों प्रत्याह हे सखि कीदृशावस्थया व्याप्तोऽयमस्त्येवं न जानामि । तत् किमनेन व्यापारेण प्रयोजनम् ? उक्त च यतः [ १३ "अव्यापारेषु व्यापारं यो नरः कत्तु मिच्छति । स एव निधनं याति यथा राजा ककुदुमः ॥ ११२ ॥” -- अथ रतिराह हे सखि, प्रयुक्तमेतत् त्वयोक्तम् । यत एवं पतिव्रताधर्मो न भवति । अथ सा प्रोतिरखवीत् - हे सखि, यथेवं तहिं त्वमेव पुच्छां कुछ एवं सलोवचनमाकण्यकता शय्यागारे शयनस्थमन रजन्यां प्रश्नार्थं रतिरालि लिङ्ग । तद्यथा यद्वत् पर्वतनन्दना पशुपतेरालिङ्गमंचाकरो, दिन्द्राणी त्रिदशाधिपस्य हि यथा गङ्गानदी चाम्बुभेः । सावित्री कमलोद्भवस्य तु यथा लक्ष्मीर्यथा श्रीहरेfreat रोहिणिसंज्ञिका फणिपतेर्देवी च पद्मावती ॥७॥ एवञ्च समालिङ्गय तमपृच्छत् देव, युष्माकं साम्प्रतं न चाहारः, न निद्रा, न राज्योपरि विशम्, तत्कथमेतत् ? अन्यचच - त्वया को न जितो लोके, स्वया का स्त्री न सेविता । सेवा ते न कृता केन, तबवस्थाम्बिलोऽसि किम् ॥ ८ ॥ * १ एक बार, मकरध्वज की पत्नी रतिने देखा कि मकर - ध्वजका चित्त अत्यन्त चंचल हो गया है, शरीर शोक संतप्त रहने Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] मदमपराजप लगा है और एकदम मीण भी हो गया है। उसे बड़ी चिन्ता हुई और वह अपनी प्रिय सखी प्रीलिसे पूछने लगी-सखि, पसा नहीं, अपने पतिदेवको क्या हो गया है ? देखती नहीं, यह रोज ही चिन्तित और चलचित्त बने रहते हैं। रतिकी बात सुनकर प्रीतिने कहा-सखि, मालूम नहीं, प्राणनाथको इस प्रकारको अवस्था क्यों हो गयी है ? कदाधित उनके सिर कोई महान् पनि कार्यमा पार हो । कोहो. में शनगी दल प्रवृत्ति में हस्तक्षेप करनेकी कोई जरूरत नहीं मालूम देती। कहा भी है "जो मनुष्य अप्रयोजनीय कार्यों में अपनो टांग अड़ाता है उसकी ककुद्रुम राजाको तरह दुर्दशा होती है ।" रतिने प्रीति ने कहा-मखि, सुमने यह ठीक बात नहीं कही। पतिव्रताओंका यह धर्म नहीं है कि वे पतिकी किसी प्रकारको चिन्ता न करें। उत्तरमें प्रीसिने कहा-सखि, यदि यह बात है सो प्राणनाथसे तुम ही पूछो कि ये इतने चिन्तित और खिन्न मयों बने रहते हैं ? रतिने सखीकी बात ध्यान में रख ली। एक बार रातके समय महाराज मकरध्वज शयनागारमें शय्यापर लेटे हुए थे। इतनेमें रति अपनी शङ्का समाहित करवेके लिए मकरध्वजके पास पहुंची। वहाँ जाकर वह मकरध्वजका इस प्रकार आलिङ्गन करने लगी जिस प्रकार पार्वती महादेवका, इन्द्राणी इन्द्रका, गङ्गा समुद्रका, सावित्री ब्रह्माका, लक्ष्मी श्रीकृष्णका, रोहिणी चन्द्रका और पद्मावती नागेन्द्रका आलिङ्गन करती है। रतिने इस प्रकार प्रालिङ्गन करनेके बाद मकरध्वजसे पूछामहाराज, प्राज-कल न पाप ठीक भोजन करते हैं, न ठीक नींद लेते Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ १५ है और न राज-काजमें ही आपका चित्त लगता है। स्रोपमा कारण. है? क्योंकि जारी ... "संसारमें ऐसा कोई प्राणी नहीं है जो तुम्हारे वशीवर्ती न हो। ऐसी कोई. स्त्री नहीं जिसका तुमने उपभोग न किया हो। साथ ही इस प्रकारका कोई मनुष्य भी नहीं है जिसने तुम्हारी सेवा न की हो। फिर समझमें नहीं आता कि आपको इस प्रकारको अवस्था क्यों हो गयी है ?" *७ एवं तया पृष्टो मकरध्वजो वचनमेतवूध-प्रिये, कि तवानेन व्यापारेण ? ममावस्थामयहरस्येवंविधः कोऽस्ति ? सच्छ स्वा रतिरजल्पत्-काऽवस्था लनास्ति से ? तपाय कथ्यताम् । स आह-प्रिये, यवा संज्वलनेन विज्ञप्तिका प्रेषिता तरा सिक्ष्यङ्गानारूपलावण्यवर्णनं भुस्वा तहिनमभूति मम श्रुताऽनस्था सग्ना । तरिक करोमि ! अथ रतिराह-हे देव, तस्वयात्मनो वृथा गरीरशोषः कृतः । यतो मोहमल्लसशे सचिवे सति गुह्यमेतत्र कथयसि । उक्तं च यतः"जनन्या यच्च नाख्येयं कार्य तत् स्वजने जने। सचिवे कथनीयं स्यात् कोऽन्यो विश्रम्भ भाजनः ॥१३॥ ततः पंचेषुरूचे-हे प्रिये, मोहेनापि ज्ञानमेवन् गुह्यम् । तन्मया सकलसंन्यमेलनार्थ प्रेषितोऽस्ति । तनावत् स नागच्छति तावत्तत्र गत्वा यथा मामिच्छति तथोषमस्थया कर्तव्यः । यत उच्चमात् सकलं भवति । उक्त च यतः"उद्योगिनं सततमत्र समेति लक्ष्मी, दैवं हि देवमिति कापुरुषा वदन्ति । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनपराजय देवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः।।१४॥" तथा च"रथस्यकं चक्रं भुजगयमिता: सप्त तुरगा निरालम्बो मार्गश्चरणरहितः सारथिरपि । रवियत्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे ॥१५॥" अन्यच्च, यतस्पया स्वभावेन पृष्टोऽहं तस्मान्ममा कथितम् । सबदि ममात्ति पहरसि तस्वं पतिव्रता भवसि । * ७ जब रतिने बड़े अनुनय-विनयके साथ मकरध्वजसे इस प्रकारकी बात पूछो तो उत्तरमें मकरध्वजने कहा-तुम हमसे यह वात क्यों पूछती हो ? ऐसा कौन है जो मेरी यह अवस्था दूर कर सके ? मकरध्वजकी बात सुनकर रतिने कहा-प्राणनाथ, बतलाइए तो आपको यह हालत क्यों और कैसे हो गयी ? मकरध्वज कहने लगा-प्रिये, जिस दिन मैंने संज्वलनके द्वारा लायी गयी विज्ञप्ति पढ़ी और सिद्धि कन्याफे रूप एवं लावण्यका मनोहर विवेचन सुना उसी विनसे मेरी यह शोचनीय स्थिति हो गयी है । समझमें नहीं पाता कि अब मैं क्या करूँ ? रतिने कहा-यदि यह बात है तो अापने व्यर्थ ही शरीरको सुखाया । जब मोह-सरीखे सुभट आपके मन्त्री हैं तो यह रहस्यपूर्ण समाचार प्रापने उन्हें क्यों नहीं बतलाया? नीतिकार ने कहा है "जो बात माताको नहीं बतलायी जा सकती उसे अपने स्वजन से कह देना चाहिए और मन्त्रीसे तो अवश्य ही कह देना Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I प्रथम परिच्छेद [ १७ चाहिए । भला मन्त्रीको छोड़कर अन्य कौन विश्वास पात्र हो सकता है ? " मकरध्वज उत्तर में कहने लगा है प्रिये, यह समाचार मोहसे भी छिपा नहीं है । उसे इस रहस्यका पूरा पता है । मैंने उसे हाल ही समस्त सैन्य तैयार करने के लिए भेजा है। पर तुमसे भी मुझे एक बात कहनी है। जब तक मोह समस्त सैन्य तैयार करके वापिस नहीं आता है, तब तक तुम सिद्धि - कन्या के पास जाकर इस प्रकारका यत्न करो जिससे वह जिनराजसे विमुख हो जावे और अपने विवाहोत्सव के अवसरपर मुझे ही अपना जीवन-संगी चुने | मुझे विश्वास है, तुम्हारा उद्योग अवश्यमेव सफल होगा। नीतिविदोंका कहना है : "लक्ष्मी उद्योगी मनुष्यको ही प्राप्त होती है । यह अकर्मण्यों - का कथन है कुछ भागो की लता है। इसलिए अनुष्को चाहिए कि वह देवको एक ओर रख कर अपनी शक्तिके अनुसार प्रयत्न करे । यत्न करनेपर भी यदि सफलता नहीं मिलती है तो इसमें मनुष्यका कोई अपराध नहीं ।" अथ च — "जिसके रथ में केवल एक पहिया है और सांपोंसे बंधे हुए सात घोड़ हैं । मार्ग में कोई अवलम्ब नहीं है । सारथी भी एक पैरवाला है । इस प्रकारका सूर्य भी प्रति दिन अपार आकाशके एक छोरसे दूसरे छोर तक आता-जाता है। इसलिए यह निविवाद है कि महात् पुरुष प्रपने बलसे ही कार्य सिद्ध करते हैं, दूसरोंके श्राश्रयसे नहीं ।" प्रिये, तुमने मुझे अपना समझकर सहज भावसे मेरी बात पूछी, इसलिए ही मैंने सब कुछ बतला दिया। अब यह तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम मेरी मनोव्यथा दूर कर मुझे सुखी करो। इसमें ही तुम्हारा पातिव्रत्य निहित है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] * ततो रतिरश्रवीत् भो देव युक्तायुक्त ि जानासि । उक्त च' मदनपराजय “स्वाधीनेऽपि कलत्रे नीचः परदारलम्पटो भवति । सम्पूर्णेऽपि तडागे काकः कुम्भोदकं पिबति ॥ १६॥ " अथ कि क्याऽपि स्वभार्यावृतत्वमस्ति ? तच्छू स्था कन्दर्पोऽवोचत् हे प्रिये युक्तमेतत् त्वयोक्तम् । परं किन्तु स्वया विना कार्यमिदं न भवति । यतस्त्रीभिः स्त्रियो विश्वासमायान्ति । उक्त ं च यतः "मृमृगाः सङ्गमनुव्रजन्ति स्त्रियोऽङ्गनाभिस्तुरगास्तुरङ्ग: । मूर्खाश्च मूर्खे: सुधियः सुखीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ॥१७॥।” तद्वचनं श्रुत्वा सचिन्ता भूत्वा रतिरभणत्-देव, सत्यमिदमुक्त भवता । परं किन्तु यद्येवं दर्शयसि तसे सिद्धिभार्या भवति । "काके शौचं द्य तकारेषु सत्यं सर्पे क्षान्तिः स्त्रीषु कामोपशांतिः । क्लोबे धैर्यं मद्यपे तत्त्वचिन्ता यद्येवं स्यात् तद्भवेत् सिद्धिरामा ।।१८।।” श्रन्यच्च सा सिद्धयङ्गना जिननाथं पंचविश्वा अन्येषां नामपामपि न करोति । उक्तच यतः"ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्राद्यै रागाद्यैश्च कलङ्किताः ॥ निग्रहानुग्रहपराः सा सिद्धिस्तान् न वाञ्छति ॥ ११६ ॥ " तत्कि वृथाऽनेनार्त्तेन प्रयोजनम् ? उक्त च यत्तः"व्यर्थमा न कर्त्तव्यमार्त्तात्तिर्यग्गतिर्भवेत् यथाऽभूद्ध मसेनाख्यः पक्वे चैर्वारुके कृमिः ॥२०॥ " Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ १९ * ८ पलिदेवकी बात सुनकर रति बड़े असमंजस में पड़ गयी है वह कहने लगो-म्वामिन्, पापको उचित-अनुचितका कोई विवेक नहीं है । नीतिकारोंने ठोक ही कहा है : "अपनी पत्नी के सुलभ रहनेपर भी नीच पुरुष सन्तोषकी साँस नहीं लेता। इसपर भी वह पर-स्त्री-लम्पट बनता है। कौवाका भी तो यही हाल है । उसे भरे हुए तालाबका पानी पसन्द नहीं। घड़े के राके हुए पानीसे हो उसे सन्तोष होता है।" रति कहने लगो-देव, फिर क्या किसीने कभी अपनी पत्नीसे भी दूतका काम लिया है, जो कार्य प्राप मुझे सौंपने चले हैं ? मकरध्वजने कहा-प्रिये, तुमने बात तो बिलकुल सच कही है, लेकिन तुम्हीं सोचकर बतलायो, क्या यह कार्य तुम्हारे बिना संभव है ? यह कार्य मैं तुम्हें इसलिए सौंप रहा हूँ कि स्त्रिया ही स्त्रियों के प्रति अधिक विश्वासशील दखी जाता है। कहा भी है "हिरन हिरनोंका सहवास पसन्द करते हैं, स्त्रियां स्त्रियोंका, घोड़े घोड़ोंका, मूर्ख मूल्का और विद्वान् विद्वानोंका। ठीक है, मित्रता समान शोल-व्यसनवालोंमें हुमा करती है।" मकरध्वजकी बात सुनकर रतिको बड़ो चिन्ता हुई। उसने मकरध्व जसे कहा- देव, आप ठीक कहते हैं । परन्तु आपको मुक्तिकन्या प्राप्त नहीं हो सकती । क्योंकि जिस प्रकार "कौवामें पवित्रता, जुवारियों में सत्य, सर्पमें क्षमा, स्त्रियों में कामकी उपशान्ति, नपुसकमें धैर्य और मद्य पीनेवाले में विवेकबुद्धि नहीं हो सकतो उसी प्रकार सिद्धि-कन्या भी तुम्हारी पत्नी नहीं बन सकती।" ___ फिर देव, वह सिद्धि-कन्या जिनराजको छोड़कर और किसीका नाम तक नहीं लेती है। अन्यको वरण करनेकी तो बात ही छोडिए । सिद्धि-कन्याके सम्बन्धमें कहा भी जाता है : Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] "जो देव, स्त्री, शस्त्र, जप माला और राग-द्वेषसे कलङ्कित हैं तथा निग्रह और अनुग्रह में तत्पर रहते हैं, सिद्धि कन्या उनके पास फटकती तक नहीं है ।" मदनपराजय रति कहने लगो-देव, इसलिए मेरो आपसे विनय है कि आप व्यर्थ में ध्यान ..... भी है " व्यर्थमा न कर्त्तव्यमार्त्तात्तिर्यग्गतिर्भवेत् । यथाऽभूद्ध मसेनाख्यः पक्वे चैर्वारुके कुमिः ॥ " : "निष्प्रयोजन प्रार्त्त ध्यान नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्रातध्यानके कारण पशु-पर्याय में जन्म लेना पड़ता है । जिस प्रकार प्रातध्यान करने से हेमसेन मुनि पके हुए खरबूजाके कीड़ा बने ।” तोत्सवा * ६ श्रय कामोऽवावीत् कथमेतत् ? साऽब्रवीत्अस्ति कस्मिंश्चित् प्रदेशे चम्पानाम नगरी सतसप्रबृप्रभूतवरजिनालयजिनधर्माचारोत्सवसहित भावका घनहरिततरुखण्डमण्डिता, सकल भूमिभागोत्संगसञ्चरद्वरविलासिनीविलासचलितचतुरश्चरणरतिनपुर रसनारबबधिरितदिगन्तराला, वर्णत्रय गुणशुश्रूष्यशूद्रजनपरिपालितजनपदा, नानाविषयगत नेकपात्र वैदेश्य सार्थ समस्तज्ञानसम्पनोपाध्याय - शतशोभिता, प्रचुरपुरवधूय बन चन्द्रज्योत्स्नोद्भासितवसुधाधवलमालोपशोभिता । एवंविधायां नगय हेमसेननामानो मुनयः कस्मिश्चिज्जिनालये महोप्र तपश्चरणं कुर्वन्तो हि तस्थुः । एवं तेषां तपश्चरणक्रियावर्त्तमानानां कतिपयदिवसेमृत्युकालः प्राप्तः । अथ यावत्तषामासनमृत्युर्वर्तते तावलस्मिश्चेत्यालये श्रावकजना विविधकुसुम फलाद्यै राराधनापूजां चक्रिरे । ततोऽनन्तरं प्रतिमैकायाश्चरणोपरि सुपक्वमेकमर्वारुकं यत् - 2 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ २१ स्थापितमासीत् तद्गन्धजनितार्तेन प्राणान् परित्यज्य तक्षाणात्तस्मिन्न वैर्वारुकमध्ये कृमिजज्ञिरे । तत: श्रावकजना मिलित्वा महोत्सवपूर्वकं शरीरसंस्कारं चक्रिरे । * ६ कामने कहा-यह कैसो बात? रतिने कहा-प्राणनाथ, सुनिए। और वह कहने लगी किसी प्रदेशमें चम्पा नामकी नगरी थी। इस पुरीमें प्रतिदिन उत्सव हुआ करते थे। यह दिव्य जिनालयोंसे विभूषित यो और जैन धर्माचारका अाचरण करनेवाले श्रावकोंसे महनीय थी। एक और इसमें सघन और हरित वृक्षावली लहरा रही थी तो दूसरी भोर समस्त भूखण्डके उत्सङ्गमें विहार करनेवाली रमणीय रमणियोंके विलास-चलित चतुर चरणोंमें रणित होनेवाले नूपुरोंकी रुनझुन दिगन्तराल में झनझ ना रही थी। एक भोर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्ग के गुणोंमें अनुरागशील शूद्रजनोंका निवास था तो दूसरी ओर अनेक देश तथा विदेशोंसे सुपात्र और ज्ञानपिपासु विद्यार्थी भी यहाँ झुण्ड-के-झ गड आ रहे थे। यह नगरी विभिन्न विषयोंके सैकड़ों अधिकारी विद्वानोंसे अलंकृत थी और पुर-बधुप्रोंके मुख चन्द्रको ज्योत्स्नासे प्रकाशित वसुधाकी धवल सौधमालासे सुशोभित थी। ____इस चम्पानगरीमें हेमसेन नामके एक मुनिराज किसी जिना. लयमें कठोर तपस्या करते थे। इस प्रकार कठिम तप करते-करते उन्हें बहुत दिन बीत गये और कुछ दिनों के बाद उनकी मृत्यु-वेला या पहुँची। अब मुनिराजको मृत्युका समय अति सन्निकट प्रा पहुंचा तो समस्त श्रावक वहाँ एकत्रित हो गये और वे अनेक प्रकारके फूलफल आदिसे उनकी प्राराधना तथा पूजा करने लगे। संयोगकी बात है, जिस दिन हेममेन मुनिराज दिवंगत होने जा रहे थे उस दिन उस चैत्यालयमें भगवान्की प्रतिमाके सामने एक Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] मदनपराजय पका हुआ खरबूजे का फल चढ़ाया हुमा रक्खा था। खरबूजा इतना पका हुआ था कि उसकी सुगंध मुनिराज के पास पहुंची और उनका मन उस फल की ओर ललचा गया । इस फल-प्राप्तिकी प्राप्त चिन्तामें ही विचारे मर गये और मरकर तत्क्षण उस फलके अन्दर कोड़ा हो गये । श्रावकोंने मिलकर बड़े उत्सबके साथ मुनिराजका शरीरसंस्कार कर दिया। १० ततो द्वितीयदिने येऽन्ये चन्द्रसेननामानः साधवस्तिष्ठन्ति तान्प्रति श्रावकाः पृच्छा कर्त मारब्धाः-अहो. हेमसेनरिम (रेभि)मरणपर्यन्तमस्मिाचत्यालये महोत्रं तपश्चरणं कृतम् । तत्तपःप्रभावावधना कां गतिमवापुरेघमवलोकनीयो (यं) भवद्भिः । अथ ते कालज्ञानसम्पूर्णा मुनयो यावत् पश्यन्ति मोक्ष स्वर्ग पाताले नरके । एतेषु स्थानेषु यदा न तिष्ठन्ति तदा से विस्मितमानसा बभूवुः । ततो भूयोऽपि यया पश्यन्ति तदा सत्रव चस्यालये सर्वज्ञचरणोपरि पक्वरिकमध्ये कृमिपेण समुत्पन्नाः सन्ति । एवं स्फुटं जास्या श्रावकान् प्रत्यभिहितम्अहो, अस्मिन्न व चस्यालये सर्वज्ञचरणोपरि परावैर्वाहकमध्ये कृमिरूपेण समुत्पन्नाः सन्ति । एवं तच्छ त्वा लक्षणात् तवे (वे)वैरिक भित्वा यावदवलोकयन्ति ते तावत् कृमिरूपमस्ति । अथ ते विस्मितचेतसो भूत्वा श्रावकाः पुनरूचुः-भो स्वामिन, एवमिमै(एभि}हेमसेन महोग्रं तपश्चरणं कृतम् । तत्प्रभावादीडशाया गतेः सम्भवार्य किं कारणमिवम् ? तदाकर्ण्य चन्द्रसेनमुनयः प्राहु:अहो, यद्यपि महोग्रं तपश्चरणं क्रियते तथापि ध्यानं बलवत्तरमिति । उक्तञ्च यत: Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [२३ "आत्तं च तिर्यग्गतिमाहरार्या रौद्रे गतिः स्यात् खलु नारकी च । धर्मे भवेद्देवगतिर्नराणां ध्याने च जन्मक्षयमाशु शुक्ले ॥२१॥" * १० दूसरे दिन समस्त श्रावक जिनालय पहुंचे और मुनिराज हेमसेन के साथ रहनेवाले चन्द्रसेन आदि मुनियोंसे इस प्रकार पूछने लगे--'महाराज, मुनिराज हेमसेनने मरणपर्यन्त अत्यन्त दुष्कर तपस्या की था। कृपया बसलाइए, अब वे किस पर्याय में विराजमान मुनिराज अतीत, वर्तमान और भविष्यत् के ज्ञाता थे। उन्होंने ध्यान लगाया और अवधिसे मोक्ष, स्वर्ग और पाताल तथा समस्त संभव स्थानोंमें हेमसेन महाराजकी खोज की, पर वे वहाँ नहीं मिले । चन्द्रसेन आदि समस्त मुनिनाथ बड़े विस्मित हुए। किन्तु जैसे ही उन्होंने पुन: अवधि लगायी तो मालूम हुआ कि हेमसेन महाराज जिन भगवान्के आगे समर्पित किये गये पके खरबूजे में कोट हुए हैं। चन्द्रसेन मुनि श्रावकोंसे कहने लगे:-'भाइयों, आपको यह जानकर पाश्चर्य होगा कि हेमसेन मुनिराज इसी मन्दिरमें जिनेन्द्र भगवान्के प्रागे रक्खे हुए खरबूजे में कीट पर्यायसे उत्पन्न हुए हैं।' मुनि चन्द्रसेनकी बात सुनकर श्रावक उस खरबूजेको भगवानके सामनेसे उठा लाये और उसे फोड़कर देखा तो उस में उन्हें एक कीड़ा दिखलायो दिया। इस घटनासे श्रावकोंको बड़ा विस्मय हुआ। वे चन्द्रसेन मुनिसे पूछने लगे-महाराज, हेमसेन मुनिराजने जीवन भर उग्र तपस्या की। फिर उन्हें इसप्रकारके कोट पर्याय में क्यों जन्म लेना पड़ा ? महर्षि चन्द्रसेन कहने लगे: यद्यपि उग्र तपस्या एक महान् वस्तु है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] मदनपराजय लेकिन उससे अधिक बलवत्तर हे ध्यान एकाग्र चिन्ता निरोध 1 श्रागम में कहा है : आर्त ध्यान से पशु पर्याय मिलती है और रौद्र ध्यान से नरकगति । धर्म ध्यान से देवगति प्राप्त होती है और शुक्ल ध्यानसे मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।" * ११ तवाकर्ण्य धावकाः प्राहु:- भगवन् कीदशमासं ध्यानम् कीदृशं रौद्रध्यानम् कीदृशं धर्मध्यानम्, कोशं शुक्लध्यानम् ? इति सर्वं प्रकटमस्मान् प्रति कथनीयम् । श्रथ ते ध्यानचतुष्कस्य निदर्श तान्प्रति निवेदयन्ति स्म । तद्यथा वसनश्यनयोषिद्रत्नराज्योपभोग प्रवरकुसुमगन्धाने कसद्भूषणानि । सबुधकरणमन्यद्वाहनान्यासनानि, सततमिति य इच्छेद् ध्यानमा सयुक्तम् ॥६॥ गगनवनधरित्रीचारिणां देहभाज बलनवनबन्धच्छे वघातेषु यत्नम् । इति नखकरनेधोत्पाटने कौतुकं यत् सदिह गदितसुच्चैश्चेतसां रौद्रमित्यम् ॥ १० ॥ दहन हननबन्धच्छेवनंस्ताडनश्च प्रभृतिभिरिह यस्योपति तोषं मनश्व । व्यसनमति सवाऽधे, नानुकम्पा कवाचि मुनय इह तबाहुनमेवं हि रौद्रम् ॥। ११॥ श्रुतसुरगुरुभक्तिः सर्वभूतानुकम्पा स्तवननियमानेष्वस्ति यस्यानुरागः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I प्रथम परिच्छेद मनसि न परनिम्बा त्विन्द्रियाणां प्रशान्तिः कथितमिह हितशैनमेवं हि धर्मम् ।।१२।। खलु विषयविरक्तानीन्द्रियाणीति यस्य सततममलरूपे निर्विकल्पेऽव्यये यः । परमहृदय शुद्धध्यान नहलोनचता यतय इति वदन्ति ध्यानमेवं हि शुक्लम् ॥१३॥ तदवश्यं यादसं ध्यानमन्तकाले चोत्पद्यते तारशी गतिभवति । अन्यच्च मरणे या मतिर्यस्य सा गतिर्भवति ध्रुवम् । यथाभूज्जिनदसाख्यः स्वाङ्गनार्त्तेन ददुरः || १४॥ प्रथ से श्रावकाः प्रोच :- भगवन् कथमेतत् ? ते मुनयः [ २५ - प्रोचुः * ११ चन्द्रसेनकी बात सुनकर श्रावक कहने लगे:- महाराज, आप हम लोगोंको विस्तारसे बतलाइए कि प्रार्तध्यान, रोद्रध्यान धर्मध्यान और शुक्लध्यानसे आपका क्या प्राशय है और इनका क्या स्वरूप है ? चन्द्रसेन चारों ध्यानका स्वरूप समझाने लगे :--- " बसन शयनयोषित्न राज्योपभोगप्रवर कुसुमगन्धानेकस षणानि । सदुपकरणमन्यद्वाहनान्यासनानि सततमिति य इच्छेव ध्यानमात्तं तदुक्तम् ।।" "जो व्यक्ति सदा वस्त्र, शय्या, स्त्री, रत्न, राज्य, भोगोपभोग, उत्तमोत्तम पुष्प, सुगन्धित द्रव्य, विविध आभूषण, सुन्दर उपकरण प्रशस्त सवारी और मृदुल प्रासन आदि प्राप्त करनेकी सदैव इच्छा करता रहता है उसका ध्यान भार्त्तध्यान कहलाता है ।" श्रीर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनपराजय "गगनवनधरित्रीचारिणां देहभाजां बलनहननबन्धच्छेवधातेष यत्नम् । इति गत्वातरोगारे पौतु यत् तविह गदितमुम्चश्वेतसो रोमित्यम् ॥" "जिसका प्रयत्न सदैव नभचर, जलचर और थलचर प्राणियोंको पीस डालने में, मार डालने में, बाँध देने में, छेदन करने में और घात करने में रहता है तथा जो व्यक्ति इन प्राणियोंके नाखून, हाथ और नेत्र भादिके भङ्ग करने में कौतुक रखते हैं उनका चिन्तन रौद्र ध्यान कहलाता है ।" तथा "वहनहननबन्धच्छेवनस्ताउनपत्र प्रभृतिभिरिह यस्योपति तोष मनश्च । व्यसनमति सवाऽथे नानुकम्पाकवाधि मुमय इति सवाहानमेवं हि रौद्धम् ॥" "जिस व्यक्तिका मन निरन्तर जलाने, मारने, बाँधने छेदने और तान करने प्रादिमें ही निमग्न रहता है, पापमें जो तन्मय रहता है और दया जिसे छू नहीं गयी है उस व्यक्तिका ध्यान रौद्रध्यान समझना चाहिए।" और श्रुतसुरगुरुभक्तिः सर्वभूतानुकम्पा स्तवननियमवानेष्वस्ति यस्यानुरागः । मनसि न परनिन्दा घिन्द्रियाणां प्रशान्तिः कथितमिह हितयानमेवं हि धर्मम् ।। "जो मनुष्य निरन्तर देव, शास्त्र और गुरुकी भक्ति करता है, समस्त जीवधारियोंपर दया करता है, स्तुति, नियम और त्यागमें अनुरागवान् है, जो परनिन्दा नहीं करता तथा इन्द्रिया जिसके वशवर्ती हैं, उस पुरुषका ध्यान धर्मध्यान कहलाता है। तथा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ २७ खल विषयविरक्तानीन्द्रियागीति यस्य सततममलरूपे मिविकल्पेऽव्यये यः । परमहृदयसुद्धध्यानतल्लीनता यतय इति वदन्ति ध्यानमेवं हि शुक्लम् ।। 'जिसकी इन्द्रियों सम्पूर्ण विषय-वासनामोंस विरत हो गयी हैं, जो निरन्तर शृद्ध, निर्विकल्पक और अविनश्वर पद की भोर उन्मुख है और जिसका पवित्र मन शुद्ध प्रारमध्यान में तन्मय है, उस पुरुषका ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है।" । मुनिराज चन्द्रसेन कहते गये-श्रावको, इसलिए यह सुनिश्चित है कि "प्राणान्त समय प्राणीका जिस प्रकारका ध्यान रहता है, उसे उसी प्रकारका गति-बन्ध हुआ करता है।" बागम में भी इस बातका समर्थन मिलता है :"मरणे या मतिर्यस्य सा मतिर्भवति ध्र वम् । यथाऽभूजिनदत्ताख्यः स्वाङ्गनातन वर्तुरः ॥" "मरण-समयमें जिसकी जैसी मति होती है उसको गति भी निश्चमसे उसी कोटिकी होती है । जिस प्रकार जिनदत्त अपने स्त्रीसम्बन्धी प्रार्तध्यानके कारण मेंढक हुआ।" श्रावकोंने कहा-भगवन् यह घटना किस प्रकारकी है ? मुनिराज कहने लगे : * १२ अस्ति कस्मिश्चित् प्रदेश राजगृहं नाम नगरम् । तरच जिनचरणयुगलविमलकमालपरमशिवसुखरसास्वाधनसीनमतमधुकरमिनदत्तवेष्ठिनामा श्रावकः प्रतिवसति स्म । तस्यका प्राणप्रिया स्वरूपनिजितसुरेशाङ्गनेस्याबनेकापूर्वरूपा जिनवसारख्या भार्या तिष्ठति । एवं तस्य ":: Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] मदनपराजय सागारधर्मक्रियावर्तमानस्य जिनवत्तस्य कतिपयरहोभिरन्तकालः प्राप्तः ततोऽनन्तरं यावत्सस्य प्राणनिर्गमन कालो वर्तते, तावस्मिन्नवसरे निजललनाद्ध तलावण्यमवलोक्यालयात सन्नविषमवोचत् 1 तद्यथाकिमिह बहुभिरक्त युक्तिशून्यः प्रलाप यमिह पुरुषाणां सर्वदा सेवनीयम् । अभिनयमबलोलासालसं सुन्धरीणां स्सनतरपरिपूर्ण यौवनं वा वनं वा ।।१५।। एषा स्त्रीषु मनोहराऽतिसुगुणा संसारसौख्यप्रवा बारमाधुर्पयुत्ता विलासचतुरा भोक्त न लब्धा मया। देव हि प्रतिफूलतां गतमलं विग जन्म मेऽस्मिन्भवे यत्पूर्व खल दुस्तरं कृतमघं रष्ट मयतद् भवम् ।१६। तथा च असारे खल संसारे सारं शोसाम्बु चन्द्रमाः। चन्दनं मालतीमाला बालाहेलावलोकनम् ॥१७॥ एवं जल्पन महाज्वरसन्तप्ताङ्गः स्वागनास व्याप्तः पञ्चत्वमवाप । तरक्षणात स्वगृहाररावाप्यां ददु सेऽजनि । * १२ किसी प्रदेशमें राजगृह नामका नगर था। उसमें जिनदत्त सेठ नामका एक श्रावक रहता था। जिनदत्त जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमलरूपी परम भोक्ष-सुखके रसास्वादमें मत्त मधुकरके समान था । जिनदत्तकी स्त्रीका माम जिनदता था । जिनदत्ताका सौन्दर्य इन्द्राणीके सौन्दर्य से भी अधिक मनोहर पा। यह दोनों प्राणी बड़े पानन्दसे गृहस्थ जीवन बिता रहे थे। एक दिन अचानक जिनदत्तका अन्तकाल मा उपस्थित हुमा और ज्यों ही उसके प्राए Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ २९ निकलने लगे उसकी नजर अपनो रमणीके रमणीय लावण्यको ओर ससृष्ण हो गयी और वह अान्तरिक व्यथाके साथ इस प्रकार विचार करने लगा : __ "युक्तिशून्य सैकड़ों प्रलापोंमें कोई सार नहीं है। पुरुषों के उपभोगको संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं। एक तो प्राथमिक मदक्रीड़ाओंसे मलस और स्तन-तट-परिपूर्ण सुन्दरियोंका यौवन और दूसरा वन ।" उसके चिन्तनकी धारा यहाँ आकर ही न रुकी । वह मागे सोचने लगा--- "यह जिनदत्ता समस्त स्त्री-सृष्टि में मनोहर है । गुणवती है। संसारके सुखको देनेवाली है। मधुरभाषिणी है और विलासमें चतुर है। फिर भी मैं इसका भोग नहीं कर सका । मेरा भाग्य प्रतिकूल हो गया है। मुझे धिक्कार है कि मैंने यह पर्याय व्यर्थ ही खो दी ! मैंने पूर्वजन्ममें जो दुस्तर पाप किये थे अब उन्हींका परिणाम अनुभव कर रहा हूं।" अयं च "इस प्रसार संसारमें शीत रश्मि चन्द्रमा, चन्दन, मालतीमाला और रमणीका सक्लिास अवलोकन-यही तो सारभूत है !" ___इस प्रकार अपनी स्त्रीके प्राध्यानसे पीड़ित जिनदत्तको महान् ज्वर हो आया और अन्तमें वह मर गया। मरकर वह तुरन्त अपने घरके आँगनको बावड़ोमें मेंढक हो गया। *१३ ततोऽनन्तरं तस्य भार्या कतिपक्निस्तस्यामेव बाप्यां पामोयमामयनार्थ मानद गता तावत्ता वा पूर्वभवसंस्मरणात् तस्याः सम्मुखो धावनागतः । अप सा तहशनभयभीता सती शौनगृहास्यासरं विवेश । एवं यदा यदा सा स्त्री प्रतिदिनं तद्वाप्यां गच्छति तवा तदा स सम्मुखो धावबागच्छति । एवं प्रकारेण मूरि दिनानि गतानि । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनपराजय ततः कतिपयविवसस्तन्नगरबाझप्रदेशस्योद्यानवने केचित सुभद्राचार्यनामानो मुनयो मुनिशतपंचकसमेता विहारकर्म कुर्वन्तश्चाजग्मुः । अथ तेषामागमनमात्रेण तदनं सुशोभितं जातम् । तद्यथा शुष्काशोककदम्बत बकुलाः सज्जूरकाश्मिा जाताः पुष्पफलप्रपल्लवयुताः शाखोपशाखान्विताः। शुष्काजाकरवापिकाप्रमतयो जीताः पयःपूरिताः कीडन्ति स्म सुराजहंसशिखिनश्चक्र : स्वरं कोकिला: ॥१८॥ जातीचम्पकपारिजातकजपासत्केतकीमल्लिकाः पग्रिन्यः प्रमुखाः क्षणाद्विकसिताः प्रापुमंथपास्ततः । कुर्वन्तो मधुरस्वरं सुललितं तद्गन्धमाघ्राय ते गायन्तीच हि गायकाः स्युरपरे (स्परपरा) भातीडशं तनम् ॥१६॥ एवं तनं फल कुसुमविराजमानमवलोक्य वमपालको विस्मिसमना मनसि चिन्तयामास केन कारणेनेवं वनं सहसा सुशोभितं संजातम् । तरिकामेषां मुनीनामागमनप्रभावात् ? किम्वा किचिवरिष्टमस्य क्षेत्रस्य भविष्यत्येवं न विज्ञायते मया । तबहमेतानि फलानि राज्ञो दर्शनकरणाचं नेष्यामि । एवं चिन्तयित्वा नानाविषफलानि गृहीत्वा तत्पुरनराषिरा. जदर्शनार्थमुत्सुकत्वेन ययो । अथ नुपसकाशमागत्य प्रणाम कृत्वा तस्याकालोद्भवफलानां वर्शनमचीकरत् । अथ तान्यकालकलानि समालोक्य विस्मितचेता नरपतिरवोचत्-अरे वनपालक, किमेतानि फलान्यकाले ? सा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ! प्रथम परिच्छेद १ ३१ कयं स चाह-भो देव, किमाश्चर्यं कथयामि । केचिन्मुनीश्वरा सुनिशतपंचकसमेता प्रस्मद्धनमागताः । तत्क्षणात् तेषामागमनमात्रेण तद्वनं सहसा फलकुसुमविराजमानं मनोहरं संजातमिति । * १३ कुछ दिनोंके बाद जिनदत्तकी पत्नी जिनदत्ता पानो भरने के लिए उस बावड़ीपर पहुंची। जिनदत्त को देखकर उस मेंढककी पूर्व भवका स्मरण हो आया और वह दोड़कर जिनदत्ता के सामने या उछला। जिनदत्ता मेंढकको उछलकर सामने लाते हुए देख डर गयी और अपने घर के भीतर घुस गयी। इस प्रकार जब जब जिनदत्ता पानी भरनेके लिए उस बावड़ीपर पहुंचती, वह मेंढक उछलकर उसके सामने आता। इस तरह बहुत दिन निकल गये । एक बार सुभद्राचार्य नामके मुनिराज पांच सौ मुनियोंके साथ विहार करते हुए राजगृहके बाहरी उद्यान में आये। उनके आने मात्रसे वह उद्यान इस प्रकार हरा-भरा हो प्राया : " सूखे अशोक, कदम्ब, आम, बकुल और खजूर के वृक्षोंमें शाखाएं फूट आयीं। उनमें लाल-लाल पहलव, सुगन्धित फूल और सुन्दर फल लग आये । सूखे तालाब बावड़ी और कुए पानीसे लहराने लगे। उनमें राजहंस और मोर क्रीड़ा करने तथा कोकिलाएँ पंचम स्वर में काकली सुनाने लगीं । . जो जाति, चम्पक, पारिजात, जपा केतकी, मालती तथा कमल मुरझाये हुए थे वे सब तत्क्षण विकसित हो गये। इनकी सुगन्धि और रसके लोभी मधुकर इनपर मधुर गुञ्जन करने लगे और रस तथा गन्ध-पान में निरत हो गये । गायक भी इधर-उधर श्रुतिमधुर गीत गाने लगे ।" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] मदनपराजय 7 वनपाल उद्यानको इस प्रकार फूला फला तथा इसकी अकस्मात् उत्पन्न हुई स्वाषवेखकर बसा विस्मित हुआ वह सोचने लगा — कुछ समझ नहीं पा रहा है, क्या मुनियोंके आगमन के प्रभावसे वह उद्यान इस तरह हरा-भरा हो गया है अथवा इस क्षेत्रका कोई कल्याण होने जा रहा है ? वह सोचता है - इस समय सुर्भ इन फलोंको राजाके पास दिखलाने ले जाना चाहिए। इस तरह सोच-विचारके बाद वह उद्यानके विविध फलोंको लेकर उत्सुकता के साथ राजाकी सेवामें जा पहुंचा। 1 राजाके पास पहुँचकर उसने उन्हें प्रणाम किया और असमयमें फले हुए वे सब फल उनके सामने रख दिये। राजा इन फलोंको देखकर आश्चर्यमें पड़ गया । वह वन्दपाल से कहने लगा- अरे वनपाल, यह फल बिना मौसम कहाँसे श्रा गये ? वनपालने कहा- महाराज, मैं ठीक नहीं कह सकता, यह माश्चर्यपूर्ण घटना कैसे घटी ? हां, पांच सौ मुनियोंके संघ सहित कोई मुनिराज प्रपने उद्यानमें अवश्य प्राये है । और मेरा ध्यान है कि उनके आनेके साथ ही उद्यान तरकाल फल और फूलोंसे मनोहर और प्रलंकृत हो गया । * १४ एवं द्वचनमात्रश्रवणात् सिहासनादुत्याय सप्तपदानि तद्दिशि [-] चक्रम्य परमभावेन प्रणामं कृत्वा स राजा सान्तःपुरः सपरिवारो वन्दनार्थं वचाल । श्रथ तद्वासमाकर्ण्य तत्पुरनिवासिनः सर्वे श्रावकजना जिनवस भार्यादिप्रभूताः श्रावकाङ्गनाः परमभक्त्या वन्दनार्थं नियंयुः । ततो मुनिसका सम्प्राप्य त्रिः परीत्य गुरुभक्तिपूर्वकं प्रणम्य सर्वे तत्रोपविविशुः । अथ तत्रके वैराग्यपरां दीला प्रार्थयन्ति स्म । एके धर्ममाकर्णयन्ति स्म । एके गद्यपद्यस्तुतिवचनः स्तुति चक्रिरे । एके तान् मुनीनवलोक्य 'श्रद्य वयं धन्या' एवं Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ ३३ मनसि बधिरे । एके स्वातीतामागत भवपृच्छां कुर्वन्ति स्म । एवं यावत्तत्र लोकमहोत्सदो वति तावत्तस्मिन्नवसरे सा जिनदत्ताङ्गना सम्मुखं स्थित्वा प्रणम्योवाचभगवन, अस्मत जिनवासस्च कोशी गतिः संजाता, तत् कथनीयं भवद्भिः तच्छ तथा ते ज्ञान हष्टया विललोकिरे । ततः प्रोच:-हे पुत्रि, कि कथ्यते ? कथनं योग्यं न भवति । सतः साऽनवोत्-भो भगवन, किमस्मिन् भवद्भिः शङ्का कर्तव्या ? यतोऽस्मिन् संसारे उत्तमो जीयोऽप्यधमः स्यावधमोऽप्युत्तमः स्यात् । अथ ते प्राहु:-हे पुत्रि, ययेवं तत्तव भर्ता स्वगहाङ्गणवायां ददुरो भूस्वाऽऽस्ते। __ * १४ जैसे हो राजाने वनपाल के मुखरो मुनियोंके आगमनका समाचार सुना वह तत्काल सिंहासनसे उठ बैठा और उस दिशामें सात कदम आगे चलकर मुनिराजों को भावपूर्वक नमस्कार किया ! इसके पश्चात् वह अन्तःपुर और अपने परिकरके साथ मुनि-वन्दनाके लिए चल पड़ा । जर पुर-वासियों को पता चला कि राजा मुनिबन्दनाके लिये जा रहे हैं तो पुरवासी समस्त श्रावक और जिनदत्ताप्रमुख श्राविकाएँ भी भक्तिसे गद्गद होकर मुनि-दर्शनके लिए चल दी। मुनियोंके निकट पहुँचते ही सबने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया । तीन प्रदक्षिणा की और नमस्कार करके यथास्थान बंठ गये। उपस्थित श्रामक-श्राविकामों में से कोई विराग-दीक्षाकी प्रार्थना करने लगे। कोई धर्म-चर्चा सुनने लगे। कोई गद्य-पद्यमय स्तवनों से स्तुति करने लगे। कोई मुनिदर्शन कर अपनेको धन्य-धन्य कहने लगे। कोई अपने अतोत भव पूछने लगे। वहाँ इस प्रकार जन-समूह आनन्द लाभ ले ही रहा था कि ऐसे समय जिनदत्ताने मुनिराजको प्रणाम किया और कहने लगी. - - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] मदनपराजय महाराज, कृपाकर बताइये, हमारे स्वामी जिनदत्त किस पर्यायमें पहुंचे हैं ? ___ मुनिराज अवधि जोड़कर कहने लगे- हे पुत्रि, क्या बतावे ? कुछ कहते नहीं बनता। जिनदत्ता कहने लगी-महाराज, इस सम्बन्ध में आप बिलकुल शट्टा न करें। क्योंकि संसारमें परिणामोंके वश उत्तम जीव भी अधम हो जाता है और अधम भी उत्तम हो जाता है। मुनिराजने कहा-पुत्रि, यदि तुम्हारी ऐसी समभ. हैं, तो यह जानो कि तुम्हारा पति तुम्हारे घरके आँगनको बावड़ीमें मेंढक हुआ है। * १५ तदाकण्यं सा विस्मितमनसा चिन्तयामासअवश्यमिदं सत्यम् । यतस्तद्वाप्यां प्रतिदिनं मम सम्मुखो धावन्नागच्छति यो दधुरः च एव मम भर्ता भवति । यतो नान्यथा मुनिभाषितमिति । एवं चिन्तयित्वा भूयोऽपि मुनि परछ। तद्यथा वशीकृतेन्द्रियग्रामः कृतज्ञो बिनयान्वितः । निष्कषायः प्रसन्नात्मा सम्यग्हष्टिमहाशुचिः ॥२०॥ अवालुर्भावसम्पन्नो नित्यषटकर्मतत्परः । व्रतशोलतपोवाजिनपूजासमुद्यतः ॥२१॥ नवनीतसुरामांसमधूदुम्बरपञ्चकैः। अनन्तकायकाज्ञातफलादिनिशिभोजनः ।।२२।। प्रामगोरससम्पृक्त विरलैः पुष्पितो (तौ) वनैः । वध्यहद्वितयातीतप्रमुखरुज्झितोऽशनः ।।२३।। (युग्मम्) पञ्चाणुवतसंयुक्तः पापभीरुदयान्वितः। एवंविधश्च मे भा भेकोऽभूत् स कथं प्रभो ।।२४।। (कुलकम्) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ ३५ सपछत्वा मुनयः प्रोचुः-हे पुत्रि, युक्तमिदमुक्त भवस्या । परन्तु यद्यपि जीवस्य परमश्रावकगुणाः सन्ति, तथाप्यन्तकाले पारशो बुद्धिरुत्पद्यते ताशी गतिर्भवति । * १५ मुनिराजको बात सुनकर उसे बड़ा विस्मय हुआ। वह सोचने लगो, मुनिराजका कथन अवश्य हो सत्य है । अयोंकि उस बावड़ी में प्रतिदिन जो मेंढक उछलकर मेरे सामने आता है, वही मेरे पति होने चाहिए। मुनिराज कदापि मिथ्या नहीं कह सकते। इस प्रकार सोचकर वह पुनः मुनिराजसे बोली-'महाराज, मेरे पतिदेव जितेन्द्रिय थे, कृतज्ञ थे, विनीत थे, मन्दकषायी थे, प्रसन्नात्मा बे, सम्यग्दृष्टि थे और महान् पवित्र थे । वे श्रद्धालु थे, भावुक थे, निरन्तर षट्कर्मपरायण थे। व्रत, शोल, तप, दान और जिनपूजामें उद्यप्त रहते थे। मक्खन, मद्य, मांस, मधु, पांच उदम्बरफल, अनन्तकाय, अज्ञात फल, निशि भोजन, कच्चे गोरसमें मिश्रित द्विदलभोजन, पुष्पित चावल और दो आदि दिन के सिद्ध हुए भोजनके न्यागी थे। पांच अणुक्तोंका पालन करते थे। पापसे डरते थे और दयालु थे । इस प्रकार व्रती-तपस्वी भी मेरे पति मर कर मेंढक हुए ! महाराज, श्राप बतलाइए, इसका क्या कारण है ?" मुनिराज कहने लगे -पुत्रि, तुम ठीक कहती हो! पर बात यह है कि भले ही किसी व्यक्तिमें समस्त श्रावकोचित गुणों का सद्भाव हो, परन्तु मृत्युके समय उसके जिस प्रकारके परिणाम रहते हैं उसी कोटिका गतिबन्ध हुमा करता है। *१६ अथ साप्रोवाच-भो भगवन्, तन्मे नाथस्यान्त. काले कोहयो भावः समुत्पन्नः ? अथ ते अवन्ति स्म-हे पुत्रि, स जिनदत्तो महाज्वरसंपोडितोऽन्तकाले तदेव वार्त्तन(तया) मृत्वा निजगहाङ्गणवाया बरोऽभूत् । ततः साऽब्रवीत्-हे Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनपराजय स्वामिन, यद्येवमन्तकाले भाप: मारणं सरिक बाद सागारधर्माचरणं व्यर्थम् ? तदाकर्ण्य ते मुनयो विहस्य प्रोच:-हे पुत्रि, न भवत्येवम् । न भावो भ्यर्थो न वाऽऽधरणम् । तच्छणु । यस्य हि जीवस्य शुभधर्माचरणवर्तमानस्याप्यन्तकाले यदि कथमध्यशुभो भावः समुत्पद्यते, ततस्तद्भाववशात् तादृशीं गति प्राप्नोति । ततः स्वल्पतरं भुक्त्वा पञ्चाच्छुभगति लभते । यतः स्थितिच्छेदोऽस्ति परं गतिच्छेवो नास्ति । अत एव नोभयं व्यर्थम् । तत्तव भर्ताऽसौ जिनदतः कतिपयदिवसर्दषु रत्वे निवृत्ते देवगति प्राप्स्यति । एवं मुनिवधनं श्रुत्वा मुनि प्रणम्य सा जिनदत्ता स्वगृहमाययो । अतो धर्म ब्रमः भरणे या मतिर्यस्य सा गतिर्भवति ध्र वम् । यथाऽभूज्जिनवत्ताख्यः स्वाङ्गनार्तेन वर्तुरः ।। एवमुक्त्वा तस्य कृमिरूपस्य पंचनमस्कारान् दी। ततः शोन षोडशे स्वर्गे देवोजनि । असोऽहं ब्रवोमि भ्यर्थमात न कर्त्तव्यमा त्तियंग्गतिभंवेत् । यथाऽभूद्ध मसेनाख्यः पक्के चरिके कृमिः ॥ * १६ मुनिराजको बात सुनकर जिनदत्ता फिर प्रश्न करने लगी। उसने पूछा- महाराज, अन्त समय मेरे पतिके मन में क्या भाव उदित हुआ था? मुनिराज कहने लगे-पुत्रि, जिनदत्त अपने अन्तिम समय में महान् ज्वरसे पीड़ित हुप्रा .और तुम्हारा इष्ट वियोगजन्य प्रार्तध्यान करते-करते ही उसका प्राण-पखेरू उड़ गया। इस कारण ही वह तुम्हारे आँगनको बावड़ीमें मेंढक पर्याय में उत्पन्न हुआ है। ___ मुनिराजका उत्तर सुनकर जिनदत्ताने फिर पूछा-महाराज, जब अन्त समयके भावोंके अनुसार ही गतिबन्ध होला है तो श्रावकों Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ ३७ को गृहस्थधर्मका पालन करना व्यर्थ ही है-वे जीवनभर गृहस्थधर्मको साधनामें न झलस कर क्यों न अन्त समय हो अपने परिणामोंको विशुब रखकर सद्गतिक वाद करें? भिन्नताकी गात सुनकर मुनिराज मन्दस्मितपूर्वक कहने लगे-पुत्रि, यह बात नहीं है । न भाव व्यर्थ हैं और न ही जीवनकी पाचरण-साधना । सुनो ! जो जीव जीवनभर शुभ धर्माचरण करता रहता है और अन्त समय कदाचित् उसके मन में अशुभ भाव पाता है तो उस अशुभ-भावके कारण उसे अशुभ गतिमें ही जन्म लेना पड़ता है। वहाँ थोड़े समय तक कर्मफल भोगने के पश्चात् उसे शुभगति मिल जाती है। क्योंकि बंधी हुई गति की स्थिति में तो अन्तर हो जाता है, लेकिन मूलगतिमें अन्तर नहीं आता । इसलिए न अन्त समयके भाव ही व्यर्थ हैं और न जीयनकी सदाचार-साधना ही। तुम्हारा पति भी कुछ ही दिनमें मेंढक पर्याय छोड़कर देव हो जायगा। इस प्रकार मुनिराजका कथन सुनकर जिनदत्ताने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और वह अपने घर चली प्रायो । मुनिराज चन्द्रसेन कहने लगे, मैंने इसीलिए कहा है :"मरणे या मतिर्यस्य सा गतिर्भवति भवम् ।। यथाऽभूज्जिनदत्तात्मः स्वाङ्गनासेन ददुरः।।" । "मरणके समय जिसके जैसे परिणाम होते हैं उसके अनुसार ही गति-बन्ध हुआ करता है। जिस प्रकार जिनदत्त अपनी स्त्रीके प्रार्तध्यानके कारण मेंढक हुआ।" इस प्रकार कथा सुनाकर मुनिराजने उस ककड़ोके कोट को पञ्चनमस्कार मन्त्र सुनाया और वह मरकर सोलहवें स्वर्ग में देवरूपसे उत्पन्न हो गया। रति मकर बजसे कहने लगी-देव, मैं इसीलिए कहती हूँ : Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] मदनपराजय "व्यर्थमात न कर्त्तव्यमा तिर्यग्गतिर्भवेत् । यथाऽमूद्ध मसेनास्यः पक्वे चर्वारके कृमिः ।।" "निष्प्रयोजन आत ध्यान नहीं करना चाहिए । क्योंकि आसध्यान के कारण पशु-पर्यायमें जन्म लेना पड़ता है। जिस प्रकार प्राध्यान करनेसे हेमसेन मुनि पके हुए खरबूजाके कीड़ा बने ।" * १७ एवं श्रुत्वा महाकोपं गत्वा कामः प्रोवाच-हे दुश्वारिणि, किमनेन प्रपंचोक्तन ? यत्त्वया रचितमस्ति तत्सर्व मया ज्ञातम् । शोकेनानेन मां हत्वा स्वयाभ्या भा हृषि चिन्तितोऽस्ति । यतः स्त्रीणामेकतो रतिर्नास्ति । उक्त'च यतः "जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमा: । हृद्गतं चिन्तयन्त्यन्यं न स्त्रीणामेकतो रतिः ॥२२॥ नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः । नान्तकः सर्वभूतानां न पुसां वामलोचनाः ।।२३।। वञ्चकत्वं नृशंसत्वं चञ्चलत्वं कुशीलता । इति नैसर्गिका दोषा यासां ता: सुखदाः कथम् ।।२४।।" तथा च"वाचि चान्यन्मनस्यन्यत् क्रियायामन्यदेव हि । यासां साधारण स्त्रीणां ताः कथं सुखहेतवः ॥२५।।" अन्यच्च"विचरन्ति कुशीलेषु लक्षयन्ति कुलक्रमम् । न स्मरन्ति गुरु' मित्रं पति पुत्रञ्च योषितः ॥२६।। देवदैत्योरगव्यालग्रहचन्द्रार्कचेष्टितम् । जानन्ति ये महाप्राज्ञास्तेऽपि वृत्त न योषिताम् ॥२७।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा च प्रथम परिच्छेद [ ३९ "सुखदुःखजयपराजयजीवितमरणानि ये विजानन्ति । मुह्यन्ति तेऽपि नूनं तत्वविदश्चेष्टिते स्त्रीणाम् ||२८|| जलधेनपात्राणि ग्रहाद्या गगनस्य च । यान्ति पारं न तु स्त्रीणां दुश्चरित्रस्य केचन ||२||" तथा च "न तत् क्रुद्धा हरिव्याघ्रव्यालानलनरेश्वराः । कुर्वन्ति यत् करोत्येका नरि नारी निरङकुशा ॥ ३०॥” प्रत्यच्च " एता हसन्ति च रुदन्ति च वित्तहेतोविश्वासयन्ति च नरं न च विश्वसन्ति । तस्मान्नरेण कुलशीलपराक्रमेण नार्यः श्मशानघटिका इव वज्र्जनीयाः ॥ ३१ ॥ " * १७ रति मुखसे यह विवरण सुनकर कामको बड़ा क्रोध श्राया और वह कहने लगा-- श्ररी दुश्चरित्रे, अधिक क्यों बक रही है ? जो प्रपंच तूने तैयार किया है उसे मैं खूब समझता हूँ । इस शोक मुझे मारकर तू दूसरा पति करना चाहती है ! स्त्रियाँ भला कब एकसे प्रेम कर सकती है ? कहा भी है : "स्त्रियाँ एकके साथ बात करती हैं, दूसरेको विलासपूर्वक देखती हैं और मनमें किसी तीसरेका ही ध्यान करती रहती हैं । ये एक व्यक्ति से स्नेह नहीं कर सकतीं ।" "जिस प्रकार अग्नि काठके ढेरसे तृप्त नहीं होती, समुद्र नदियोंसे तृप्त नहीं होता, काल प्राणियोंसे तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियां भी पुरुषों से तृप्त नहीं हो सकतीं। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ] मदनपराजय वञ्चकता, नुशंसता, चंचलता और कुशीलसा- ये दोष स्त्रियों में निसर्गसे पाये जाते हैं। फिर स्त्रियाँ सुखद कैसे हो सकती हैं ?" और "जिनको वारणो में कुछ अन्य होता है, मनमें कुछ अन्य रहता है तथा कर्ममें कुछ अन्य हो रहता है वे स्त्रियाँ सुखदायी कैसे हो सकती हैं ?" और भी कहा है.. "स्त्रियाँ कुशीलोंके साथ विचरण करती हैं। कुल ऋम का उलघन करती हैं और गुरु, मित्र, पति तथा पुत्र किसीका भी ध्यान नहीं रखतीं। जो महापंडित देव, दैत्य, सांप, व्याल, ग्रह, चन्द्र और सूर्यकी गतिविधिके परिज्ञाता हैं वे भी स्त्रियोंका प्राचार नहीं जान पाते।" प्रथ च "ओ तत्त्वज्ञानी सुख-दुख, जय-पराजय और जीवन-मरणके तत्वको समझते हैं वे भी स्त्रियों के व्यवहारसे ठगाये जाते हैं। जलयान समुद्र के एक छोरसे दूसरे छोरतक पहुँच जाते हैं और ग्रह आदि आकाशके। परन्तु स्त्रियोंके दुश्चरित्रका पार कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता।" मौर-- "क्रुद्ध हुए सिंह, व्याघ्र, व्याल, अग्नि और राजा भी उतना अनिष्ट नहीं करते जितना एक ऋद्ध निरङकुश नारी मनुष्यका कर सकती है ।" एवञ्च "स्त्रियाँ धनके हेतु हैसती हैं और रोती हैं । मनुष्यको विश्वासी बना देती हैं, लेकिन स्वयं विश्वस्त नहीं होती। इसलिए कुलीन, सुशील और पराक्रमी मनुष्यको चाहिए कि यह श्मशानके घड़ों के समान इनका परित्याग कर दे।" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ ४१ * १८ एवं तस्य कामस्य दारुणं वचनमाकण्यं रतिरब्रवीत् भो नाथ, सत्यमिदमुक्त भवता । परं किन्तु युक्तायुक्तशो न भवति । उक्तञ्च यतः "कौशेयं कृमिजं सुवर्णमुपलाद्दूर्ध्वा च गोलोमतः पात्तामरसं शशाङ्क उदधेरिन्दीवरं गोमयात् । काष्ठादग्निरहेः फणादपि मणिगोपित्तगो (तो) रोचना कायं स्वगुणोदयेन गुणिनो गछन्ति किं जन्मना ||३२|| " तत्त्वां वञ्चयित्वा फोऽन्यो भर्ताऽस्माकमस्ति ? तस्वया एतद्वक्तव्यं ममोपरि बूथोक्तम् । · तद्वचनं श्रुत्वा प्रीतिः प्रोवाच- हे सखि यत्र वक्तव्यं तदनेनोक्तम् । तदिदानों कि वथाऽनेन प्रोक्त ेन ? यतस्त्वयंवात्मनः सन्देहः कृतः । "मूर्खेरपक्वयोश्च महालाप (वे ) चतुष्फलम् । बाचां व्ययो मनस्तापस्ताडनं दुःप्रवादनम् ।। २५ ।। अन्यच्च "दुराग्रहस्ते विद्वान् पुंसि करोति किम् । कृष्णपाषाणखण्डेषु मार्वबाध न तोयदः || २६ ॥ तत्स्वदोषनाशाय गच्छ । उक्तञ्च यतः" अद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूट कूर्मो बिर्भात धरणीं खलु पृष्ठभागे । अम्भोनिधिर्वति दुःसहवाडवाग्नि मङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति ।।३३।।" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] मदनपराजय तथा चमातंण्डान्वयजन्मना क्षितिभृता चाण्डालसेवा कृता रामेणा विक्रमेण गहनाः संसेषिताः कन्दराः । भोमायः शशिवंशजेन पवरवैन्यं कृतं रकवत् स्वाऽभाषाप्रतिपालनाय पुरुषः किं कि न चाङ्गी कृतम् ॥२७॥ एवं सखीचचनमार्य रतिरमणी कामं प्रणम्य निर्ग्रन्थमार्गेण निर्गता । तद्ययायथेन्दुरेखा गगनाद्विनिर्गता यथा हि गङ्गा हिममबिनोधरास् । कद्धायथेभात करिणी विनिर्गता रतिस्तथा सा मदनाद्विनिर्गता ॥२८॥ * १८ मकरध्वजके इस प्रकार दारुण वाक्य सुनकर रतिने कहा-नाथ, प्राय ठोक कहते हैं, पर पापको उचित-अनुचितका विवेक नहीं है । कहा भी है : "रेशम कीड़ोंसे बनता है, सुवर्ण पत्थरसे निकलता है, दूब गोरोमसे पैदा होती है, कमल कीचड़से उत्पन्न होता है । चन्द्रमा समुद्रसे जन्म लेता है, नीला कमल गोबरसे प्रकट होता है, अग्नि काठसे निकलती है, मरिण सापके फणसे उत्पन्न होता है, और गोरो. चन गोपित्तसे प्रकट होता है । इस प्रकार मूल्यवान् पदार्थ अपनीअपनी प्रकट विशेषताओंके कारण मूल्यवान् समझे जाते हैं । जन्मसे कोई मूल्यवान् नहीं बनता।" रति काम से कहती है. नाथ, ठीक इसी प्रकार अखिल स्त्रीसृष्टि दूषित नहीं कही आ सकती और इसीलिए मुझे भी प्रापको इस कोटिमें नहीं रखना चाहिए। आप ही बतलाइए, मापको छोड़ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ ४३ कर और किसे मैं अपना पति बनाना चाहती हूं ? इसलिए आपने जो मेरे ऊपर यह लाञ्छन लगाया है, उसका कोई अर्थ नहीं है । मकरध्वजकी बात सुनकर प्रीति कहने लगी-सखि, वास्तवमें इन्होंने बहुत ही अनुचित बात कही है। लेकिन अब इस व्यर्थ के विवादसे क्या मतलब ? फिर सखि, तुम्हीने तो अपने ऊपर सन्देह किया । देखो-- "कच्ची समझके मूोंके साथ बात करने के चार ही परिणाम हैं --वाणीका दयम, मनस्ताप, ताड़न और बकवाद ।" "जो पुरुष दुराग्रही है उसके मनको कोई भी विद्वान् बदल नहीं सकता। जिस प्रकार मेष काले पत्थरोंको जरा भी मृदु नहीं कर सकते ।" प्रीति कहने लगी-सखि, चलो, अब पतिदेवकी प्राज्ञाका पालन करके अपने पापका प्रायश्चित कर इालें । कहा भी है :- . __ "महादेवजी अब भी कालकूटका परित्याग नहीं कर रहे हैं। कन्छप पाज भी अपनी पीठपर पृथ्वीका भार उठाये हुए है । और समुद्र अद्यावधि दुःसह बड़वानल समेटे हुए है। ठोक है, कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य अङ्गीकृत कार्यको सदैव पूर्ण करते हैं ।" तथा--- 'सूर्यवंशी राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डाल की सेवा करनी पड़ी। अद्भुत पराक्रमी रामको पर्वतोंको कन्दराएँ छाननी पड़ीं । और भीम आदिक चन्द्रवशी नरेशोंको रङ्कके समान दीनता दिखलानी पड़ी। ठीक है, अपनो बात के निर्वाहके लिए महान् पुरुषोंने भी क्या-क्या अनीसित कार्य नहीं किया ?" इस प्रकार अपनी सखोकी बात सुनकर रतिने कामको प्रणाम किया और वह जिनराजके पास जाने के लिए आर्यिकाका घेछ बनाकर निकल पड़ी। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n] मदनपराजय "रति कामके निकटसे इस प्रकार निकली जिस प्रकार चन्द्ररेखा आकाशसे निकलती है, गङ्गा हिमाचल से निकलती है, और हथिनो क्रुद्ध हायोके पाससे चली जाती है ।" ___* १९ एवं सा रतिरमणी यावत्तन निग्रन्थमागण गच्छति, तावत् कामराजस्य सचिवो मोहः सम्मुखः प्राप्तः । अथ तेन मोहेन तां रतिरमणोमतिक्षीणां चिन्तापरिपूर्णा इष्टवा विस्मितमनाः स मोहः प्रोवाच-हे वेवि, अस्मिन् विषमे मार्गे कुतो भवतीभिरागमनं कृतम् ? एवं तेन पृष्टा सती सा रतिरमणी सकलवृत्तान्तमकथयत् तच्छ स्वा मोहोऽनधीत-है देषि, यवा सज्वलनेन विज्ञप्तिका प्रेषिता तदेतत्सवं मया मातम् । तदहं तेनैव सैन्यमेलनार्थ प्रेषितः । तद् यावदागमिज्यामि तावत् स न सहते। तदेतत्युक्तं कृतं तेन । सतो रतिराह-भो मोह, विषयव्याप्ता ये भवन्ति ते युक्तायुक्त किचिम जानन्ति । उक्तञ्च यत्त: "किमु कुवलयनेवाः सन्ति नो नाकनार्यस्त्रिदशपतिरहल्यां तापसी यत् सिषेवे । हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मराग्ना वुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि ॥३४॥" अन्यच्च, सा सिदश्यङ्गना जिननाथं वंचयिस्वाऽन्येषां नामपृच्छामपि न करोत्येवं स्वं जानासि । तस्कि परवाराभिलाषं (षः) कत्तुं सम्पते ? उक्त च यत: "प्राणनाशकरा प्रोक्ता परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धा च पररामा, ततस्त्यजेत् ॥३५॥" सथा च Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [४५ "भवस्य बीजं नरकस्य द्वारमार्गस्य दीपिका । शुचां कन्दः कलेमूलं पररामा, ततस्त्यजेत् ।।२६॥" अन्यच्च"सर्वस्वहरणं बन्धं शरीरावयवच्छिदाम् । मृतश्च नरपोर लभते गारनारिका: ।।१०।। नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यञ्च भवे भवे । भवेन्नराणां मूढानां पररामाभिलाषत: ॥३१॥ दत्तस्तेन जगत्यकीत्तिपटहो गोत्रे मषोकूर्चक श्चारित्रस्य जलालिगुणगणारामस्य दावानलः । संकेतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढ़ः कामात स्त्यजति प्रतोदकभिदा (5) स्वस्त्रों परस्त्रीं न यः ॥३२॥" १६ जैसे हो रति निर्ग्रन्थ-मार्गसे जा रही थी, मकरध्वजके प्रधानसचिव मोह उसके सामने आ गये। मोहने देखा कि रति बहुत ही क्षीण हो गयो है और चिन्तित भी है रतिको इस प्रकारको अवस्था देखकर उसे बड़ा विस्मय हुआ और वह रतिसे कहने लगादेवि, आपने यह विषम मार्ग किसलिए अङ्गीकार किया है ? मोहकी बात सुनकर रतिने उसके सामने समस्त घटना-चक ज्योंका स्यों रख दिया। रतिकी बात सुनकर मोहने कहा-देवि, जिस समय संज्वलनने अपनी विज्ञप्ति सुनायी थी मैं उसी समय भांप गया था कि आगे इस प्रकारका घटनाचक्र चलेगा। मैं भी महाराज मकरध्वज की प्राज्ञानुसार सैन्य तैयार करनेके लिए गया था और लौटकर ही न आ पाया कि महाराजने आपके लिए इस प्रकारको अनुचित आज्ञा दे डाली ! मोहकी बात सुनकर रतिने कहा-मोह, जो विषयी होते हैं उन्हें उचित-अनुचितका विवेक नहीं होता। कहा भी है : Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] मवनपराजय "क्या स्वर्ग में कुवलय के समान कमनीय नेत्रवाली देवाङ्गनाएं नहीं पों जो इन्द्रने तपस्विनी प्रतिस्याका सतीस्व-भंग किया ? ठीक है, जब हृदयकी तृण-कुटीरमें कामाग्नि दहकने लगती है तो अच्छा विवेकनिष्ठ भी विवेक-बुद्धि खो बैठता है।" रति मोहसे कहती गयी-पाप भी इस बाससे अनभिज्ञ नहीं हैं कि मुक्ति-रपा जिननायको छोड़कर अन्य किसीका नाम तक नहीं सुनना चाहती। फिर समझमें नहीं आता कि प्राणनाथ दूसरेकी स्त्रीके लिए क्यों इतने लालायित हैं ? सुनिए, परस्त्री-सेवन कितमा भयंकर है: "नीतिविदोंका कथन है कि परस्त्री प्राणोंका नाश करनेवाली है, घोर विरोधका कारण है और दोनों लोकमें अनुपसेव्य है । इसलिए मनुष्य परदाराकी चाह कभी न करे।" प्रथ च "परकीया नारी संसार-भ्रमणका कारण है, नरकवारके मागके लिए दीपिका के समान है और शोक एवं कलहका मूल कारण है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह परदाराको बाह कभी न करे । जो परदारासे अनुचित सम्बन्ध रखते हैं, उनका सर्वस्वसक छिन जाता है । वे बाँधे जाते हैं, उनके शरीरके अङ्ग छेदे जाते हैं और मरकर वे पोर नरकमें जाते हैं। जो मूढ़ मनुष्य परकीय स्त्रीको केवल चाह सक करते हैं वे जन्म-जन्मान्तरमें नपुंसक होते हैं, तिर्यञ्च होत हैं और दरिद्र होते हैं।" २० एवं तस्या वचनमाकर्ण्य मोहमल्लस्ता प्रति[स] प्रपंचमबोचत-हे देवि, युक्तमिदमुक्त भवतीभिः । परं किन्तु यस्य यथा भवितव्यमस्ति तदन्यथा न भवति । उक्तं च यतः "भवितव्यं यथा येन न तद्भवति चान्यथा । नीयते तेन मार्गेण स्वयं वा तत्र गच्छति ॥३६॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रथम परिच्छेद [ ४७ नहि भवति यत्र भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति यस्य च भवितव्यता मास्ति ॥३७॥" ततो रतिरुवाच - भो मोह तदधुना कि कर्त्तव्यम् । तत्कथय । अहंचेत् त्वया सह भूयोप्यागमिष्यामि तम्मां दृष्ट्या स कामोऽतिकोपं यास्यति तत्वं गच्छ हे मागमि व्यामि । मोहः प्राह हे वेवि, युक्तमेतन्न भवति । भवतीभिरवश्यमागन्तव्यम् । रतिराह भी भीह, त्वं तत्र मां नोवा किं तावत् प्रथमं भविष्यसि ? स मोहः प्राह उत्तरादुसरं वाक्यं वदतः सम्प्रजायते । सुषृष्टिगुणसम्पन्नाद् बीजाद्द्बीजमिवापरम् ॥६६॥ एवमुक्त्वा रतिरमण्या सह कामपार्श्वे समागतो मोहः । इति ठक्कुरमा इन्ददेवस्तुत जिन (नाग) देवविरचिते स्मरपराजये संस्कृतबन्ध अतावस्थानामप्रथमपरिच्छेदः । १॥ * २० रसिकी इस प्रकार विस्तृत बात सुनकर मोहमल्लने कहा - देखि, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, लेकिन भवितव्यता अन्यथा नहीं हो सकती । कहा भी है : "जिसकी जैसी भवितव्यता होती है वह होकर रहती है। और वह भी उसी रूप में होती है, अन्यथा नहीं । मनुष्य या तो भवि तव्यता के रास्ते पर खींच लिया जाता है या वह स्वयं हो उस रास्ते से प्रयाण करता है । जो भविष्य नहीं है वह कभी नहीं होता और जो भवितव्य होता है वह अनायास भी होकर रहता है । यदि भवितव्यता नहीं है तो हमेलोक रखी हुई वस्तु भी विनस जाती है ।" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] मदनपराजय इसके पश्चात् रतिने कहा- मोह, तुम यह बताओ कि मैं इस समय क्या करू ? यदि मैं लोटकर तुम्हारे साथ चलूँ तो प्राणनाथ मुझे देखकर बहुत नाराज होंगे । इसलिए तुम चलो। मेरा लौटना अब ठीक नहीं है । मोहने कहा- देवि, यह न होगा । आप अवश्य ही मेरे साथ लौट चलिए । रतिने कहा- मोह, भाप मुझे प्राणनाथ के पास ले जाकर क्या कहेंगे ? मोहने कहा- देवि, इस सम्बन्ध में आप क्यों चिन्ता करती हैं ? "जिस प्रकार अच्छी वर्षाके समय बोये गये बीजसे मौर बीज पैदा होता है, उसी प्रकार प्रश्नकर्ता के उत्तर से वार्तालापकी परम्परा चल पड़ती है।" इस प्रकार मोह रसिको साथमें लेकर कामके निकट जा पहुंचा । इस तरह ठक्कुर माइन्ददेव द्वारा प्रशंसित जिन (नाम ) - देव-विरचित संस्कृतबद्ध स्मरपराजय में श्रुतावस्था नामक प्रथम परिच्छेद सम्पूर्ण हुआ । --3q----- Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः परिच्छेदः *१ ततोऽनन्तरं रतिरमणीमहितं मोहमालोक्य लज्जया स तूष्णों तस्थौ । तदा मोहः प्रोवाध-भो देव, किमेतदुसुकस्वं कृतम् । यावदहमागमिष्यामि तावत्वं म सहसे ? अन्यच्च, कि केन क्वापि स्वभार्या दूतत्वं प्रेषितास्ति ? अथवा तस्मिन् विषमे निग्रन्थ पार्गे जिननाथस्थानपालका ये सन्ति यदि मापाद्यते तदाऽऽस्मनः स्त्रोहत्या भवेदिति । अनालय, मनिख्यान हा सात् : अत् स्त्रया मया बिना दुमन्त्रोऽयं कृतः । अन्यच्च गोहत्या युगमेकं स्यात्, स्त्रीहत्या च चतुयुगे। यतिहत्या नु करूपान्ते, ऋणहत्या न शुद्धधति ।।१।। उक्त'च यस:-- "दुर्मन्त्राग्न पतिविनश्यति यतिः सङ्गात् सुतो लालनाद् विप्रोऽनध्ययनात् कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात् । मंत्री चाप्रणयात् समृद्धिरनयात् स्नेहः प्रवासाश्रयात् स्त्री मद्यादनवेक्षणादपि कृषिस्त्यागात् प्रामादाद्धनम् ॥१॥" अत एव सचिन विना स्वामिना मन्त्रो न कर्तव्यः । एवं तस्य मोहस्य वचनमाकण्य कामोआबीत-भो मोह, किमनेन भरिप्रोक्त न ! यत्कार्यार्थ प्रेषितस्त्वं तत्वया कीरसं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] कृतम् ? तस्कथय । मोहः प्राह-देव, यत्कार्यार्थं त्वया प्र ेषितोऽहं तन्मया सकलसैन्यमेलन मेवंविधं कृतं यथा सा विद्धङ्गा तथैव रामति । उच स जिनराजस्तव सेवां यथा करोति तथोपायो मया रचितः । एतद्वचनमाकण्यं स्मरोऽवोचत् मोह, सत्यमिदमुक्त' भवता । तदेवं कर्तुं त्वया शक्यते । मोह ग्राह-देव, प्रहमिति स्तुतियोग्यो न भवामि । यन्मया स्वामिकायं क्रियते स स्वामिनः प्रभावः । यत उक्त मदनपराजय "शाखामृगस्य शाखायाः शाखाग्रं तु पराक्रमः । यत् पुनस्तीर्यतेऽम्भोधिः प्रभावः प्राभावो हि सः ॥ २ ॥ " प्रन्यच्च "यद्वेणुविकलीकरोति तणि तन्मारुत स्फूर्जितं - भेकश्चुम्बति यद्भ ुजङ्गवदनं तम्मन्त्रिणः स्फूर्जितम् । चैत्रे कूजति कोकिलः कलतरं तत् सा रसालद्रुमस्फूर्तिर्जल्पति माध्यः किमपि तन्माहात्म्यमेतद् गुरोः ॥३॥" अथवा श्रीमतां किमसाध्यमस्ति ? उक्त च यतः"सर्पान् व्याघ्रान् गजान् सिंहान् दृष्ट्वोपायैर्वशीकृतान् । जिनेति कियती मात्रा धीमतामप्रमादिनाम् ॥४॥ " तथा च "बरं बुद्धिर्न सा विद्या, विद्याया धीर्गरीयसी । बुद्धिहीना विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ॥५॥” एतद्वचनं श्रुत्वा कामः प्राह-भो मोह, कथमेतत् ? स मोहोऽब्रवीत् 1 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ द्वितीय परिच्छेद ] * १ मकरध्वजने जैसे ही रतिके साथ वापिस पाये हुए मोहको देखा वह लज्जासे लाल-लाल हो गया और उसके मुखसे एक शब्द भी न निकला । इतने में मोहने मकरध्वजसे कहा- महाराज, श्रापने यह कैसा अनुचित कार्य किया है? आप इतने अधीर हो गये कि मुझे लौटकर कापिस भी न जाने दिया ? फिर स्वामिन् क्या किसीने को अपनी पत्नीको दूत बनाया है ? और क्या आपको इतना भी नहीं मालूम है कि नित्य-मार्ग कितना विषम है ? कदाचित् इस मार्ग से जाती हुई रतिको मुक्ति-स्थान के संरक्षक हत्या कर देते तो इस महत् श्रात्म-हत्या के पापका कौन भागी होता ? संसार भर में जो तुम्हारा अपयश फैलता वह अलग। इसलिए मेरी अनुपस्थिति में तुमने ठोक मन्त्र नहीं किया। कहा भी है : '— "अनुचित परामर्शसे राजा नष्ट हो जाता है। परिग्रह से यति नष्ट हो जाता है। लाड़ करनेसे पुत्र नष्ट हो जाता है । अध्ययन न करने से ब्राह्मण नष्ट हो जाता है। कुपुत्र से कुल नष्ट हो जाता है । दुर्जनसंसर्गसे शोल नष्ट हो जाता है। स्नेहके न होनेसे मंत्री नष्ट हो जाती है। अनीतिसे समृद्धि नष्ट हो जाती है । परदेशमें रहनेसे स्नेह टूट जाता है । मद्यपानसे स्त्री दूषित हो जाती है। देख-भाल न रखनेसे खेतो नष्ट हो जाती है। त्यागसे और प्रभावसे धन विनस जाता है " [ ५१ मोहने कहा इसलिए राजा का कर्त्तव्य है कि वह विना मन्त्रीके कदापि मन्त्र करे । - मोहकी बात सुनकर मकरध्वज कहने लगा- अरे मोह, वारबार एक ही बात क्यों दुहरा रहे हो ? तुम जिस काम के लिए भेजे गये थे उसे तुमने कंसा किया ? पहले यह बतायो । मोह उत्तर में कहने लगा-- स्वामिन् आपने मुझे जिस कार्यसंन्यसंमेलन - के लिए भेजा था, वह कार्य में कर चुका। साथ ही Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] इस प्रकारका भी प्रयत्न किया है कि जिससे मुक्ति स्त्री आपकी हो पत्नी बने। इसके अतिरिक्त मैंने इस तरहकी युक्तिका प्रयोग किया है कि उल्टे जिनराज आपको ही सेवा करेगा। मोहकी बात सुनकर मकरध्वज बहुत प्रसन्न हुआ और कहने लगा- भोह, तुमने ठीक कहा है । यह काम तुम्हारे सिवा और कौन कर सकता है ? , मोह बोला- देव में इस प्रकार प्रशंसाका पात्र नहीं हैं । आपका जो कार्य मुझसे बन पड़ता है, वह सब आपके प्रभावसे । कहा भी है - मदनपराजय "छानर वृक्षको शाखा प्रशाखाओंतक ही उछलकर अपना पराक्रम दिखला सकता है । यदि वह समुद्र पार करता है, तो इसमें प्रभुका हो प्रभाव समझना चाहिए, वानरका नहीं ।" मोह कहता है - स्वामिन् ठीक यही बात मेरे सम्बन्धकी है । तथा "धूलि यदि सूर्यको ढक देती है तो इसमें धूलि की विशेषता नहीं यह तो वायुका विक्रम है। इसी प्रकार यदि मेंढ़क सपका मुँह चूमता है, यह भी मन्त्रविद्को कुशलता है । और चंतमें कोकिल जो कलगान करती है, वह भी ग्राम्रवृक्षोंके मजरित होनेका परिणाम है । वैसे हो मुझ जैसा मूढ़ जो बात कर रहा है इसमें भी गुरुका माहात्म्य ही काम कर रहा है ।" अथवा बुद्धिमान् पुरुष क्या नहीं कर सकते ? कहा भी है:"जब मनुष्य सर्प, व्याघ्र, गज और सिंहको भी उपायोंसे वशमें कर लेते हैं तो जागरूक बुद्धिमान् पुरुषोंके लिए जिनदेवको श्राधीन करना क्या कठिन चीज है ?" और भी कहा है : - "बरं बुद्धिर्न सा विद्या विद्याया घोगरीयसी । बुद्धिहोना विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ॥" 1 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ५३ "बुद्धि विद्यासे अधिक गुरु है-महत् है। बुद्धिहीन मनुष्य उसी तरह विनस जाते हैं जैसे सिंह बनानेवाले वे तीन पंडित ।" ___ मकरध्वज इस बातको सुनकर मोहसे कहने लगा-मोह, यह बात किस प्रकारको है ? मोह कहने लगाः २ अथाऽस्ति कस्मिश्चित प्रदेशे पौण्डवर्द्धनं नाम नगरम् । तत्र च शिल्पि(ल्प)कारक-चित्रकारक-गिकसुतमन्त्रसिद्धाश्चेति चत्वारि मित्राणि स्वशास्त्रपारङ्गतानि सन्ध्यासमधे एकत्रोपविश्य परस्परं सुखगोष्ठी कुर्वन्ति स्म । एवं तेषां चतुएँ मित्रत्ववर्तमाननां कतिपदिवसः शिल्पि(ल्प) कारेण सन्ध्यासमये तांस्त्रोनाइय एकत्रोपविश्य वचनमेतदभिहितम्-ग्रहो, यवहं भणिष्यामि तवयं करिष्यथ ? तवा तच्छ त्वा ते अयः प्रोच:-भो मित्र, तब वचनं कामान कुर्मों अयम् ? उक्त च यत:-- "मित्राणां हितकामानां यो वाक्यं नाभिनन्दति । तस्य नाशो (शं) विजानीयात् यद्भविष्यो यथा मृतः ।६।" अथ शिल्पि (ल्प)कारोऽवोचत्-कथमेतत् ? ते प्रोच:-- * २ किसी प्रदेश में पौण्ड्रवर्धन नामका नगर था । इस नगर में अपने-अपने शास्त्रमें पारंगत चार मित्र रहते थे । उनमेंसे एक शिल्पकार था, एक चित्रकार था, एक वरिणा-पुत्र था और एक मन्त्रशास्त्रका जानकार था। चारों मित्र प्रतिदिन सन्ध्या-समय एक स्थानपर बैठकर विनोद-गोष्ठो किया करते थे। कुछ दिनोंके पश्चात् एक बार शिल्पकारने अपने तीनों मित्रों को सन्ध्याके समय निश्चित स्थानपर बुलाया और कहने लगा-क्या हम जिस बातको कहेंगे उसे Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] आप लोग स्वीकार करेंगे ? मित्र शिल्पकारकी बात सुनकर तीनों मित्र कहने लगे - सखे, हमलोगोंने आपकी बात कभी टाली भी है ? क्योंकि हमें मालूम है अश्मनराजय "मित्राणां हितकामानां यो वाक्यं नाभिनन्दति । तस्य नाशं विजानीयाद् यद्भविष्यो यथामतः ।। " "जो अपने हितेषी मित्रोंकी बात नहीं मानता है, उसकी यद्भविष्य के समान मृत्यु हो जाती है।" इस बातको सुनकर शिल्पकार कहने लगा- महाराज, प्राप यह कैसी बात कह रहे हैं ? इसका खुलासा कीजिए । शिल्पकारकी बात सुनकर वे मित्र कहने लगे 1 * ३ प्रथास्ति कस्मिश्चित् स्थाने पद्मिनखण्डमण्डित जलाशयः । तत्र हृदे महास्थूलास्त्रयो मत्स्याः सन्ति । किंनामधेयास्ते ? प्रमागतविधाता प्रत्युत्पन्नमतिर्यद्भविष्यश्वेति हम । एवं तत्र जलाशये कतिपर्यदिवस मनलुन्धकाः परिभ्रमन्तश्चागताः । श्रथ तैस्तं जलाशयं दृष्ट्वेतवभिहितम्अहो, प्रस्मिन् जलाशये बहवो मत्स्याः सन्ति । तत्प्रातरागत्यांय जालं प्रक्षिप्य नेता एते । एवमुक्त्वा ते सर्वेऽपि मीनलुन्धकाः स्वस्थानं प्रति निर्धग्मुः अथ तेषां कुलिशपातमिव वचनमाकव्यं अनागतविधाता ताबहू वचनमेतदुक्तवान्अहो, भवन्तौ कलिपaदिवसपर्यन्तमात्मनो जीवितमिच्छतः ? तच्छ्रुस्वा प्रत्युत्वमसिरवादीत् भो मित्र कि स्वमेयं म्रषे ? स आह- अहो मित्र अस मीनधातरत्रापत्य कलाशयं दृष्ट्वा एतवेचाभिहितम्- 'अहो प्रभूतमत्स्योऽयं जनाशयोऽस्ति । तत्प्रभातेऽस्मिन्नागस्तथ्यम् । एवमुक्ते नित , 1 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ५५ बन्तः । तदवश्यं प्रभासे धीवरा प्रत्रामत्य अस्मानेष्यन्ति । तमछोप्रमन्यत्र गन्तव्यम् । उक्त च यतः "त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।७।।" तदाकर्ण्य सः प्रत्युत्पन्नमतिराह-भो मित्र, एवं भवतु । एवं द्वयोर्वचनं श्रुत्वा यद्भविष्यो बिहस्य प्रोवाच-ग्रहो, भवन्तौ परस्परं किं मन्त्रयत: ? परणं सा यति सदाप्रापि गते सति किन्न भविष्यति ? उक्त च यत:"अरक्षितं तिष्ठति देवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति । जीवत्यनाथोऽपि वने विसजितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे न ___ जीवति ।।८।। नहि भवति यन्न भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यलेन । करसलगतमपि नश्यति यस्य च भवितव्यता नास्ति ।।६॥" अस्य च"यथा धेनुसहस्रषु वत्सो विन्दति मातरम् । तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥१०॥" तदन्यत्रापि गते सति यद्भाव्यं तदवश्यं भविष्यति । अन्यच्च, धीवराणा वचनमानश्रवणात् पितृपैतृकोपाजितं (तो) जलाशयं (यः) त्यक्त कि युज्यते ? तवहं नाऽऽगम्छामि । एक तस्य यद्भविष्यस्य वचनं श्रुत्वा तावृचतुः-भो यद्धविष्य, यदि त्वं नाऽऽगच्छसि, तदाऽऽवयोः कोऽपि दोषो नास्ति । एवमुक्त्वा तावन्यजलाशयमाटतुः । ततोऽनन्तरं मीनघातका: प्रभाते तत्रागत्य जालं प्रक्षिप्य यद्भविष्येन सहाऽन्यानपि जलघराग्निन्युः । प्रतो वयं ब्रम:-"मित्राणां हितकामानाम्' इत्यादि। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] मदनपराजय * ३ किसो स्थानमें कमलोंसे सुशोभित एक जलाशय था । उस जलाशयमें अनागतविधाता, प्रत्युत्पन्नमति और यद्भविष्य नामके तीन स्थूलकाय नाय रहते थे। इस प्रकार रहते-रहते इन्हें बहुत दिन बीत गये । कुछ दिनोंके पश्चात् उस जलाशयके निकट घूमते-चामते कुछ धीवर पाये । धौवर इस जलाशयको देखकर आपसमें कहने लगे : 'देखो, इस तालाब में कितने अधिक मत्स्य हैं । अतः यह ठीक होगा कि हमलोग यहां सुबह पायें और तालाबके जलको छानकर उन्हें ले जावें ।' साथियोंने भी इस प्रस्तावका समर्थन किया और वे अपने-अपने घर चले गये। अनागतविक्षाताको इन लोगोंकी बात सुनकर ऐसा मालूम हुआ जैसे उसकी छातीमें किसीने वन मार दिया हो। उसने अपने साथी मत्स्योंको बुलाकर कहा:-आप लोग क्या कुछ दिनतक और जोना चाहते हैं ? अनामसविधाताकी बात प्रत्युत्पन्नमतिको बड़ी असंगत-सी मालूम हुई । वह अपने पूर्व साथीसे कहने लगा-मित्र, श्राप वह बात क्यों कह रहे हैं ? अनागतविधाता कहने लगा:- मित्र, मैंने यह बात इसलिए कहो है कि प्राज कुछ धीवर यहाँ आये थे। उन्होंने इस तालाबको देखकर यह कहा कि-"इसमें बहुत मत्स्य हैं। इसलिए हमलोग सुबह यहां ही पावें।" इतना कहकर वे चले गये। वे लोग प्रातः यहाँ अवश्य ही आयेंगे और हमें पकड़कर ले जावेंगे । इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम शीघ्र ही यहाँसे अन्यत्र प्रस्थान कर दें। कहा भो है : "कुलके स्वार्थके लिए एकका त्याग कर देना चाहिए । जनपदको हित-दृष्टिसे प्रामका त्याग कर देना चाहिए और अपनी स्वार्थ-सिद्धिके लिए पृथिवीतककी चिन्ता न करनी चाहिए।" । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । द्वितीय परिच्छेद [ ५७ अनागतविधाताकी बात सुनकर प्रत्युत्पन्नमति कहने लगाःहो मित्र. अब हमें यहाँसे शीघ्र ही प्रस्थान कर देना चाहिए । पर जब इन दोनोंकी बात यद्भविष्यने सुनो तो वह हंसकर कहने लगाः-'अरे, आप लोग मापसमें क्या छोटी-सी बातपर विचार कर रहे हैं ? यदि मरना ही होगा तो हम अन्यत्र भो चले जावें. मृत्युसे नहीं बच सकते । कहा भी है : 'मनुष्य जिस वस्तुकी रक्षा नहीं करता है वह देवसे रक्षित होकर बची रहती है । इसके विपरीत जिसकी खूब सावधानीसे रक्षा भी को जाय और यदि देवकी अनुकूलता न हो तो वह विनस जातो है। प्रनाथको वनमें छोड़नेपर भी वह जीवित रह जाता है और अनेकों प्रयत्न करनेपर भी चीज घरमें नहीं बच पाती है ।" प्रय च ___“जो भक्तिध्य नहीं है, वह कभी नहीं होता है। और जो भवितव्य है वह होकर हो रहता है। भवितव्यताके न होमेपर हापमें रक्खी हुई चीज भी नष्ट हो जाती है।" और-- "जिस प्रकार गायका बछड़ा हजार गायोंमेंसे अपनी माको पहिचान लेता है। उसी प्रकार पूर्व जन्म में किया गया कर्म कर्साका अनुसरण करता है।" इसलिए हम भले ही अन्यत्र चले जायें, परन्तु जो होनहार है वह अवश्य होकर रहेगी। एक बात पोर । धीवरोंके कथनको सुनने मात्रसे हमें पिता-पितामह आदिसे उपाजित जलाशय न छोड़ देना चाहिए । इस दृष्टि से मैं तो आपलोगोंके साथ नहीं जाना चाहता।' यद्भविष्यको इस प्रकारको बात सुनकर वे दोनों साथी कहने लगे:-मित्र यद्भविष्य, यदि आप हमारे साथ नहीं पाते हैं तो इसमें हमलोगोंका कोई अपराध नहीं है। यह कहकर अनागत विधाता मौर प्रत्युत्पभमति नामके मत्स्य दूसरे बलास में चले गये। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] मदनपराजय प्रभात हुमा। मछली पकड़नेवाले' धीवर वहाँ पाये । जाल डाले गये। और अन्य मछलियोंके साथ. यभविष्यको पकड़कर वे ले गये। मित्रगण शिल्पकार से कहने लगे - इसलिए हम कहते हैं कि:मित्राणां हितकामानां यो वाक्यं नाभिनन्दति । तस्य नाशं विजानीयाद् पद्धयिष्यो यथामृतः ॥" "जो भपने हितैषी मित्रोंकी बात नहीं मानता है, उसकी यद्भविष्य के समान मृत्यु हो जाती है।" *४ एवं तेष प्रयाणां वचनं श्रुत्वा शिल्पि (ल्प.)कारोऽधीत-अहो, योधः तद्देशान्तर गत्वा हिचिव द्रव्योपाजनं क्रियते (येत) । कतिपयविनसपर्यन्तं स्वदेशे स्थातव्यम् । उत्तच"परदेशभयोद्धीता बह्वालस्याः प्रमादिनः ।। स्वदेशे निधनं यान्ति काकाः कापुरुषाः मृगाः ॥११॥" तथा च"कोऽतिभारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम् । को विदेशः सुविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ।।१२।।" मन्याच"न चैतद् विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्धयति । यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ।।१३।। यस्यास्ति बित्त स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणशः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।।१४॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वित्तीय परिच्छेद [ ५९ यस्यास्तिस्य मित्राणि, यस्यास्तिस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमाल्लोके, यस्यार्थाः स च जीवति ।१५। इह लोकेऽपि धनिनां परोऽपि स्वजनायते । स्वजनोऽपि दरिद्राणां तत्क्षणाद् दुर्जनायते ।।१६।।" तथा च“पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते । वन्द्यते यदवन्द्योऽपि तत् (स) प्रभावो धनस्य च ।।१७।। अर्थेभ्यो हि बृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य यतस्ततः । प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इथापगाः ।।१८।। अशनं चेन्द्रियाणां (नादिन्द्रियाणीव) स्युः कार्याण्य खिलान्यपि । एतस्मात् कारणाद्वित्त सर्वसाधनमुख्यते ॥२६॥" एवं तस्य वचममाकण्यं ते प्रोस:-भो मित्र, एवं भवति युक्तम् । एवं पर्या लोच्य चस्वारो देशान्तरं निर्जग्मुः । * ४ इस प्रकार तीनोंकी बात सुनकर शिल्पकारने कहायदि यह बात है तो हमलोगोंको देशान्तर में जाकर कुछ द्रव्योपार्जन करना चाहिए। अपने देश में तो कुछ दिन रहना ही ठीक है । नीतिकारोंका कथन भी है कि : "जो पुरुष परदेश जानेसे डरते हैं, अति प्रालसी और प्रमादो हैं वे पुरुष नहीं हैं, बल्कि काक, कापुरुष और मृग हैं। तथा अपने देशमें रहते-रहते ही उनको मृत्यु हो जाती है ।" अप च "शक्तिशालियोंके लिए क्या वस्तु भारभूत है और व्यवसाथियों के लिए क्या दूर है ? विद्वानोंके लिए क्या विदेश है और मधुर-भाषियों के लिए कौन पर है ?-कोई नहीं।" एक बात पौर Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..] मदनपराजय "संसारमें ऐसा कोई काम नहीं, जो धनसे सिद्ध न हो सके । इसलिए बुद्धिमान्को चाहिए कि वह प्रयत्नपूर्वक एक धनको ही संचित करे। •जिसके धन है, उसके मित्र हैं। जिसके धन है, उसके वधु हैं। जिसके धन है, वह लोकमें पुरुष है; और जिसके धन है, वही जीवित है। ___ संसारमें धनी पुरुषोंके लिए पराया भी आत्मीय जन-जैसा प्रतीत होता है । और दरिद्रोंके लिए अपना प्रादमी भी तत्काल दुर्जन-जसा मालूम देता है ।" और "जो अपूज्य भी पूजा जाता है, अगम्य भी गम्य होता है और अवन्ध भी वन्दित होता है-वह सब धनका प्रभाव है । जैसे पर्वतोंसे निकली हुई नदियोंसे अनेक काम लिए जाते हैं उसी प्रकार सब तरफसे सुरक्षित वर्धमान धनसे भी अनेक उपयोगी कार्य निकाले जाते हैं। घनसे पेट भरा जाता है और धनसे ही इन्द्रियोंके सब काम निकलते हैं । इसीलिए धन सबका साधन कहा गया है।" इस प्रकार शिल्पकारकी बात सुनकर अन्य साथी कहने लगेमित्र, पापका कहना बिलकुल ठीक है। हमें यही करना चाहिए । यह सोचकर वे चारों साथी देशान्तरके लिए चल पड़े। _ ५ अथ ते चरवारो यावत् गच्छन्ति तावदपराह्न मध्ये भयगुरमरण्यमेकं प्रापुः । अथ तस्मिन्नरण्यमध्ये शिल्पि(ल्प)कारेण तान् प्रति वचनमेतहभिहितम्-प्रहो, एवंविध भयङ्करं स्थानं रात्रिसमये वयं प्राप्ताः। तदेकेको यामो जागरणीयः । अम्पपा घोरण्याघ्राविभयात् किचिद्विघ्नं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद भविष्यति । अथ से प्रोत्र:-भो मित्र, युक्तमित्युक्त भवता । तववश्यं जागरिष्यामः । एवमुक्त्वा यस्ते सुप्ताः ।। ततोऽनन्तरं शिल्पि (रूप)कारो यावत् प्रथमं निजयाम जागति तावत् तस्य निद्राऽगन्तु लग्ना। ततोऽनन्तरं स निद्वाभञ्जनार्थ काष्ठमेकमानीय कण्ठोरयरूपं महाभासुराकारं सर्वावयबसंयुतं चकार । तदनु चित्रकारान्तिकमाययो शिल्पि(रूप)कारः। ततोऽब्रवीत-भो मित्र, निजयामजागरणार्थमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ । एवमुक्त्वा शिल्पि (ल्प)कारः सुप्तः । अथ चित्रकार स्थितः सन् यावत् पश्यति तावबग्ने दारमयं कण्ठीरवरूपं महारौद्रं घटितं वर्श । ततोऽववतअहो, अनेनोपायेनानेन शिस्पि(ल्प) कारेण निद्राभजन कुतम् । तदहमपि किचित् करिष्यामि । एवं भणित्वा हरितपोतलोहित कृष्णप्रभृतीन वर्णान् एषधुपरि उघृष्य राममयं कण्ठीरवरूपं विचित्रतषान् । ततोऽनन्तरं चित्रकारी मन्त्रसिजि(ब)सकाशमियाय । प्रोवाच भो मित्र, उतिष्ठोत्तिष्ठ शीघ्रम् । एवमुक्त्वा विषकारः सुप्तवान् । प्रय मन्त्रसिद्धो पावसिष्ठति तावत् सम्मुखं कण्ठीरघरूपं वारुमयं महारौद्र' सर्वावयवसम्पन्न जीवनमिय(वविध) विलोक्यातिभोतः। ततः प्रोवाच-अहो, इवानों कि कर्तव्यम् ? सर्वेषामग्र मरणमवश्यमागतम् । एवमुक्त्वा मन्दं मन्दं गरवा मित्राणि प्रत्याह-अहो, उरिष्ठत, उत्तिष्ठत । अस्या अटण्या मध्ये श्वापद मेकमागतमस्ति (श्वापदं एक मागतोऽस्ति) एवं तस्य कोलाहलमार्य त्रयस्त उस्थिताः । ततस्ते प्रोचुः भो मित्र, किमेवं व्याकुसर्यास ? प्रयासों Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] मनपराजय जजल्प-अहो, पश्यताहो पश्यत । एत (प्रयं) पदापर्व (दः) मपा मन्त्रेण कोलितम (लोऽस्ति । ततः सम्मुखं नायाति । तवाकण्यं ते विहस्य प्रोप:-भो मित्र, दारुमयं श्वापद मेनं कि न जानासि ? तस्मिन् दारुमये पंचानमरूपे मिविद्या प्रभाव प्रावास्यां दशितः। तच्छ त्वा मन्त्रसिद्धस्तदावमयं सिंह (मसिंह) समीपं गत्वा यावत् पश्यति तावदति ललन । ततः स मन्त्रसिद्ध आह-ग्रहो, प्रसानानेन सुवाभ्यामस्मिन् वारमये पंचाननरूपे निजविद्याकौशल्यं वशितम् । तबधुना मम विद्याकौतूहलं पश्यत । यदि जीव (व्य) मानमेनन करोमि तदहं मन्त्रसिद्धो न भवामि । एवं मन्त्रसिद्धवचनमाकर्ण्य बुद्धिमता वणिकपुत्रेणे मनसि चिन्तितम्-अहो, यदि कामपि जीव (व्य)मानमिदं करिष्यति तदहं दूरस्थितो भूत्वा सर्वमेतत् पश्यामि ! यसो मणिमात्रौषधीमामचिन्मयो हि प्रभावः । एवं चिन्तयित्वा यावद्गच्छति तावत् साबूचतुः-भो मित्र, कुतस्वं गति ? ततो वगिक प्राह-अहो, मूत्रोत्सां कृत्वाऽऽगमिष्यामि । एबमुक्त्वा यावद गमछति तावत् स वणिकपुत्रो वृक्षमेकं सम्मुखमहाक्षोत् । कथंभूतम् ? छायासुप्तमृगः शकुन्तनिवहैरालीढनीलच्छवः कोटेरावतफोटरः कपिकुलः स्कन्धे कृतप्रश्रयः । विश्रग्धो मधुर्वनिपीतकुसुमः श्लाघ्यः स एव द्रमः सर्वाङ्गबहुसस्वसङ्घसुखदो भूभारभूतोऽपरः ॥२॥ एवं विषं वृक्षमारुह्य तत् सर्वमपश्यत् । -. - . - -. . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ६३ ततोऽनन्तरं मन्त्रसिद्धों ध्यानसिद्धो भूत्वा मन्त्रस्मरणं कृत्वा तस्मिन् वादमये जीवकलां चिक्षेप । अथाऽसौ जीव (व्य ) मानो भूत्वा कृतघनघोरघर्थराट्टहास उच्चलित चपेट : खदिराङ्गारोपनेत्र उच्छलित ललितपुच्छच्छटाटोपोऽतिभयङ्करस्त्रयाणामभिमुखो भूत्वा यथासङ् खघ निपातिता: (तितवान् ) । अतोऽहं ब्रवीमि "वरं बुद्धिर्न" इत्यादि । * ५ चलते-चलते श्रपरालके समय वे किसी भयंकर जंगल में जा पहुँचे 1 जैसे ही वे इस भीषण अरण्य में पहुँचे, सन्ध्या हो प्रायो । उनमें से शिल्पकार कहने लगा---देखो, हम लोग रातके समय कैसे भयंकर में आ पहुँचे हैं । यहाँ हम लोगोंमेंसे प्रत्येकको एक-एक पहर तक जागरण करना चाहिए। अन्यथा चोर या व्यात्र प्रादि वन्य जन्तुसे कुछ अनिष्ट हो सकता है। अन्य साथियोंने शिल्पकारकी बासका समर्थन करते हुए कहा-मित्र, आप ठीक कह रहे हैं । हम लोगोंको एक-एक पहरतक अवश्य जागरण करना चाहिए। इस प्रकार कह कर वे तीनों साथी सो गये । पहला पहर शिल्पकारको जागरण में व्यतीत करना था । इसलिए नींद न आनेके लिए उसने एक लकड़ी लाकर महाभयंकर सर्वोपूर्ण सिंह तैयार किया । इतनेमें उसका जागरण काल समाप्त हो गया और वह चित्रकारको जगानेके लिए उसके पास गया श्रीर कहने लगा - मित्र, उठिये, अब आपके जगमेका समय हो गया है । इस तरह वह चित्रकारको उठाकर सो गया | चित्रकारने जागकर जैसे ही नजर पसारी तो उसे लकड़ीका महाभयंकर सिंह दिखलायी दिया। उसे देखकर और कुछ सोचकर चित्रकार कहने लगा- 'अच्छा, इस उपाय से शिल्पकार ने अपनी नींद तोड़ी है। अब मुझे भी कुछ नींद न लेनेका यत्न करना चाहिए ।' Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] मदनपराजय इस प्रकार सोचकर उसने उस सिंहको लाल-काले-पीले और नीले रंगोंसे चित्रित करना प्रारम्भ कर दिया। जब चित्रकार उस सिंहको इस प्रकार रंगानुरञ्जित कर चुका तो मन्त्रसिद्धिके निकट गया और बोला-मित्र, उठो-उठो, अब तुम्हारे अगनेका नम्बर मा गया है। इस प्रकार मन्त्रसिद्धिको जगाकर चित्रकार सो गया। मन्त्रसिद्धि जैसे ही उठा, उसने अपने साग एक महाभयंकर, सर्वागपूर्ण, जीता-जागता लकड़ीका सिंह देखा और इसे देखते ही वह डर गया। उसने सोचा - इस समय क्या करना उचित है। मालूम देता है, आज सबकी मौत आ गयी है। यह सोचते ही वह तुरन्त धीमी गतिसे मित्रोंके निकट पहुंचा और उनसे कहने लगा-मित्रों, उठिए, उठिए । जंगलमें कोई भयंकर जन्तु आ गया है। मन्वसिद्धिका कोलाहल सुनकर तीनों साथी उठ बैठे। वे कहने लगे--मित्र, आप हम लोगोंको व्यर्थ ही क्यों व्याकुल कर रहे हैं ? मन्त्रसिद्धि बोला-परे, देखिए तो यह सामनेका जन्तु, जिसे मैंने मन्त्रसे कीलित कर दिया है और जो इसी कारणसे आगे नहीं बढ़ पा रहा है । मन्त्रसिद्धिकी बात सुनकर उसके साथी हँस पड़े और कहने लगे-अरे मित्र, यह तो लकड़ीका शेर है | क्या तुम इतना ही नहीं पहचान सके। ये मागे कहने लगे-हम दोनोंने इस लकड़ीके केसरोमें अपनी विद्याका चमत्कार दिखलाया है। यही कारण है जो तुम इसे सजीव सिंह समझ बैठे । मित्रोंकी बात सुनकर मन्त्रसिद्धि उस लकड़ीके सिंहके पास गया और उसे वास्तविक लकड़ीका शेर पाकर बहुत लज्जित हुमा । वह अपने साथियों से कहने लगा-मित्रों, इस लकड़ीके शेरमें प्रसंगानुसार प्राप लोग तो अपनो विद्याका चमत्कार दिखला चुके हैं । अब मेरो विचाका भो चमत्कार देखिए । अपने विद्या-बलसे मैं इसे जीवित न कर दूं तो मैं मन्त्रसिद्धि ही किस कामका ? Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद . [ ६५ मन्त्रसिद्धिकी बातका अन्य मित्रोंने तो खयाल नहीं किया लेकिन वणिकपत्रके मनमें उसकी बात समा गयो। उसने सोचा, कदाचित् मन्त्रसिद्धिने इस लकड़ी के शेरको जीवित कर दिया तो महान् अनिष्ट उपस्थित हो जानेको आशङ्का है। इसलिए मुझे दूर रहकर ही इस घटनाका निरीक्षण करना चाहिए । क्योंकि मणि, मन्त्र और प्रौषधियोंका अचिन्त्य प्रभाव हुमा करता है । इस प्रकार सोचकर जैसे हो वणिकपुत्र यहांसे चलने लगा, उन दोनों मित्रोंने उससे पूछा- मित्र कहां जा रहे हो ? वणिकपुत्रने उत्तरमें कहा-मैं लघुशङ्का करने जा रहा हूँ। अभी प्राता हूँ। इतना कहकर जसे ही वरिणकपुत्र वहांसे चला, उसे सामने एक वृक्ष दिखलायी दिया--- "उस वृक्षकी छाया मृग सो रहे थे, पत्तोंमें पक्षियोंने घोंसले बना रखे थे, खोखलोंमें कीड़े निवास कर रहे थे, शाखाओंपर बन्दर डेरा डाले हुए थे और भ्रमर जिसके कुसुम-रसका पान कर रहे थे। वरिणकपुत्रने इस वृक्षको देखकर कहा - वास्तवमें इस प्रकारके वृक्षका हो जन्म सार्थक है, जो अपने सर्वांगसे अनेक प्राण-धारियोंको सुख दे रहा है। अन्य प्रकारके वृक्ष, जिनसे किसी भी सचेतन का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, पृथ्वी के लिए केवल भार-स्वरूप ही हैं।" इस तरह विचारकर परिणकपुत्रने अपनी निद्रा भंग कर दी. और वृक्षपर चढ़कर मन्त्रसिद्धि के क्रिया-काण्डको देखने लगा। - तदुपरान्त मन्त्रसिद्धि ध्यानारूढ़ होकर मन्त्रका जाप करने लगा और इस प्रकार उसने इस काष्ठमय शेर में जीवन डाल दिया। शेर जीवित हो गया। उसने मेधकी तरह भयंकर गर्जन और अट्टहास किया। नेत्रों को पलाशके अङ्गारेको तरह लाल किया । और अपनी एक हो उछाल में पूछको हिलाता हुआ वह तीनोंके सामने आ गया और तीनों को मारकर गिरा डाला। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] मवनपराजय मोह कामसे कहने लगा-इसलिए मैं कहता हूँ"घरं बुद्धिन सा विद्या विद्याया घोगरीयसी । बुद्धिहीना विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ।।" "विद्या से बुद्धि अधिक गुरु है--मन्नत् है। बुद्धिहीन मनुष्य उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सिंह बनानेवाले वे तीन पण्डित ।" ६ तवाम गामा भो सोह, सत्यमिदमुक्त भवता । बुद्धचा विना किचिन्न भवति । परमेतत् पृच्छामि यत्त्वया सैन्यमेलनं कृतं सविहानौतमस्ति नो वा ? सतो मोहः प्राह-हे देव, मया सैन्य समूहं कृत्वा परिवार प्रत्येतवभिहितम-परे, याववहं स्वाम्यादेशं गृहीत्वाऽऽगमिष्यामि, ताव वद्धिरत्रव स्थातव्यम् । एवमुक्त्वा सव पार्थे समागतोऽहम् । तदिवानी तपादेशः प्रमारणम् । एतद्वचनं श्रुत्वा परमं सम्तोषं गत्वा मदनस्तं मोहमालिङ्गय प्रोवाच-मोह, स्वमेबस्मिकं सचिवः । सर्वमेसट्राज्य त्वया रक्षणीयम् । तत् किमेतग्मां पृच्छसि ? प्रत्ते प्रतिभासते तदनश्यं कर्तव्यं स्वया । उक्त पत: “मन्त्रिणां भिन्नसन्धाने भिषजां सन्निपातके । कर्मणि युज्यते प्रज्ञा स्वस्थे वा को न पण्डितः ॥२०॥" तच्छत्वा मोहोऽवोचत् देव, यद्येवं तदादो यावत् संन्यमागच्छति तावद्दतः प्रस्थाप्यते । उक्त च "पुरा दूतः प्रकर्त्तव्यः, पश्चाद् युद्धं प्रकारयेत् । तस्माद् दूतं प्रशंसन्ति नीतिशास्त्रविचक्षणाः ।।२१॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद दूतेन सबकं सैन्यं निर्बलं ज्ञायते ध्वम् । सैन्यसंख्या च दुलेन दूतात् परबलं प्रभोः ॥२२॥" * ६ इस घटनाको सुनकर मकरध्वज कहने लगा- मोह, तुमने बिलकुल सच कहा है, बुद्धिके बिना कुछ नहीं हो सकता। लेकिन मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुमने जो सैन्य-संमेलन किया है, उसे यहां लाये हो या नहीं ? उत्तरमें मोक्ष कहने लगा-क्षेत्र, मैंने सत्य संमेलन करके उससे यह कह दिया है कि मैं स्वामीकी आजा लेकर सभी पाता हूँ। प्राप तबतक यहीं ठहरिए ।' इस प्रकार कहकर मैं आपके पास चला पाया हूँ । अब आप जो भाज्ञा दें. मैं उसका पालन करने के लिए प्रस्तुत हूँ । मोहकी बात सुनकर मकरध्वजको बड़ा संतोष हुआ । उसने मोहको अपनी छातोसे लगा लिया और कहने लगा मोह, तुम्हीं तो हमारे मन्त्री हो। इस समस्त राज्यको तुम्हें हो रक्षा करनी है। इसलिए इस समय मुझसे क्या पूछते हो ? जो तुम्हें उचित मालूम दे, करो । नीतिज्ञोंने कहा भी है:--- __ "जब राज्यपर मंभोर संकट उपस्थित होता है तब मन्त्रियोंकी बुद्धिको परीक्षा होती है. मौर सन्निपात होने पर वैद्योंकी। स्वस्थ अवस्थामें तो सभी कुशल कहलाते हैं।" मकरध्वजको बात सुनकर मोहने कहा-महाराज, प्राप ठीक कह रहे हैं। फिर भी सेनाके आने के पहले हमें दूत भेजना चाहिए । कहा भी है:--- 'पहले दूत भेजना चाहिए और फिर युद्ध करना चाहिए । नोतियास्त्रके पंडित दूतकी इसीलिए प्रशंसा करते हैं। वस्तुत. दूतसे हो सेनाकी सबलता और निदलताका पता चलता है । और सेनाको संख्याका ज्ञान भी दूतसे ही होता है। इसलिए दूत राजाके लिए बड़ा भारी वल है।" Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] मदनपराजय .७ प्रथ काम: प्राह-हे मोह, युक्तमेतत् त्वयोक्तम् । युक्तो दूतः प्रक्रियते(येत) । स पाह-देव, रागषाविमापाहूय दूतत्वं दीयते । कामः प्राह-हे मोह, रागद्वषो दूतत्वे कुशलौ भवतः किम् ? स मोह पाह-देव, इमो वञ्चयित्वा कावन्यो दूतबरौ तिष्ठतः ? उक्तश्न"एतावनादिसम्भूतौ रागद्वेषौ महाग्रही । अनन्तदुःखसन्तानप्रसूतेः प्रथमाङ कुरौ ॥२३॥" तथा च"स्वतत्त्वानुगतं चेतः करोति यदि संयमी । रागादयस्तथाप्येते क्षिपन्ति भ्रमसागरे ॥२४॥" सथा च"अयलेनापि जायेते चित्तभूमौ शरीरिणाम् । रागद्वेषाविमौ वीरौ ज्ञानराज्याङ्गघातको ॥२५।। क्वचिन्मूढं क्वचिद्भ्रान्तं क्वचिद्भीतं क्वचिद्रतम् । शङ्कितञ्च क्वचित् क्लिष्टं रागाद्यैः क्रियते मनः।२६।" एवं रागद्वेषयोः पौरुषमाकर्ण्य तो द्वावाहूय निजाणवसनाभरणवानेन प्रमूतसम्मानौ कृत्वा वचनमेतदभिहितं मकरध्वजेन-अहो, युवयोर्दू तत्वं किचिवस्ति; तत् कर्तग्यम् । अथ तो रागषाबूचतुः करिष्यावोऽवश्यम् । देवः कथयतु । ततः स काम आचष्टे-ग्रहो, तधुवाभ्यां चरित्रपुरं गस्वा जिनेश्वरं प्रत्येवं वक्तव्यम्-भो जिन, यदि स्वं सिद्धपङ्गानापरिणयनं करोषि तत त्रैलोक्य मल्लस्याज्ञाऽस्ति । अन्यच्च पदस्माकं त्रिभुवनसारं रत्नत्रयं न वदासि तनभाते सकल Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ६९ सैन्यसमन्वितो रतिनाथः समागमिष्यति । एवमुक्त्वा तो प्रस्थापयामास । ७ मकरध्वज ने कहा- मोह, तुमने बहुत उपयुक्त बात सुकायी है । लेकिन दूत कार्य कुशल होना चाहिए । मोने कहा -- महाराज, राग और द्वेषको बुलवाइए और इन्हें दूतत्वका भार समर्पित कीजिए । काम कहने लगा - मोह. क्या राग और द्वेष सफलता के साथ तत्वका निर्वाह कर सकेंगे ? 4 मोहने कहा- स्वामिन्, राग-द्वेषको छोड़कर और कौन प्रशस्त दूत हो सकता है ? ये दूतत्व के लिए बहुत सुयोग्य है। कहा भी है : "राग और द्वेष अनादिकालीन महान् ग्रह हैं और ये ही अनन्त दुःख-परम्परा के प्रथम श्रड कुर हैं ।" और "यदि संयमी अपनी चित्तवृत्तिको प्रत्माभिमुख करता है तो भी राग और द्वेष उसे भवसागरमें डुबोते हैं ।" तथा "ये राग और द्व ेष देहधारियोंके मनमें अनायास ही हो जाते हैं । ये महान् बीर हैं और ज्ञानराज्य के समूल विध्वंसक हैं । राग और द्वेष मनको कहीं भुलाते हैं, कहीं भ्रमाते हैं। कहीं डराते हैं कहीं रुलाते हैं। कहीं शंकित करते हैं और कहीं दुख देते हैं ।" कामने राग और द्वेषका इस प्रकारका विक्रम वर्णन सुनकर उन्हें बुलवाया और अपने शरीर के वस्त्र और आभूषण देकर उनका खूब सम्मान किया। तदुपरान्त उनसे कहा- क्या श्राप लोग कुछ दूतकार्य कर सकते हैं ? राग-द्रष कहने लगे-देव, कहिए क्या आज्ञा है ? हम श्रवश्य उसका अनुपालन करेंगे । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] मक्सपराजय काम कहने लगा-- यदि प्राप इत-कार्य कर सकते हैं हो चारिवपुरमें जाकर जिनेश्वरको कहिए कि-भो जिन, सिद्धि-अङ्गनाके साथ जो तुम विवाह करने जा रहे हो सो क्या तुम त्रैलोक्यके स्वामी कामदेवको प्राज्ञा ले चुके हो ? साप ही यह भी कहना कि वह त्रिभुवनके महान् मूल्यवान तीन रत्न वापिस दे दे। अन्यथा प्रभात समय कामदेव समस्त सेनाके साथ उसके ऊपर बढ़ पायेंगे। ____ इस प्रकार कामने राग और द्वेषको दूतत्वका भार सौंपकार अपने यहाँसे विदा कर दिया । * अथ तो तेन विषममागंण गच्छन्ती याग्जिननाथस्थानं सम्प्राप्ती तावदतिक्षीणो बभूवतुः। ततस्तो द्वारस्थितो हष्ट्वा सज्वलनोऽप्राक्षीत-प्रहो किमयं जिनपावें युवाम्यामागमनं कृतम् ? अथ तावूधतुः-- __ भो सम्वलन, स्वास्यादेशात दूसस्वार्थमावास्यामत्रागमनं कुतम् । ततः संज्वलनो बभाषे-महो भवरखेवं परं किन्तु (परन्तु) युवाभ्यां वीरवृत्ति त्यक्त्वा किमेत दूतस्वं कृतम् ? अप तावूचतुः-हे संज्वलन, स्वं किचिम्न वेसि । स्वाम्यावेगः सेवक्रेन कृत्योऽयमाऽवत्सः परन्तु कर्तव्यः, यतोज्यथा राजप्रियो न भवति । उक्तश्च"यो रणं शरणं यद्वन्मन्यते भयजितः । प्रवासं स्वपुरावासं स भवेद्राजवल्लभः ।।२७।। न पीड्यते यः क्षुधया निद्रया यो न पीडयते । न च शीतातपाद्यश्च स भवेद्राजबल्लभः ॥२८॥ न गर्धं कुरुते माने नापमाने च रुष्यति । स्वाकारं रक्षयेद्यस्तु स भवेद्राजवल्लभः ॥२६॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ७१ ताडितोऽपि दुरुक्तोऽपि दंडितो पि महीभुजा । यो न चिन्तयतें पापं स भवेद्राजवल्लभः ||३०|| माहूतीऽपि समभ्येति द्वारे तिष्ठति यः सदा । पुण्यः सत्यं कि भूतेयेद्राजवल्लभः ॥३१ ॥ युद्धकलिंऽग्रेगः सर्वः सदा पृष्ठानुगः पुरे । प्रभुद्वाराश्रिती हयें स भवेद्राजवल्लभः ||३२|| प्रभुप्रसादजं वित्त सुपात्रे यो नियोजयेत् । वस्त्राद्यञ्च दधात्यङ्ग स भवेद्राजवल्लभः ||३३|| " अन्यच्च भो संज्वलन, सेवाधर्मोऽयं महादुःसहों भवति । उक्त मतः "सेवया धनमिच्छद्भिः सेवकः पश्य यत् कृतम् । स्वातन्त्र्यं यच्छरीरस्य मूर्दस्तदपि हारितम् ॥३४॥" तथा च "जीवन्तो पि मृताः पञ्च प्राहुरेवं विचक्षणाः दरिद्री व्याधितो मूर्खः प्रवासी नित्यसेवकः ||३५|| " अन्यचच- "बरं वनं वरं भैक्ष्यं वरं भारोपजीवितम् । पुंसां विवेकतत्त्वानां सेवया न च सम्पदः ॥३६॥" तथा च "वरं वनं सिंहगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयं पक्वफलाम्बुभोजनम् । तृणेषु शय्या वरजीर्णवल्क न सेवके राज्यपदादिकं सुखम् ||३७|| " Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ । मदनपराजय तथा च "प्रणमत्युग्नतिहेतोर्जीवितहेतोविमुञ्चति प्राणान् । दुःखीयति सुखहेतोः को मूर्खः सेवकादपरः ॥३८॥" अन्यत्र"भावैः स्निग्धैरुपकृतमपि द्वेषितामेति कश्चित् साध्यादन्यरपकृतमपि प्रीतिमेवोपयाति । दुर्ग्राह्यत्वान्नृपतिवचसां नैकभावाश्रयाणां सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥३६॥" तथा च"मौनान्मूक: प्रवचनपटुर्वातुलो जल्पको वा, धृष्टः पार्वे भवति च तथा दूरतश्च प्रमादी । क्षान्त्या भीर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजात:, सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥४०॥" * ८ राग और द्वेषको जिनराजके स्थानपर पहुँचने के लिये प्रत्यन्त विषम मार्गसे जाना पड़ा और वहाँ पहुँचते-पहुँचते वे अत्यन्त क्षीण और निष्प्रभ हो गये। अंतमें ये संज्वलनके पास पहुंचे औस कहने लगे-मित्र संज्वलन, तुम हम लोगोंको किसी प्रकार जिनराजके पास पहुंचा दो। ___ संज्वलन कहने लगा- तुम लोग जिनराजके पास किसलिए पाए हो? राग-द्वेष कहने लगे-अपने स्वामीकी आज्ञापालन करने के लिए हम लोग यहां पाए हैं। संज्वलन फिर कहने लगा-पहले यह तो बताओ, तुमने अपनी वीर-वृत्ति छोड़कर यह दूत-कार्य क्यों अङ्गीकार किया ? १ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ७३ राग-द्वेष बोले-संज्वलन. तुम बिलकुल मूर्ख हो ! स्वामीकी माझा, चाहे वह अच्छी हो या बुरी, अवश्य शिरोधार्य होनी चाहिए । अन्यथा भृत्य राज-प्रिय नहीं हो सकता । नीतिकारोंका कथन है कि: "जो भृत्य निडर होकर रणको भी शरण समझता है, मोर परदेशमें रहनेको स्वदेश आवासके तुल्य मानता है, वह राजाके लिए स्नेह पात्र होता है। ____ जो भूत्य क्षुधा, नोंद, सर्दी और गर्मीसे उविग्न नहीं होता है, बह राजाके लिए प्रेम-पात्र होता है। जो सम्मानके प्रसङ्गपर गर्व नहीं करता है, अपमानित होनेपर अपमानका अनुभव नहीं करता है और अपने बाह्य आकारका गोपन करता है उससे राजा स्नेह करते हैं। __ जो भृत्य राजाके द्वारा ताड़ित होनेपर भी, दुतकारे जाने पर भी, दण्डित होने पर भी उसके सम्बन्धमें पाप नहीं सोचता है, वह राजाका स्नेह-भाजक होता है। जो भृत्य बिना बुलाये भी सदा राज-द्वारमें उपस्थित रहता है और प्रश्न किये जाने पर सत्य और परिमित बोलता है वह राजाके लिए प्यारा होता है। ___ जो भृत्य सदा युद्धकाल में राजाके आगे चलता है. नगरमें पीछे चलता है और भवनपर उसके दरवाजे पर उपस्थित रहता है, वह राजाका प्रिय पात्र कहलाता है ।" साथ हो, "जो भृत्य प्रभुके प्रसादसे प्राप्त हुए धनको सुपात्र में लगाता है मौर वस्त्र आदिको शरीरमें पह्निता है, वह राजाके स्नेहका पात्र कहलाता है।" अथ च, संज्वलन, यह सेवा धर्म अत्यन्त कठिन काम है। कहा भी है : Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] मराज "देखो, सेवा-वृत्तिसे धन कमाने वालोंने क्या नहीं किया ? सब कुछ किया । अरे, इन भूखोंने, और तो क्या, शरीरको स्वतन्त्रता भी बेच डाली !" अथ च, ___विज्ञान कहते हैं कि ये पाँच प्राणी जीवित होने पर भो मृतकवत् हैं -दरिद्रो, व्याधि-ग्रस्त मूर्ख, प्रवासी और नित्य सेवा करने वाला ।" तथा, ___ "वनवास उत्तम है, भिक्षा मांगना उत्तम है। भार होकर जोविका चलाना उत्तम है। किन्तु विवेकी पुरुषोंका यह कर्तव्य नहीं है कि वे सेवा-वृत्तिसे द्रव्य जपार्जित करें।" और ___"सेवा करनेवालेको छोड़कर अन्य कोई ऐसा मूर्ख नहीं है जो उन्नति के लिए प्रणाम करता है, जीवन के लिए प्राणों सफ का उत्सर्ग करता है और सुख के लिए दुःख उठाता है ।" इसी प्रकार "यदि सेवक राजाओंको विविधमुख भाव-भङ्गिमाको नहीं समझता है, तो वह कभी स्निग्ध भाबमे काम करनेपर भी राजाका अप्रीति-पात्र बना रहता है और कभी राजाका अपकार करनेपर भी स्नेह-पात्र माना जाता है। इस तरह यह सेवा-धर्म इतना दुर्बोध है कि पहुँचे हुए योगी भी इसे ठीक तरहसे नहीं समझ पाते।" तथा "सेवक यदि मौन रहता है तो लोग उसे गूगा कहते हैं । यदि बह बात करने में चतुर है तो उसे बकवादी और असम्बद्ध प्रलापी कहा जाता है। यदि वह स्वामीके निकटमें रहता है तो घृष्ट कहलाता है और यदि दूर रहता है तो प्रालसी कहा जाता है। यदि क्षमाशील है तो भीरु कहलाता है और अनुचित बातको सहन नहीं करता है तो कुलोन नहीं कहलाता है। इस प्रकार सेवा-धर्म इतना दुर्बोध है कि पहुंचे हुए साधु भी इसे विधिवत् नहीं समझ सके हैं ।" . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ७५ *६ एवं तवाकप संज्वलनोऽसवोत्-अहो, पुक्तमेत. दुक्त' भवद्भधाम् । सेवाधर्म एवंविधो भवति । एवं तक्दिानी कि प्रयोजनम् ? तत् कथ्यताम् । अतस्तो राग षावचतु:भो संज्वलन, जिनेन सह दर्शनं यथा भवति तथा त्वं कुरु । एवं श्रुत्वा सम्बलनः सचिन्तो भूत्वाबवीत-ग्रहो, करिष्याम्येवम् । परन्तु युवयोमिनदर्शनं शुभतरं न भविष्यत्येवं मे प्रतिभासते । यतोऽयं जिनराजो मदननामाऽपि न सहते । तयां दृष्ट्वा किचिद्विघ्नं करिष्यति । तन्महाननर्यो भविध्यति । एवं तदाक तौ रागषो कोपं गत्वा प्रोचतु:भो संज्वलन, साधु साधु त्वमस्माकं सुहत्, तत् त्वंच योवं बदसि तद्विज्ञाप्यं केन कर्तव्यम् ? तदभ्यागतेभ्यो वक्त मेवं युज्यले ? उक्त च"एह्यागच्छ समाश्रयाऽऽसनमिदं कस्माच्चिराद् दृश्यसे, का वार्ता त्वतिदुर्बलोऽसि कुशली प्रीतोऽस्मि ते दर्शनात् ।। एवं नीचजनेऽपि कत्तु मुचितं प्राप्ते गृहे सर्वदा, धर्मोऽयं गृहमेधिना निगदितः प्राज्ञलघुः शर्मद: ॥४१।। दृष्टि दधान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्पुनः पुनः । उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः ॥४२॥" तथा च"ते धन्यास्ते विवेकज्ञास्ते प्रशस्या हि भूतले । आगच्छन्ति गृहे येषां कार्यार्थे सुहृदो जनाः ।।४३।।" एतवाकये संज्वलनोऽवोधत-ग्रहो, युष्मद्धितार्थमेतन्मयोक्तम् तखुवयोषार्थमवगमितम् । तदहं स्वामिनं पृष्ट्वाऽऽगमिष्यामि । उक्त च यतः Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] " लभ्यते भूमिपर्यन्त समुद्रस्थ गरेरपि । न कथचिन्महीपस्य चित्तान्तं केनचित् क्यचित् ॥४४|" मदनपराजय ततस्तामुक्तवन्तौ हे संज्वलन, एवं भवतु । परन्तु त्वया विषावयोरशुभं न ग्राह्यम् । सर्व क्षमितव्यम् । एवं श्रुत्वा संज्वलनोऽवोचत् ग्रहो युवाभ्यां गृहमेधिनां धर्म एवंविधोऽभिहितस्तत्र किमशुभं ग्रहोष्यामि ? * राग-द्वेषको इस प्रकार युक्तिसंगत बात सुनकर संज्वलनने कहा---' आपने सेवा-धर्मका बहुत वास्तविक चित्रण किया है । सचमुच सेवाधर्म इसी प्रकार परम गहन है । पर यह तो बतलाइए, आप यहाँ किस प्रयोजनसे प्राये हुए हैं ? संज्वलनकी बात सुनकर राग-द्वेष कहने लगे - संज्वलन, जिस तरह बने श्राप हम लोगोंको जिनराजका साक्षात्कार करा दीजिए । हम उन्हींसे मेंट करने आये हैं । P संज्वलन राग-द्व ेषकी बात सुनकर चिन्तामें पड़ गया और कहने लगा-- मित्र, मैं जिनराजके दर्शन करा तो सकता हूँ, लेकिन मुझे मालूम दे रहा है कि जिनराज से भेंट करना आपके हित में अच्छा न होगा । कारण यह है कि जिनराज कामका तो नाम ही नहीं सुनना चाहते हैं। फिर भेंट होनेपर कदाचित् उनके द्वारा प्रापका कुछ अहित हो गया तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा । संज्वलनकी बात सुनकर राग-द्वेष कहने लगे - मित्र, आपका कहना बिलकुल यथार्थ है । पर मित्र होकर भी जब आप इस प्रकार - की बात कह रहे हैं तो ग्राप हो बतलाइए. फिर हम किससे प्रार्थना करें ? इस समय हम प्रापके अभ्यागत हैं और अभ्यागतोंकी प्रार्थना तो अवश्य हो सुनी जानी चाहिए। नीतिज्ञों ने कहा भी है : Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद । ७७ "प्रत्येक गृहस्यका यह कर्तव्य है कि भले ही उसके घर निम्न श्रेणोका आदमो क्यों न पावे वह उसके साथ इस प्रकारका सुखद और सोमित व्यवहार अवश्य करे - पाइए, पाइए। इस प्रासनपर बैठिए। आप तो बहुत दिनों में दिख रहे हैं। क्या बात है ? आप तो बहुत दुर्बल हो गए हैं ? आपके दर्शनसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। गृहस्थको चाहिए कि वह अभ्यागत की भोर प्रसन्न नेत्रोंसे देखे, मन और वारणोकी प्रवृति उसकी ओर लगावे और उठकर उसे आसन दे । स्वागतको यही प्राचीन परम्परा है ।" और "संसार में ये पुरुष धन्य हैं, विवेकी हैं और प्रशंसनीय हैं, जिनके घर मित्रजन किसी-न-किसी कार्यवश निरन्तर आते रहते हैं।" यह सुनकर संज्वलन कहने लगा-मित्र, मैंने तो आपके हितकी बात बतायी थी। आपने उसे द्वेष-गभित समझ लिया। प्रस्तु, मैं अभी स्वामीसे पूछकर पाता हूँ। नीतिकारोंका कथन है पृथ्वीका, समुद्रका और पहाड़का तो अन्त मिल सकता है; पर राजाके चित्तका पता कोई कभी भी नहीं आन सका है।" राग-द्वेष कहने लगे-अच्छी बात है, मित्र, पाप स्वामीके पास जाइए । पर यह तो बतलाइए, आप हमारी बातको अनुचित तो नहीं मान गये ? यदि यह बात हो तो हमें क्षमा कर दीजिए । राग-द्वेषकी बात सुनकर संज्वलन कहने लगा-मित्र, आपने तो यह गृहस्थश्चम की व्याख्या भर की है। इसमें बुराईकी क्या बात ? * १० एवमुक्त्वा संज्वलनो जिनपार्षे गस्वेदमवा. दोत्-देव देव, मकरध्वजस्य दूतयुगलमागतमस्ति, तदि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] मदनपराजय देवादेशो भवति तदस्वस्तरमानेष्यामि । एवं तद्वचनं श्रुत्वा परमेश्वरेणोश्चलित करेण 'प्रागन्तु देहि' इत्युक्तम् । एवं जिनवचनमाकर्ण्य सज्वलनो यावद्गच्छति तावत् सम्यपश्येनोक्तम् श्ररे संज्वलन, किमेवं चिकीर्षसि ? यत्र निगोपशमादयो वीरास्तिष्ठन्ति तत्र रागद्वेषयोनं कुशलम् । स व्रते - अहो, भवत्वेवम् परमनयोर्लोकत्रय विदितबलप्रसिद्धिः । ततो दचं व्रतत्वार्थकुशलम् ? एवं द्वयोर्वचनमाकर्ण्य परमेश्वरः प्रोवाच ग्रहो परस्परं किमनेन विवादेन ? यतो मया प्रभाते ससैन्यमदनो बन्धनीयोऽस्ति । तदूतयुगलस्याभ्यन्तरे प्रवेशो दीयते (येत ) किं बहु विस्तरेण ? तच्छ त्वा संज्वलन उभावभ्यन्तरं प्रवेश्य जिनसकाशमानीतवान् । श्रथ जिनेन्द्र पोठत्रयाधिष्ठितं शुभ्रातपत्रत्रयोपशोभितं चतुःषष्ठि चामरवोज्यमानं भामण्डलले असोपशोभितं प्राप्तानन्तचतुष्टयं कल्याणातिशयोपेतं दृष्ट्वा नमश्चक्रतुः [: । तयोर्मध्ये एकेन नमस्कारः कृतः । प्रथ तौ समीपमुपविश्य प्रचलुः- भो स्वामिन्, अस्मत्स्वाम्यादेश: श्रूयताम् । यान्यस्माकं त्रिभुवनसाराण्यनर्धारि रत्नानि स्वयाऽऽतीतानि तानि सर्वाणि दातव्यानि । श्रन्यच्च यदि त्वं सिद्धयङ्गनापरिणयनं करोषि तसे त्रैलोक्य मल्लस्य आज्ञास्ति ? अन्यच्च, हे देव, यदि त्वं सुखमिच्छसि तहि कामं सेवित्वा सुखेन तिष्ठ यतस्तस्य प्रसादात् कस्यचिद्रस्नोऽप्राप्तिर्नास्ति । उक्तं च "कर्पूरकुङ कुमागुरुमृगमदहरिचन्दनादिवस्तुनि | मदनी यदा प्रसन्नो भवन्ति सौख्यान्यनेकानि ॥ ४५ ॥ | " Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ७९ तथा च"धवलान्यातपत्राणि वाजिनश्च मनोरमाः । सदा मत्ताश्च मातङ्गाः प्रसन्नो मदनो यदा ।।४६॥" तत्त्वयाऽवश्यं सस्य सेवा कियते (येत) । तथा त्र सेवा यस्य कृता सुरासुरगणेश्चन्द्रार्कयक्षादिकः गन्धर्वादिपिशाचराक्षसगरीविद्याधरः किन्नरः । पासाले धरणीधरप्रभृतिभिः स्वर्गे सुरेन्द्राविकः ब्रह्मा (वेधो-) विष्णुमहेश्वररपि तथा चान्मनरेन्द्र रपि ॥३॥ तदवश्यं तेन मकरध्वजेन सह मैत्री करणीया, न च शत्रुस्थम यतोऽयं मनो महाबलवान तत्कदाचिवबसरे ऋद्धो भविष्यति, तदा किचिन गणयिष्यति । अन्यच्च पातालमाविशसि यासि सुरेन्द्रलोकमारोहसि क्षितिषराधिपति सुमेरुम् । मन्त्रौषधः प्रहरश्च करोषि रक्षा मारस्तथाऽपि नियतं प्रणिण्यात स्वाम् ॥४॥ तथा च एष एव स्मरो वीरः स चकोऽचिन्स्य विक्रमः । अवजयव येनेदं पादपोठोकृतं जगत् ॥५॥ एकाक्याप जयत्येष जोवलोकं चराचरम् । ममोभूर्भङ्गमानीय स्वशक्त्याऽन्याहतक्रमः ।।६।। तथा चपोजयत्येव निःशको मनोभूर्भुवनप्रयम् । प्रतीकारशतेनापि यस्य भङ्गो न भूतले ॥७॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] मदनपराजय प्रन्यच्चहामस्यामाई लामो हम हाविषम् । स्यात्पूर्व मप्रतीकारं निष्प्रतीकारमुत्तरम् ॥८॥ न पिसाबोरगा रोगा न वेत्यग्रहराममाः । पोडयन्ति तथा लोक पपाऽयं भवमज्वरः ॥६॥ न हि क्षणमपि स्वस्पं चेतः स्वप्नेऽपि जायते । मनोभवशरवातभित्रमान शरीरिणाम् ।।१०।। जानन्नपि न जानाति पश्यप न पश्यति । लोकः कामानलज्यालाकलापकवलीकृतः ।।१।। अन्याचसिक्तोऽप्यम्बुधरवातः प्लाक्तिोऽप्यम्बुराभिः । न हि त्यजति सन्तापं कामवह्निप्रदीपितः ॥१२॥ तथा च तावद्धचे प्रतिष्ठा परिहरति मनश्चापलंचंब तावतावरिसद्वान्तसूत्रं स्फुरति हृषि पर विश्व तत्त्वकदीपम् । सोरापारवेलावलयविलसितैर्मानिनीनां फटाक्षविनो हत्यमानं कलयति हक्य बोर्धबोलायतानि ।१३। यासां सीमन्तिनीना कुरवकतिलकाशोकमाकन्ववृक्षाः प्राप्योच्चविक्रियन्ते ललितभुजलतालिङ्गानादीन् विलासान् । तासां पूर्णेन्दुगौरं मुखकमलमलं वोक्ष्य लीलालसाढचको योगी यस्तवानों कलयति कुशलो मानसं निर्विकारम् ॥१४॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [८१ तथा चइह हि वदनकंज हावभावालसाउथ मृगमदललिताङ्क विस्फुरद्म विलासम् । क्षणमपि रमणीना लोचनैर्लक्ष (क्ष्य)माणं जनयति हृदि कम्पं धैर्यनाशंच [साम् ।।१५।। तरिकमनेन बहुप्रोक्त न यदि स्वमात्मनः सुखमिच्छसि तत्तस्य मकरध्वजस्य सेवां कुरु। किमेतत् सियङ्गनामात्र परिष्यसि ? * १० इस प्रकार कहकर संज्वलन जिनराजके पास गया और कहने लगा-देव, देव, कामके दो दूत पाये हुये हैं यदि आप प्राज्ञा दें तो उन्हें अन्दर ले आऊँ। संज्वलनकी बात सुनकर परमेश्वरने हाथ के संकेतसे उससे कहा कि आने दो। जिनराजकी बात सुनकर सज्वलन राग-द्वेषको बुलाने जा ही रहा था कि इतने में सम्यक्त्वने कहा-परे संज्वलन, यह क्या कर रहे हो ? जहाँ निवंद और उपशम आदि वीर योद्धा मौजूद हैं वहाँ रागद्वेषकी किस प्रकार कुशल रह सकती है ? संज्वलनने कहा-जो हो, परन्तु राग-द्वेषका बल भी तो तीनों लोकमें प्रसिद्ध है। फिर अभी तो ये केवल दूत-कार्य ही सम्पादित करने पाये हैं। इसलिए इस समय इनकी कुशलता और अकुशलताका तो कोई प्रश्न ही नहीं है। संज्वलन मोर सम्यक्त्वको इस चर्चाको सुनकर परमेश्वर जिनराज कहने लगे-अरे, आप लोग आपस में क्यों विवाद कर रहे हैं ? प्रातः मुझे स्वयं सैन्यसहित मकरध्वजको पराजित करना है । इसलिए अधिक क्या, दोनों दूतों को भीतर माने दीजिए । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] मदनपराजय जिनराजको आज्ञा पाते ही संज्वलन राग-द्वेषको जिनराज के पास ले आया । वहाँ आकर राग-द्वेषने देखा कि जिनराज सिंहासनपर विराजमान हैं, उनके सिरपर तीन शुभ्र छत्र लटक रहे हैं, चौंसठ चामर दुर रहे हैं, भामण्डल के प्रभा-पु जसे वह दमक रहे हैं, अनन्त चतुष्टयसे सुशोभित हैं और कल्याणातिशोंसे सुन्दर हैं। जिनराजका इस प्रकारका वैभव देखकर राग-द्वेष एकदम चकित हो गये । उन्होंने जिनराजको प्रणाम किया और उनके पास बैठ गये । तदुपरान्त वे जिनराजसे कहने लगे- स्वामिन् हमारे स्वामीने जो मावेश दिया है उसे सुन लीजिए- उनका आदेश है कि श्राप जो त्रिभुवनके सारभूत अमूल्य रत्न हमारे स्वामीके ले आये हैं उन्हें वापिस कर दें। दूसरे, प्राप जो सिद्धि - अंगना के साथ विवाह कर रहे हैं इसमें त्रिलोकीनाथ कामकी प्रज्ञा प्रापको नहीं मिली है। तीसरे, यदि आप सुखी रहना चाहते हो तो कामकी सेवा करो और सुखसे रहो। क्योंकि कामदेव के प्रसन्न रहनेपर संसार में कोई वस्तु दुर्लभ नहीं रहती है। कहा भी है: "यदि कामदेव प्रसन्न हैं तो सहज ही कपूर, कुंकुम, अगरु, कस्तूरी और हरिचन्दन आदि अनेक वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं । और अनेक प्रकारके सुख भौ ।” तथा च "कामके प्रसन्न होनेपर धवल छत्र, मनोरम अश्व और मदोन्मत्त हाथो - सब कुछ प्राप्त रहते हैं ।" राग-द्वेष कहने लगे---इसलिए जिनराज, आपको उस कामदेवकी सेवा अवश्य करनी चाहिए, जिसकी सुरासुर गण, चन्द्र, सूर्य, यक्ष गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, विद्याधर पोर किन्नर सेवा किया करते हैं, जो पाताल लोक में शेषनागके द्वारा पूजित होता है; स्वर्ग में देव Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ८३ और इन्द्र जिसकी पूजा करते हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु महेश्वर और अन्य राजा प्रादि भी जिसकी सम्माननामें व्यस्त रहते हैं। ___इतना ही नहीं, आप उसके साथ मित्रता स्थापित कर लें। उसके साथ शत्रुता का भाव तो आपको कदापि न रखना चाहिए। कारण, काम महान् बलवान् है। कदाचित् वह तुमसे रुष्ट हो गया तो पता नहीं क्या कर डालेगा? और कामके ऋद्ध हो जानेपर आप पातालमें प्रवेश करें, सुरेन्द्रलोक में जावें, नगाधिपत्ति सुमेरुपर चढ़े और मन्त्र, प्रौषधि तथा आयुधोंसे भी अपनो रक्षा करें. पर आप अपनो रक्षा नहीं कर सकेंगे प्रौर काम निश्चयसे तुम्हारे ऊपर प्रहार करेगा।" और ___ "यह काम ही एक इस प्रकारका वीर और अचिन्त्य पराक्रमी है, जिसने जगत्को अनायास ही अपने पैरोंसे रौंद डाला है । तथा इसने बिना किसी बाधाके अकेले ही अपनी शक्तिसे चराचर संसारको छिन्न करके अपने अधीन कर लिया है ।" अथ च "केवल यह एक काम ही है जो निःशङ्ग होकर तीनों लोकको पीड़ित करता है और भूलोक में सैकड़ों उपाय करनेपर भी जिसका कोई विनाश नहीं कर सका है ।" तथा "एक बालोचकको दृष्टिमें तो यह काम कालकूट से भी अधिक महत विष है। उनका कहना है कि इन दोनोंमेंसे कालकूटका तो प्रतीकार भी हो सकता है लेकिन द्वितीय काम-विषका कोई प्रतीकार नहीं है। पिशाच, साप, रोग, दैत्य, ग्रह और राक्षस संसार में इतनी पोड़ा नहीं पहुंचाते, जितनी यह मदनम्वर पहुंचाता है। जिन देहधारियोंका मन कामके बाणोंसे भिदा हुआ है वह स्वप्नमें भी स्वस्थ नहीं रह सकता । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] मदन पराजय कामाग्निकी ज्वालानोंमें जलता हुमा संसार जानता हुमा भी नहीं जानता है और देखता हुमा भी नहीं देखता है ।" और -- "कामाग्निसे जलते हुएके संतापको मेघोंको वर्षा और समुद्रका प्लावन भी शान्त नहीं कर सकता।" तथा "मनुष्यको तभी तक प्रतिष्ठा रहती है, तभीतक मन स्थिर रहता है, और तभीतक हृदयमें विश्वतत्त्व-दीपक सिद्धान्त-सूत्र स्फुरित रहता है जबतक उसका हृदय क्षीर-सागरके तटवर्ती तरङ्गविलासोंके सदृश स्त्रियोंके कटाक्षोंमे पाहत होकर आन्दोलित नहीं होता है । जिनराज, ये वे स्त्रियाँ है जिनके सुन्दर भुज-लताओंके प्रालिङ्गिन-विलासको प्राप्त करके कुरबक, तिलक, अशोक और माकन्दवृक्ष भी प्रचुर रूपसे विकारी हो जाते हैं । तब ऐसा कौन कुशल योगी है जो इनके पूर्ण चन्द्र के समान निर्मल और सलिल मुख-कमलको देखकर अपने मनको निविकारी रख सके ।" तथा "हाव-भावोंसे पूर्ण, भालकी कस्तूरीसे अलङ कृत, भ्र कुटिविलाससे सुशोभित तथा लोल लोचनोंसे विराजित रमणियों के मुखका क्षरण-मात्र दर्शनतक पुरुषोंके हृदय में कम्प उत्पन्न करता है और उन्हें अधीर बना देता है।" राग-द्वेष इस प्रकार अन्समें कहने लगे :-जिनराज हम अधिक क्या कहें ? यदि साप आत्मतोष चाहते हैं तो महाराज मकरध्वजकी सेवा कीजिए । सिद्धि-अंगनाको विवाहनेके चक्करमें क्यों * ११ ततो जिननाथः प्रोवाच-परे, अशानिनौ, कि अल्पथः ? तस्यायमस्य सेवाऽस्माकं युक्ता न भवति । उक्तंच Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ८५ "वनेऽपि सिंहा मृगमांसभोजिनो बुभुक्षिता नैव तृणं चरन्ति। एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति ॥४७॥" अन्यच्च"ययोरेव समं शीलं ययोरेव समं कुलम् । तयोमैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ।।४८॥" तथा चययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं च तम् । ययोरेव गुणः साम्यं तयोमैत्री भवेद् ध्रुवम् ।।१६॥ तरिमेता जत्पश: ? हरिहरादीनां कातराणां जयनं कथयन्तौ न लज्जेथे ? तदेवं शुरधर्मो न भवति । अथवा शूरतरा ये भवन्ति ते भटनटभण्डवैतालिकवत् याचनां न कुर्वन्ति । तदसौ भवनो युवाभ्यामेवं शूरत्वेन बणितस्तस्कयमसौ रत्नानि रडयद्याचले तदनेन प्रकारेग रत्नानि न दास्यामि । तथा च यो मा जयति सङग्रामे यो मे वर्ष व्यपोहति । यो मे प्रसिबलो लोके स रत्नाधिपतिर्भवेत् ॥१७॥ अन्यच्च, ये पूर्व भोगा भवभ्यां कथितास्ते सर्वे मया आदाय लक्षिताः सन्ति, न च शाश्वता भवन्ति ते । तथा चअर्थाः पादरजःसमा गिरिनदीवेगोपमं यौवनं मानुष्यं जलबिन्दुलोलचपलं फेनोपमं जीवितम् । भोगाः स्वप्नसमास्सृणाग्निसदृशं पुत्रष्टभार्यादिकं सर्वच क्षणिकं न शाश्वतमहो त्यक्त'च तस्मान्मया।१८॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] मवनपराजय प्रत्यायअविदि हजाजात जराकाम्तञ्च यौवनम् । ऐश्वयंच विनासान्तं मरणान्त च जोचितम् ॥१६॥ स्त्री या सा नरकद्वारं दुःखाना सानिरेव च । पापबीजं कलेमूल कपमालिङ्गानाविकम् ॥२०॥ वरमालिङ्गिता करा चलल्लोलाऽत्र सपिणी । न पुनः कौतुकेनापि नारी नरकपरतिः ॥२१॥ तथा चकिम्पाकफलसम्भोगस निभं विद्धि मैथुनम । ग्रापातमात्ररम्पं स्याद् विपाकेश्यन्तभीतिवम ।२२।। अनन्तदुःखसन्ताननिवानं तद्धि मैथुनम् । तस्कथं सेवनीयं स्यान्महानरककारकम् ।।२३॥ स्वतालुरक्त किल कुक्कुराधमः प्रपीयते यद्वविहास्थिचर्वणात । तथा मिटविद्धि वविडम्बन निषेव्यते मैथुनसम्भवं सुखम् ॥२४॥ सस्किमनेन भूरिप्रोक्तन । अवश्य महं सिद्ध्यङ्गनापरि- . णयनं करिष्यामि, येन शाश्वतसुखप्राप्तिभविष्यति । अन्यच्च समोहं सशरं काम ससैन्यं कथमम्यहम् । प्राप्नोमि यदि सङ्ग्रामे अधिष्यामि न संशयः ॥२५॥ * ११ जिनराज राग-द्वेषकी बात सुनकर कहने लगेः- अरे, तुम लोग कितने अज्ञानी हो जो इस प्रकारको बात कह रहे हो ? क्या हम उस अधम कामकी सेवा कर सकते हैं ? कहा भी है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ८७ "जिस तरह वनमें मृग-मांसको खानेवाले सिंह भूखे होने पर भी सृरण महीं खाते हैं उसी प्रकार मापत्तियोंके आनेपर भी फूलीन पुरुष नीच-कर्म नहीं करते हैं। और __ "जिनका शील और कुल समान कोटिका है उन्हीं में मित्रता और विवाह होता है । लघु और महान्में नहीं ।" तथा "जिनका द्रव्य, शास्त्राभ्यास और गुण एक-से होते हैं, उनमें ही निश्चय रूपसे मित्रता हो सकती है।" जिनराज कहते गये - और जो तुमने हरि, हर, ब्रह्मा प्रादिकी कामदेवके द्वारा पराजित होने की बात बतलायी है और जो तुम यह कह रहे हो कि कामदेव मुझे भी पराजित कर डालेगा सो तुम्हें अपनी इस बातपर लज्जित होना चाहिए। उन्हें जीतनेमें कामको कोई बहादुरी नहीं है । फिर, जो बहादुर होते हैं वै भट, नट, भांड और स्तुति-पाठकोंके समान याचना नहीं करते हैं। जब तुम कामको शूरवीरताका इस प्रकार वर्णन करते हो तो वह क्यों रङ्कके समान रत्नोंकी मांग करता है ? इस प्रकारको याचनासे उसे रत्न नहीं मिल सकते। तुम यह निश्चय कर लो, जो संग्राममें मेरा सत्त्व चूर करके मुझ पराजित करेगा या संसारमें मेरा समानधर्मा है, वही रत्नोंका स्वामी हो सकता है। अथ च, जिन भोगोंकी और नुमने मुझ ललचाना चाहा है उनको मैंने प्रारम्भमें ही परीक्षा कर ली है। और वे शाश्यतिक भी नहीं हैं। "मुझ धन पैरकी धूलिके समान मालूम हुआ। यौवन पर्वतसे गिरनेवालो नदीके वेग-जसा प्रतीत हुआ। मानुष्य जलबिन्दुके समान चंचल मोर लोल मालूम हुमा तथा जीवन फेन-जैसा अस्थिर । भोग Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =< 1 मदनपराजय स्वप्नके समान निःसार श्री पुत्र एवं प्रिय स्त्री आदि तृणाग्निके सद्दश क्षणनश्वर मालूम हुए। इस प्रकार मैंने सबको अरणनश्वर भीर अशाश्वत समझ कर छोड़ दिया है ।" तथा "शरीर रोगसे प्राक्रान्त है और यौवन जरासे । ऐश्वर्यके साथ विनाश लगा है और जीवन के साथ मरण जब स्त्रो नरकका द्वार है, दुःखोंकी खानि है, पापोंका बीज है, कलिका भूल है, फिर उससे आलिङ्गन आदि कैसे संभव है ? चपल (जह्वावाली क्रुद्ध सर्पिणीका आलिंगन उचित है । लेकिन नरक पद्धति नारीका कौतुक वश भी श्रालिङ्गन करना उचित नहीं है।" और- "मैथुन धतूराके फलके समान प्रथमतः रम्य श्रौर परिणाम में अत्यन्त भयंकर है। अनन्त दुःख परम्पराका मूल है और नरकका महान् कारण है । कोई भला प्रादमी इसका सेवन कैसे कर सकता है ? जिस प्रकार कुत्ता हड्डी चबाकर अपने तालुका रक्त पीते हैं, उसी प्रकार ढोंगी विट भी मैथुन के सुखका अनुभव करते हैं ।" इसलिए इस सम्बन्ध में अधिक कहने की जरूरत नहीं है । मैं अवश्य हो सिद्धि-अंगना के साथ विवाह करूँगा और इस प्रकार ही मुझे शाश्वत सुख मिल सकेगा । और: TH मुझे समराङ्गण में यदि मोह, बाण और सैन्यसहित काम मिल गया तो मैं उसे निश्चयसे निर्वीय कर दूँगा । * १२ एवं जिनवचनमाकर्ण्य रागद्वेषौ फोपं गरवा प्रोचतुः - भो जिनेश्वर, किमेतन्मुखच्चापल्या प्रस्तुतं वदसि ? सतां स्वयमेव स्वप्रसमा जल्पनं न युक्तम् । तावत्त्वं शाश्वतं Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ ८९ सुखमिच्छसि यावन्मदनबाणभिद्यमानो न भवसि । उक्तच यतः " प्रभवति मनसि विवेको विदुषामपि शास्त्रसम्पदस्तावत् । न पतन्ति बाणवर्षा यावच्छ्रीकाम भूपस्य ॥ ७६ ॥ एवं दूतवचनमाकर्ण्य संयमेनोत्थाय द्वयोरर्द्धचन्द्र दवा द्वारा वहिनिष्कासितौ । इति श्रीठक्कुरमा इन्ददेवस्तुत जिन (नाग) देवविरचिते स्मरपराजये सुसंस्कृत बम्धे व्रतविधिसंवादो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ॥ २ ॥ * १२ जिनराजकी यह बात सुनकर राग द्वेष बड़े क्रुद्ध हुए और कहने लगे - हे जिनराज, इस प्रकार मुंह चला कर क्या बकवाद कर रहे हो ? महापुरुष कभी भी आत्म-प्रशंसा नहीं करते हैं । फिर जबतक काम तुम्हें अपने बाणोंसे नहीं भेदता है, तभीतक तुम शाश्वतिक सुखकी कल्पना में तन्मय हो रहे हो। कहा भी है: "विद्वानोंके मन में तभीतक विवेक जागृत रहता है और शास्त्रज्ञान भी तभीतक घमकता है, जबतक उनके ऊपर कामदेवकी बारा वर्षा नहीं होती ।" दूत इस प्रकार कहकर चुप ही हुए थे कि संगम उठा और दोनों को एक एक चांटा जड़कर दरवाजेसे बाहर कर दिया । इस प्रकार ठक्कुर माइन्ददेवके द्वारा प्रशंसित जिन (नाग) देव- विरचित स्मर-पराजयमें दूतविधि-संवाद नामक द्वितीय परिच्छेद सम्पूर्ण हुआ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः परिच्छेदः * १ अथ तो दूतौ ऋद्धसमानौ (ऋद्धचन्तो) कामपाश्र्वे समागत्य प्रणम्योपविष्टौ। ततः कामः प्राह-अहो भवद्भ्यां तन्न गत्वा जिनं प्रति किमभिहितं, किमुत्तरं वनों (दे) तेन जिनेन, कथम्भूता तस्य जिनस्य युद्धसामग्री ? एवं सेन कामेन पृष्टौ सौ व्रतायुक्तवन्तौ __ अहो देव, किमेतदायां पृच्छसि ? स जिनेन्द्रोऽगम्योऽलक्ष्यो महाबलवान् । न किञ्चिन्मन्यते । आवाभ्यां पण्डप्रभेदसामदामप्रकारैः शिक्षिता; परं निजबलोद्रकात् किचिन्न गरणयति । अन्यच्च, तेनेदभिहितम्-परे, किमेतम्जल्पथ: ? तस्यायमस्य सेवामह न करोमि । पती मया प्रातः ससैन्य. मदनो बन्धनीयोऽस्ति । __ तच्छ स्वा शल्यवीरोऽब्रवीत्-अहो, किमेतवसत्यं वस्थः १ यद्येवं जिनेश्वरेणोक्त तदस्मदीयसन्यवाह्यो भवन्तौ ? यत्तो यययोः किंचित् पराभवमान न दृश्यते ? ___अथ तावूचतुः-भो शल्यवीर, पराभवमानस्यासम्भबार्य कारणमेकमास्ते । उन्नतचेतसो ये केचन भवन्ति ते स्वल्पास घ्नन्ति । उक्त च यतः"तृणानि नोन्मूलयति प्रभञ्जनो मृदूनि नीचैः प्रणतानि सर्वतः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद समुच्छ्रितानेव तरून् प्रबाधते महान् [ ९१ महद्भिश्च करोति विग्रहम् ॥ १॥ " तथा च " गण्डस्थलेषु मदवारिषु लौल्यलुब्धमत्तभ्रमद्भ्रमरपादतलाहतोऽपि । कोपं न गच्छति नितान्तबलोऽपि नागः स्वल्पे बले न बलवान् परिकोपमेति ||२|| " [ तृतीय परिच्छेद ] * १ संयमसे अपमानित होनेपर राग और द्वेष बड़ े क्रुद्ध हुए। वे वहाँसे चलकर सोधे कामदेव के पास पहुँचे और उसे प्रणाम करके बैठ गये । राग-द्वेष के पहुंचते ही कामने पूछा- हाँ भाई, तुमने जिनराजके पास जाकर क्या कहा जिनराजने क्या उत्तर दिया और उसकी युद्ध सामग्री किस प्रकार की है ? कामदेव के इस प्रकार पूछनेपर राग-द्वेष कहने लगे :-- राजन्, यह बात हमसे न पूछिए । जिनराज अत्यन्त अगम्य, अलक्ष्य और महान् बलवान् है । वह ग्रापको कुछ नहीं समझता है । हम लोगोंने उसे साम, दाम दण्ड और भेद - सब तरहसे समझाया, पर अपनी शक्तिके अभिमान में उसे किसीकी परवाह नहीं है । इतना ही नहीं, जिनराजने यह भी कहा है कि- 'मैं उस अधमकी सेवा नहीं कर सकता और प्रात काल मुझे ससैन्य कामको पराजित करना है ।' पाल्यवीर ने कहा- राग-द्व ेष, आप लोग यह क्या अप्रिय बात कह रहे हैं ? क्या आप हमारी सेनाके अन्तर्गत नहीं थे जो आपने इस प्रकार पराभवका घूंट पी लिया ? Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] मदनपराजय राग-द्वेष कहने लगे-महाराज शल्यधीर, पराभव सहन करनेका एक कारण है। वह यह कि जो महामना होते हैं वे अपनेसे छोटोंको सताते नहीं हैं। कहा भी है: ___ 'वायु सब प्रकारसे प्रगत और मृदुल तृरणोंको नहीं उखाड़ती, बल्कि वह उन्नत वृक्षोंको ही बाधा पहुँचाती है। ठीक है, महान महान् पुरुषोंके साथ ही विग्रह करते हैं ।" तपा "शक्तिशाली हाथी अपने मद-जलसे परिपूर्ण गंडस्थलपर सुगन्ध-लोलुप भौंरोंके पाद-प्रहारसे पीड़ित होनेपर भी क्रोध नहीं करता है । ठीक है, बलवान् स्वल्पबलशाली पर कदापि क्रोध नहीं करते ।" २ एव शुस्वा मदनो घृतसिक्तानलवत् कोपं गत्वा अन्यायकालिकं प्रत्यायोत्-रे अन्यायकालिक, शीघ्र काहलया निनादं कुरु यथा सैन्यप्तमूहो भवति । एतवाकर्य तेनानीसिकाहला गम्भीररवेण नाविता । अथ तच्छावणाग्जिनेन्द्रोपरि बलानि सम्रद्धानि जज्ञिरे । तद्यथा प्रापुः त्रिगुणा महासरसरा दोषास्त्रयो गारवा आजग्मुर्घसमाभिधानसुभटाः पंचेन्द्रियाख्यास्ततः । बीरा वैरकुलांतका वरभटा दण्डास्त्रयश्चागताः प्राप्ताः सल्यसमास्त्रयोऽङ्क तबलाःशल्याभिधाना नृपाः ॥१॥ प्रायुष्कर्मतराधिपाश्च चतुराः प्राप्तास्तु पंचायवा रागढषभटौ ततोऽनु (मि) मिलतुदंपोंढतौ सिंहवत् । सम्प्राप्तावतिगवितौ स्मरदले गोत्राभिधानी नृपावज्ञानाख्यनुपास्त्रयोऽथ मिलिताः प्राप्तस्ततश्चानयः।२। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [ ९३ तृतीय परिच्छेद प्राप्तो क्रूरयमोपमो बलयुतौ द्वौ वेदनीयाभिधौ पुण्याद्यक्षितिपालको च मिलितौ प्राप्तस्तथा संयमः । प्रापुनिर्दलिताखिला रिपृतनाः पञ्चन्तराया नृपाः सम्प्राप्तौ तदनन्तरं दृढतरावाशाभिधानो नृपो || ३ || पञ्च नरेन्द्रा मिलिता ज्ञानावरणीयनामानः । दुष्परिणामो मिलितौ दर्शन मोहोऽतिदुर्जयः प्राप्तः ॥४॥ नियतिनरनाथा नामकर्माभिधानाः स्फुरिततरगणा वै भासमानाः प्रपन्नाः ॥ अथ नृपतिशलेन धूतसार्थेन युक्ता भुजग इव सरोषा प्रष्ट कर्मप्रधानाः || ५ | भूपाला नव सम्प्राप्ता दर्शनावरणीयकाः । शोभते कामसैन्यं तैर्यथा मेरुनंवग्रहैः ||६|| तथा च प्राप्तश्च षोडशकषायनृपैः प्रयुक्तधान्येन पश्च नवभिर्नवनोकषायैः । मिथ्यात्व भूमिपतिभिस्त्रिभिरावृतोऽन्यंयो योऽतिबलवानपि दुर्द्धरो यः ||७|| स्वर्गे जितः शतमखः सगणोऽपि येन येशभानुश शिकृष्णपितामहाद्याः । यस्माद् बिभेति बलवान् धरणीधरो यो सो (सी) मोहमल्ल इति भाति यथा कृतान्तः ||८|| एवं तमागच्छन्तं दृष्ट्वा सम्मुखं गत्वा मकरध्वजेन परमानन्देन तस्य मोहमल्लस्य पट्टबन्धनं शेषाभरणं च कृत्त्वा वचनमेतदुक्तम्- भो मोहमल्ल, अधुना सर्वमेतद्राज्यं त्वया Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PF ९४ ] मदमपराजय रक्षणीयम् । यतस्त्वमेव संन्याधिपतिः । तव लोलो यः सङग्रामे प्राप्नोति एवं विधो न कोऽप्यस्ति । उक्त च यतः-- "यद्वच्चन्द्रमसा विनापि रजनी यद्वत्सरोजः सरित् । गन्धेनैव विना न भाति कुसुमं दन्तीव दन्तविना । यद्वद् भाति सभा न पण्डितजनर्यद्वन्मयूखे रवि.स्तद्वन्मोह, विना त्वया मम दलं नो भाति वीरश्रिया ॥३॥" तदवश्यमिहाऽहमिदानी जिनेन्द्र जेष्यामि । एवं यावतेनोक्त तावत्तस्मिन्नवसरे निजमवभरान्धानां महकुबराणा मष्टानां समरभूमौ घटाः सम्प्राप्ताः । तथाऽतिवेग उन्नती · दुर्द रश्चपलः सबलो मनस्तुरङ्गामसमूहः सम्प्राप्तः । एवमादि प्रभूतक्षत्रियभट समूहैः समावसं सैन्यमतिशोभते । तथा छ दुष्टलेश्याध्वजाप निचितमभिरम्यं कुकयात्युच्छितयष्टिकाभिरारषगगनान्दोलनाभिराल्लादजनकं जातिजरामरमस्तम्भरपशोभितं सथा पंचकुदर्शनपंचशम्र्वधिरोभूतं दशकामावस्थातपत्राच्छावितान्धकारीभूतम् । एवंविधचतुरङ्गसैन्यसमन्वितो मनोगजमारुह्य सह प्रामार्थ निर्गन्तुमिच्छति यावजिनेन्द्रोपरि तावत्तस्मिन्नवसरेप्राप्तो मूढनुपैस्त्रय (विभिश्च सहितं (त:) शादि . वोरस्त्रिभियंक्ता येन फरी धृता करसले संसारदण्डस्तथा । यः प्राप्नोति रणे सदा जयरवं लोकत्रय कम्पितं चत धस्य भयास्, स खातिबलवान् मिश्यास्वनामा नपः mil Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद [ ९५ २ राग-द्वेष की बात सुनकर कामदेव इस प्रकार की से भड़क उठा जैसे अग्निपर घी डालने से वह भड़क उठती है । उसने भेरी बजानेवाले अन्यायको बुलाया और कहा - अरे अन्याय, तुम शीघ्र ही अपनी भेरी बजाओ, जिससे समस्त सेना एकत्रित हो जाय । महाराज मकरध्वजकी बात सुनकर अन्यायने बड़े जोरसे अपनी भेरी बजायी । और भैरोका शब्द सुनते ही समस्त सेना जिनेन्द्र के ऊपर चढ़ाई करनेके लिए तैयार हो गयी । कामदेवकी सेना इस प्रकारसे तैयार हुई : अठारह दोष, तीन गारव सात व्यसन, पाँच इन्द्रियाँ वैरिकुल के लिए यमस्वरूप तीन दण्ड नामक सुभट और तीन शल्यनामक राजा उपस्थित हो गये । चार आयुष्कर्म तथा पाँच यास्रव कर्म नामके राजा आ पहुँचे । मदोन्मत्त सिंहको तरह राग-द्व ेष नामके सुभट भी तैयार हो गये । गोत्र नामके अत्यन्त मानी दो राजा, एक प्रज्ञान नरेश और एक अनय महाराज भी सन्नद्ध हो गये । 1 क्रूर यमके समान दो वेदनीय नामके प्रबल राजा और पुण्यपाप के साथ असंयम नरेश भी तैयार हो गया। समस्तशत्रु संहारक पाँच अन्तराय और दो आशा नरेश भी आ पहुँचे । ज्ञानावरणनामक पाँच राजा तथा शुभ-अशुभ नृपतिके साथ दुर्जय दर्शन मोह भी तैयार होकर आ गया । अपने अधीनस्थ भत्योंके साथ नाम-कर्म नामके तिरानवे नरेश और सी जुवारियोंके संघसहित प्रमुख प्राठ कर्म- नरेश भी रोष में भरे पहुंचे। दर्शनावरणीयरूपी नी राजा भी उपस्थित हो गये । इन राजानोंसे कामको सेना इस प्रकार सुन्दर मालूम हुई जैसे नवग्रहोंसे मेरु सुशोभित होता है । अथ च - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] मदनपराजय सोलह कषाय, नौ नोकषाय, और तीन मिथ्यात्वनामक राजाओं के परिवार के साथ दुर्जय और बलवान् मोह भी आ डटा । वह मोहमहल, जिसने सपरिकर इन्द्र, महादेव, सूर्य, चन्द्र, कृष्ण और ब्रह्माको पराजित किया और जिससे महान् हिमालय भी भीत रहता है, प्राते समय इस प्रकार मालूम हुआ जैसे साक्षात् यमराज प्रा रहा हो ! ज्यों ही महाराज कामदेव ने मोहको सामने आते हुए देखा, उसने बड़े उल्लासके साथ मोहका पट्टबन्ध किया और अपने शेष सम्पूर्ण श्राभरण उसे दे डाले। इसके पश्चात् कामदेव उससे कहने लगा - हे मोहमल्ल, अब तुम्हें हो इस सम्पूर्ण राज्यकी रक्षा करनी है। क्योंकि सेनाधिपति तुम्हीं हो और इस संग्राम में ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हारा सामना कर सके । वह कहता गया- "मोह, जिस प्रकार चन्द्रके बिना रात्रि सुशोभित नहीं होती, कमलोंके बिना नदी सुशोभित नहीं होती, गन्धके विना फूल सुन्दय नहीं होता, दांतोंके विना हाथी सुशोभित नहीं होता, पण्डित समूहके विना सभा अलंकृत नहीं होती और किरणोंके बिना सूर्य सुशोभित नहीं होता, उसी प्रकार अद्भुत पराक्रमी तुम्हारे बिना हमारा सैन्य भी सुशोभित नहीं हो सकता है। इसलिए मुझे विश्वास है कि मैं अत्र जिनेन्द्रको जरूर ही जीत लूंगा ।" कामदेव और मोहकी इस प्रकारकी बात चल ही रही थो कि इतने में अपने मदके भारसे अन्धे माठ मदरूपी हाथियोंके समराङ्गरण में घण्टे बजने लगे और अत्यन्त वेगवान्, उन्नत, दुर्द्धर, चपल और सबल मनरूपी अश्वसमूह भी उपस्थित हो गया। इस तरह कामदेव सैन्यमें अनेक क्षत्रिय सुभट-समूह सम्मिलित हो गये और इस कारण उसमें निराली शान आ गयी । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद इस प्रकार यह सैन्य दुष्ट लेश्यारूपी ध्वज-वस्त्रोंसे सघन था। इन ध्वजाओंमें कुकथारूपी उन्नत दण्ड लगे हुए थे, जिनके कारण ये ध्वजाए प्राकाश में प्रान्दोलित होकर दर्शकोंके मन में प्राल्लाद पैदा कर रही थीं। इतना ही नहीं, यह सैन्य जाति-जरा और मरणरूपी स्तम्भोंसे सुशोभित था, पांच मिथ्यादर्शनरूपी पांच प्रकारके शब्दोंसे जगत्को बहरा कर रहा था और दश कामावस्थारूपी छनोंके कारण इसमें सर्वत्र अन्धकार घनीभूत हो रहा था। कामदेव इस प्रकारके चतुरंग-सेनाके साथ मनोगज पर सवार होकर जिनेन्द्रसे संग्राम करने के लिए जानेवाला हो था कि इतने में तोन मूढ़ता और तीन शङ्कादि वोर राजाओंके साथ संसार-दण्डको हाथ में लेकर अपने जगरवसे तीनों लोकको कंपाता हुआ बलवान् मिथ्यात्व नामका राजा प्राकर उपस्थित हो गया । * ३ ततो मिस्मारवनपः प्रोवाच-भो भो त्रिवशकुरङ्गपञ्चानन, फस्योपरि संघलितस्त्वम् ? ममादेशं देहि । किमनेन संन्यमेलनेन ? केवलोऽहं जिनेन्द्र जेष्यामि । ततो मोहः प्राह-अरे मिथ्यारव, किमेतंजल्पप्सि ? एवंबिधो बलवान कोऽस्ति यः सङ प्रामे जिनसम्मुखो भवति । तत्प्रभाते तब शूरत्वं ज्ञास्याम्यहं पर दलनाथः सम्यक्त्ववारः प्राप्स्यति । उक्त च यत: "तावद्गर्जन्ति मण्डूका: कूपमाश्रित्य निर्भयाः । यावन्नाशीविषो धोरः फटाटोपो न दृश्यते ॥४॥ तावद्गर्जन्ति मातङ्गा भिन्ननीलाद्रिसन्निभाः । यावच्छृण्धन्ति नो कर्णैः क्रुध्यत्पञ्चाननस्वरम् ।।५।। तावद्विषप्रभा घोरा यावन्नो गरुडागमः । तावत्तमःप्रभा लोके, यावन्नोदेति भास्करः ॥६॥" . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ ] मनपराजय अन्य छज "खद्योतानां प्रभा ताव यावन्नो रविरश्मयः । द्विजिह्वानां बलं तावद् यावन्नो विनतासुतः ।।७।। " *३ मिध्यात्वने आते हो कामदेवसे कहा- हे देवतारूपी मृगोंके लिए सिंह-सहा देव, श्राप इतनी बड़ी सेनाके साथ क्यों प्रस्थान कर रहे हैं ? मुझे आज्ञा दीजिए। मैं अकेला ही जिनेन्द्रको पराजित करके बाता हूँ 1 + इस बीच में मोह कहने लगा- अरे मिथ्यात्ब, तुम क्या बात करते हो ? संसार में ऐसा कोनक्ति है जो संग्राम में जिनेन्द्रका सामना कर सके । तुम्हारी शूरवीरताका कल सवेरे ही पता चल जायगा जब जिनेन्द्रका सेनापति रणाङ्गण में आकर उपस्थित होगा । कहा भी है: "मेंढक कुएं में तभी तक निर्भय होकर गरजता है, जब तक उसे भयङ्कर करणधारी सांप नहीं दिखलायी देता । चिकने नीलाद्विको तरह काले हाथी तभी तक विधाड़ते हैं, जबतक वे अपने कान से रोषमरे सिंहकी गर्जना नहीं सुनते । साँपके विषका उत्कट प्रभाव भी नभीतक रहता है, जबतक गरुड़के दर्शन नहीं होते । और अन्धकार भी तक रहता है, जबतक सूर्य उदित नहीं होता ।" कविने इस आशय की एक और बात कहीं है । वह यह है "जबतक सूर्यका तेज प्रकट नहीं होता तभी तक खद्योत चमकते हैं । इसी तरह साँप भो तभीतक अपने में शक्तिका अनुभव करता है, जबतक उसे गरुढ़का साक्षात्कार नहीं होता ।" मोह कहने लगा --- इसलिए भाई, तुम व्यर्थ बात न करो । कल तुम्हें अपने श्राप अपनी शक्तिका पता चल जावेगा । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 तृतीय परिच्छेद [ ९९ * ४ एवं वचनमाकर्ण्य मनोभवोऽवोचत्-अहो, युवयोः परस्परं किमनेन विवादेन ? यत उक्त च "अज्ञातचित्तवृत्तीनां पुंसां किं गलगजितैः । शूराणां कातराणाञ्च रणे व्यक्तिर्भविष्यति || ८ | " तत् प्रभाते जिनेन्द्रस्य हरिहरपितामहादीनां यत्कृतं तदह यदि न करोमि तदा ज्वलितानलप्रवेशं करिष्यामि । इति सर्वजनविदिता मे प्रतिज्ञा । उक्त ं च “ सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः । सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥६॥ " इति श्रीठक्कुरमाइन् देवस्तुत जिन (नाम) देवधिरचिते मदनपराजये सुसंस्कृतबन्धे कन्दसेन वर्णनो नाम तृतीयः परिच्छेदः ॥ ३ ॥ * ४ मोह और मिथ्यात्व के इस प्रकारके विवादको सुनकर कामदेव कहने लगा- आप लोग परस्पर में विवाद क्यों करते है ? इस विवाद कोई अर्थ सिद्ध होनेवाला नहीं है। कहा भी है: — "जिनकी मनोदशाका पता नहीं है, वे व्यक्ति कुछ भी कहें उनके कहने से क्या होता है ? समर-भूमि में उतरनेपर सबको मालूम हो जायगा कि कौन शूर है और कौन कानर है ?" कामदेव कहने लगा मेरा निश्चय है कि मैंने हरि, हर मौर ब्रह्माकी जो दशा को है वही दशा कल सवेरे यदि जिनेन्द्रकी न कर सका तो में जलती हुई श्रागमें प्रवेश कर जाऊँगा। नीतिकारोंकी इस बालसे में पूर्ण सहमत हूँ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] मदनपराजय "राजा एक बार कहते हैं, पण्डित एक बार कहते हैं और कन्याएं एक बार दी जाती हैं। ये तीन काम एक बार ही होते हैं।" इस प्रकार ठक्कुर माइन्ददेवके द्वारा प्रशंसित जिन (नाग) देव-घिरचित मदनपराजयमें काम-सेना-वर्णन नामका तृतीय परिच्छेद समाप्त हुआ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः परिच्छेदः # १ इतो निर्गते दूतयुगले जिनेन संवेगं प्रत्यभिहितम्-प्ररे संवेग, झटिति स्वसैन्याह्वानं कुरु । सदाकर्ण्य तेन वैराग्यकालिकमाहूय एतदुक्तम्- अरे वैराग्यकाहसिक, शीघ्र काहलानिनावं कुरु यथा स्वसैन्यसमवायो भवति । ततस्तेन विरतिकाहला 'जिननाथः संप्राप्तः, एवं द्विरुक्त्युच्चारणेन युक्ता कृतगम्भीरकोलाहला नादिता । श्रथ काहलास्वनमाकयं कन्दर्पोपरि परबललम्पटाः सुभटाः सम्प्रापुः । तद्यथासमदमदनदन्तिध्वंसकण्ठीरवा ये छलबलकुलवन्तश्चागताः धर्मवीराः । अथ दश नरनाथा मुण्डसंज्ञाः प्रचण्डा वश हि मनुजनाथाः संयमारया वरिष्ठाः ॥ १॥ उन्नतवयसी शूरौ भूपौ द्वौ क्षमादमाख्यौ च । ते वश भूपा मिलिताः प्रायश्चित्ताभिधाना ये || २ || कल्पान्ते महताहताश्च मिलिताश्चैकत्र सप्तार्णमा यद्वत्तद्वबतीवशौर्य सहितास्ते सप्त तत्त्वाधिपाः । अष्टौ ये हि महागुणा नृपवराः प्राप्तास्ततस्ते तथा तद्वच्चाष्टकुलाचला दृढतरा अष्टौ यथा दिग्गजाः ॥ ३ ॥ तथा च करुपान्ते प्राणिनाशाय द्वादशार्का यथोदिताः । स्मरसैन्यविनाशाय तथा प्राप्तास्तपोनृपाः || ४ || Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ } मदार पंच नरेशा मिलिता प्राचारख्या महाशूराः । अष्टाविंशति भूपा मूलगुरणाख्यास्ततः प्रापुः ।।५।। शत्रुत्रासकरा माखरतराः श्रीवनमाङ्गाभिधाः सम्प्राप्ताः सुभटास्त्रयोदश ततश्चारित्रवीरेश्वराः । प्राजग्मुस्तदनन्तरं हि बलिनः कोनामा दूतोपमा अष्टौ षड् वरवीरदपवलनाः पूर्वाङ्गसंज्ञा नृपाः ॥६॥ मेऽनन्तवीर्यसंयुक्ताः स्मरवीरकुलान्सफाः । प्रापुस्ते ब्रह्मचर्याख्या भूपाला नव दुर्जयाः ॥७॥ परिकृष्जरगन्धगजा मिलिता नव शूरतरा नयभूपतयः। अथ गुप्तिनपत्रितयं मिलितं त्वरित जिमनाथले सबलम् का तथा च- । शरणागतेषु जन्तुषु सकलेल्वधारभुता ये । अनुकम्पागुणभूपा जिनकार्ये तत्क्षणात् प्राप्ताः ।।६।। पंच वक्रो महाकायो धोरो यो नोरवस्वनः । सम्प्राप्तः स्मरनाशार्थ स्वाध्यायः सिंहवत्तथा ।।१।। धर्मचक्रान्धिराः प्राप्तो दृष्टिधीरचतुर्भुजः । स्मरदैत्यविनाशार्थ देत्यारिः केशवो यथा ॥११॥ मतिज्ञासारख्यभूपालः संप्राप्तस्तदनन्तरम् । शतत्रययुतश्चान्यः षट्त्रिंशदधिकन पैः ॥१२॥ श्रुतज्ञानाभिधानो यो जिनसहावार्थमागतः । मनःपर्ययसंज्ञोऽथ प्राप्तो भूफ्युगान्वितः ॥१३।। तथा चनरनायत्रमयुक्तः स्थपतिश्रमनाशनाय संप्राप्तः। अवधिज्ञाननरेशः स्वसन्यतिलको महाशूरः ॥१४॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद ततोऽनन्तरमायातो महाशूरोऽतिदुर्जयः । मोहवीरविनाशार्थं केवलज्ञानमूपतिः तथा च [ १०३ धर्मध्यानमहीपेन युक्तो निवेंगभूपतिः । शुवलेन सह सम्प्रात्रः॥१६॥ P तथा च ।।१५। अष्टोतरसहस्र ेण संयुक्तो लक्षणाधिपः । श्रष्टादशसहस्रं श्व मिलितः शौलमूपतिः ॥१७॥ भूपालैः पंच भिर्यु को निग्रन्यावी नरेश्वरः । बलबोरकुलान्तो यौ गुणांबांजग्मतुस्ततः ।। १८ ।। 21 सम्प्राप्तस्तदनन्तरं जिनबले वंशेभपंचाननोयस्याप्री नमति स्वयं सुरपतिविद्याधराद्यास्तथा । ब्रह्माद्या धरणीधराकेशशिनो यस्याङ त्रियुग्मं नमन्त्येते नित्यमसौ रतोशदलनः सम्यक्त्वदण्डाधिपः ।१६। एवमाचसङ रूयवीर क्षत्रिय सामन्तनिचयनिचितं जिनबलमतिराजते । तथा च दुर्धरोन्नतदुर्जयबलचपलमनोहरजीवस्वभावतुरङ्गमखुरपुटनित्रयोद्धूतपांसुच्छ्न्नाम्बरमण्डलं प्रमाणचतुष्कसप्तभङ्गिमहागज चीत्कार रखन व दिग्गजभयजनकं चतुरशीतिलक्षगुरण महारथरवकोलाहल निजितज निधिगज्जित पंचसमितिपंच महाव्रत शब्दस्याद्वाद मेर्यात्रा (ता ) ट ( ड ) नसमु स्थितातिकोलाहल वधिरीमूतं शुभलेश्यातिदीर्घयष्टिकाभिः कृतगगनमण्डलस्पर्शनाभिरनङ्गदलभयजनकं विस्फुरल्लब्धिचिह्रच्छायाच्छादितदिक्चक्रं बहुव्रतबस्तम्भैरुपशोभितम् । एवंविधिचतुरङ्गसन्धसमन्वितः क्षायिकदर्शनमातङ्गारूढोऽनुप्रेक्षा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] मदनपराजय सन्नाहाच्छादिताङ्गः स्वसमयनेत्रपटोत्तमानबद्धविराजमानः करतलकलितमहासमाषिगवानहरणः सिद्धस्वरूपस्वरशास्त्रतत्वज्ञसहितः परमेश्वरो मवनोपरि यावत् संचलितस्तावत्तस्मिन्नवसरे भव्यजनैरभिमन्यते, शारदमाग्ने मङ्गलगानं गीयते, क्यया शेषाभरगं क्रियते, मिथ्यात्वपंचक(फेन) निम्बलवणमुत्तार्यते। [चतुर्थ परिच्छेद ] - * १ जब जिनराजके पाससे. राग-द्वेष नामके दोनों दूत चले गये तो उन्होंने संवेगको बुलाकर कहा-संवेग, तुम बहुत जल्द अपनी सेना तयार करो। जिनराजकी आज्ञा पाते ही उसने वैराग्यडिडिमको बुलाया और कहा-अरे वैराग्यडिडिम, तुम शोघ्र ही अपनी भेरी बजाओ जिससे अपनो सेना जल्दी एकत्रित हो जाय ।। वैराग्यडिडिमने अपनी भेरी बजायी और उसके शब्दको सुनते ही विपक्षोकी सेनाका विध्वंस करनेवाले योद्धा कामके ऊपर चढ़ाई करनेके लिए इस प्रकार आ पहुंचे : उस समय दश धर्म-नरेश भी प्राकर उपस्थित हो गये। ये नरेस मदोन्मत्त काम-हाथीको पराजित करनेके लिए सिंहके समान प्रतीत होले थे। ठीक इसी समय दश संयम-नरेश और दश प्रचण्ड मुण्ड-नरेश भी आ डटे। और इसी समय वयोवृद्ध क्षमा और दम दो शुरवीर भी प्रायचिननामक दश राजओं के साथ पाकर जिनेन्द्रकी सेनामें सम्मिलित हो गये। जिस प्रकार कल्पकालके अन्त में सातों समुद्र एकत्रित हो जाते हैं उसी प्रकार अत्यन्त शूर सात तत्व-राजा भी पाकर सम्मिलित हो Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १०५ गये । और अत्यन्त सत्त्वशाली माठ कुलाचल और पाठ दिग्गजों के समान आठ महामुण-नरेश भी प्रा पहुँचे । और जिस प्रकार कल्पान्समें प्राणियोंके विनाशके लिए बारह सूर्य उदित हुए थे, उसी प्रकार कामको सेनाके विध्वंसके लिए बारह तपरूपो राजा भो पाकर उपस्थित हो गये । ___ इनके अतिरिक्त अत्यन्त शूरवीर पाँच प्राचार नरेश और अट्ठाईस मूलगुण-राजा भी आकर सेनामें मिल गये । और शत्रुको त्रस्त करने में समर्थ अत्यन्त तेजस्वी द्वादश प्रजनरेश और तेरह वीर वारियराजा भी आ पहुंचे । और इनके पश्चात् प्रबल कालके दूतके समान चौदह पूव-राजा भो प्राकर उपस्थित हो गये। साथ ही अनन्तशक्तिशालो और वीर कामके कुलको विध्वस्त करनेवाले दुर्जय नौ ब्रह्मचर्य-नरेश भी प्राकर सैन्य में सम्मिलित हो गये। तथा शत्रुरूपी हाथियोंके लिए गन्धगजको तरह शूरवीर नयराजा और तीन गुप्ति-राजा भी प्राकर जिनेन्द्रकी सेनामें आ मिले । और जो समस्त शरणागत देहधारियोंको आश्रय प्रदान करते हैं वे अनुकम्पा आदि नरेश भी आ पहुँचे । __ इनके अतिरिक्त पाँच मुखवाला दीर्घ शरीरधारी धीर और नीरदके समान ध्वनि करनेवाला स्वाध्याय-नरेश भी सिंहके समान कामको नष्ट करने के लिए प्राकर उपस्थित हो गया। तथा धर्मचक्रसे सम्पन्न और चतुर्भुज दर्शन-बीर भी दैत्यारि केशवकी तरह स्मर-दैत्यके विनाशके लिए पाकर तैयार हो गया। तदनन्तर मतिज्ञान-नरेश भी अपने अधीनस्थ तीनसौ छत्तीस अन्य राजाओंके साथ जिनेन्द्रकी सेनामें प्राकर समिलित हो गया। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] मदनपराजय और श्रुतज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान भी अपने साथफे अन्य दो राजामोंके साथ आकर उपस्थित हो गये । साथ ही तोन राजामोंसे युक्त अवधिज्ञान-नरेग भी अपने स्वामी को सहायताके लिए सेनामें प्रा मिला। यह नरेश अत्यन्त शूरवीर था और जिनेन्द्रको सैन्यका तिलक प्रतीत होता था। इसके १ मोहतो र मिशिने हिए जहान् शूरवीर और दुर्जय केवलज्ञान-भूपति भी आकर उपस्थित हो गया। तथा धर्मध्यान-नरेशके साथ निर्वेद-राजा प्रा मिला और शुक्लध्यान-राजाके साथ बलवान् उपशम-नरेश भी प्रा पहुंचा। और एक हजार आठ राजामोंके साथ लक्षण नरेश और अठारह हजार राजाओंके साथ शील-नरेश भी भाकर मिल गया। तथा पांच राजानोंके साथ निग्रन्थ-राजा भी पाकर उपस्थित हो गया और वैरि-कुलके विनाश करनेवाले दो गुण-नरेश भी प्राकर संमिलित हो गये। ___ इसके पश्चात् सम्यक्त्व-राजा भो जिनेन्द्रकी सेनामें पाकर मिल गया। यह नरेश शत्रुरूपी हाथोके लिए सिंहके समान भयंकर था और इसे इन्द्र, विद्याधर, ब्रह्मा, महादेव, सूर्य और चन्द्र आदि समस्त देव स्वयं नमस्कार करते थे। साथ ही रतिपति के संहारके लिए यह प्रमुख साधन था। इस प्रकार जिनेन्द्रकी सेनामें जब असंख्य क्षत्रिय-वीर सामन्त पाकर संमिलिस हो गये तो जिनराजकी सेना अत्यन्त सुशोभित हो उठी। उस समय दुर्धर उन्नत, दुअंय और सशक्त जीवके स्वाभाविक गुणरूपी प्रश्वोंके खुराघातसे जो धूलि उठी उससे प्राकाश-मण्डल बाग्छन्न हो गया। चार प्रमाण पीर सप्तभंगीरूप महान् गजोंके चीत्कारके सुननेसे दिग्गजोंको भी भय होने लमा। चौरासी लक्षणरूप Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिछेद [ १०७ - महारथ के कोलाहलने समुद्रके गर्जनको भी अभिभूत कर दिया । पाँच समिति, पाँच महाव्रतोंके संदेश और स्वाद्वाद - भेरीके शदने दि मण्डलको वधिर कर दिया । गगनचुम्बी शुभ लेश्यारूपी विशाल दण्डोंसे अनङ्गकी सेनाको भी भय होने लगा। विकसित लब्धिरूपी पताकाश्रों की छायासे दिक्चक्र भी याच्छन्न हो गया । और विविव व्रतरूपी स्तंभोंसे सेनाकी शोभा और अधिक निखर पाई " इस तरह चतुरङ्ग सेनाके साथ क्षायिकदर्शनरूपी हाथीपर सवार होकर अनुप्रास लवन पहन कर भालपुर आगमरूपी मुकुट धारण कर, हाथ में महासमाधि शस्त्रको लेकर और सिद्धस्वरूप-रूपी स्वर-शास्त्र के तत्वज्ञको साथमें लेकर जिनराज कामके ऊपर चढ़ाई करनेके लिए जैसे ही तैयार हुए, अनेक भव्य जीव उनका अभिवादन करने लगे । शारदा सामने आकर मङ्गल गान करने लगी । दया ग्राभरण पहनाने लगी और निम्ब और नमक लेकर पांच मिध्यात्वरूपी नजर उतारने लगी । * २ एवंविधस्य समरभूमिसंचलितस्य जिनेशस्याग्रे सुशकुनानि जशिरे । तद्यथा दधिदुर्व्वाक्षतपात्रं जलकुम्भश्चेवण्डपद्मानि । सूनुमती स्त्री वीणाप्रभूतिकमग्रे सुदर्शनं जातम् ||२०|| सचथा प्रदक्षिणेन प्रतिवेष्टयन्ती यतो (तः ) कुमारी सफलार्थसिद्धये । आमाङ्गभागे ध्वनिरम्बुवानां जातास्त्रिसीनाञ्च तथा वृषाणाम् ।।२१।। ( जातो बुषाणां शिखिनां तथा च ॥ ) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I १०८ ] भदनपराजय उन्नतदक्षिणपक्षविभागा तत्क्षणमुखकृतपार्थिवशब्दा शान्तदिशा भगवत्यनुलोमा सेति जिनस्य जयाय गताऽग्रे ५२३॥ दुर्गाकौशिक वाजिवाय सख रोलको शिवासारसाज्येष्ठा जम्बुकपोत घातक वृक्षागोवन्तिचक्रादयः । यस्यैते पुरतोऽनिशं च पथिकप्रस्थानवामस्थितास्तस्याग्र मनसः समीहितफलं कुर्वन्ति सिद्धि सदा। २३ । * २ इस प्रकार जब जिनराज प्रस्थानके लिए उद्यत हुए. उस समय निम्न प्रकारके शुभ शकुन होने लगे : दही, दूर्वा अक्षतपात्र, जलपूर्ण कलश, इक्षुदण्ड, कमल, पुत्रवती स्त्री और वोणा श्रादिके दर्शन हुए । साथ ही दक्षिण भागमें कुमारी और वामभाग में मेघों की, मयूरोंकी और बैलोकी गर्जनाएँ होने लगीं । इसके अतिरिक्त दक्षिण भाग में राजाओं की 'मारो-पकड़ो की ' भी ध्वनि होने लगी । और जिस दिशा में जिनराजका प्रस्थान होना या वह बिलकुल शान्त हो गयी । शकुनविदों का कहना है दुर्गा, उल्लू, घोड़ा, कौवा, गधा, उलूको, सियारनी, सारस, । वृद्धा, जम्बुक पोत, चातक, भेड़िया और गायका दाँत जिसके प्रस्थानके समय बायें भागमें श्रावें उसका मनोरथ सदैव सिद्ध समझना चाहिए । * ३ एवं निर्गच्छन्सं जिनमवलोक्य संज्वलनेनं हृवि चिन्तितम् - प्रहोऽधुनाऽस्माकमत्रावासो युक्तो न भवति । एवमुक्रवा मदनसकाशमागत्य प्रणम्य विज्ञापयामास - 'वेव देव, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : चतुर्थं परिच्छेद [ १०९ जिनेन्द्रोऽसौ महाबलवान् दर्शनवीरमप्रणीकृत्य सम्प्राप्त एव तच्छील जीवस्थानं प्रति गम्बसे ।' उक्तः "त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥१॥ रक्षन्ति देशं ग्रामेण ग्राममेकं कुलेन वै । कुलमेकेन चात्मानं पृथ्वीत्यागेन पण्डिताः || २शा" तच्छ्रुत्वा मदनः सङ क्रुद्धधमानो भूत्वा ( सङ क्रुद्धघन् ) प्रब्रवोत् - अरे संज्वलन, यथेदं भूयो वयसि तत्तत्क्षणादेव धिष्यामि । श्रन्यचन I दृष्टं तं न क्षितिलोकमध्ये मृगा मृयेन्द्रोपरि संचलन्ति । विधुन्तुदस्योपरि चन्द्रमा (मोड) क्कों कि बं विडालोपरि मूषकाः स्युः ॥२४॥ तथा च कि वैनतेयोपरि काद्रवेयाः कि सारमेयोपरि लम्बकर्णाः । कि वे कृतान्तोपरि मूतवर्गाः किं कुत्र श्येनोपरि वायसाः स्युः ।।२५।। एवमुक्त्वा मोह माहूय एतदुक्त कामेन - अहो मोह, अद्य रणे युद्ध्वाऽहं जिनं न जयामि चेसत् सागरबडवान लवदने निजकलेवरं क्षिपामि । मोहः प्राह-देव, सत्यमिदम् । यतः कोऽप्येवंविधः सुरतरोऽस्ति यस्त्वां जित्वा जयवान् भूत्वा निजगृहं गच्छति ? एवं मया न दृष्टो न श्रुतोऽस्ति । उक्त "हरिहरपितामहाद्या बलिनोऽपि तथा त्वया प्रविध्वस्ताः । त्यक्तत्रणा यथैते स्वाङ्कान्नारों न मुञ्चन्ति ||३|” Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ] मदनपराजय अन्याय, अहो देव, जिनेनोऽसौ यदि कथमपि संग्रामसम्मुखो भवति, तसस्य किंधिवग्यान कर्तव्यं भवति । निगडबन्धर्बन्धयित्वाऽविचारकारायतने प्रक्षिप्यते (ताम्) । तयाकर्ण्य पंचेषुना(णा)बहिरात्मान बन्दिनमाहूय समनिहितम्-अरे अहित्यन्, गजरा स्वं जिनं मे दर्शयसि तत्सव प्रभूतं सम्मानं करिष्यामि । एवमुक्त्मा स्मरवीर- नामाङ्कितं कटिसूत्रं बन्दिनो हस्ते वत्स्वा न ततरं सम्प्रेषितः । ___* ३ जब इस प्रकारके माङ्गलिक मुहूर्त में जिनराज कामके ऊपर चढ़ाई करने के लिए चल पड़े तो काम के गुप्तचर संज्वलन ने मोचा-अब मुझे यहाँ रहना ठीक नहीं है । यह सोचकर वह तुरन्त कामके पास चला पाया और प्रणाम करके कहने लगा-देवदेव, जिनराज महान् बली सम्यग्दर्शन वीरको साथमें लेकर आपके ऊपर चढ़ाई करनेके लिए मा गये हैं। इसलिए मैं तो अब किसी सुरक्षित स्थानमें जा रहा हूँ। कहा भी है : "कुल के लिए एकको छोड़ दे। गांवके लिए कुलको छोड़ दे। जनपदके लिये गाँवको छोड़ दे। और अपने स्वार्थ के लिए पृथ्वीतकको छोड़ दे। बुद्धिमान् मनुष्य देशको गांवसे बचाते हैं, गांवको कुलसे बचाते हैं, कुलको एक व्यक्तिसे बचाते हैं और अपने को पृथ्वी तक देकर बचाते हैं।" संज्वलनकी बात सुनकर कामको बड़ा क्रोध हो पाया। वह कहने लगा-संज्वलन, यदि तुमने यह बात फिर मुहसे निकाली तो मैं तुम्हारा वध कर डालूगा । क्योंकि __ संसारमें यह बात न कहीं देखी गयी है और न सुनी गयी है कि हिरन सिंहके ऊपर, चन्द्र-सूर्य राहुके ऊपर और चूहे बिलावके ऊपर विक्रमण करते हैं। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १११ पोर न यह भात ही सुनने तमा देखने में प्रायी है कि गरुड़के ऊपर साँप, कुत्तोंके ऊपर खरगोश, कालके ऊपर प्राणी और बाजके ऊपर कौवे विक्रमण कर रहे हैं। __ यह कहकर कामने मोहको बुलाया और उससे कहने लगा-- मोह, मैंने यह निश्चय किया है कि आज समरभूमिमें उतरनेपर यदि सुज निजय नहीं मिलती है तो मानने वाले लो सागरके बड़वानल में दग्ध कर डालूगा। कामको प्रतिज्ञा सुनकर मोह कहने लगा- देव, माप बिलकुल सत्य कह रहे हैं । प्राबके संग्राममें विजय आपको ही संगिनी बनेगी। ऐसा कौन बलवत्तर देव है जो आपको पराजित कर सके और विजयी होकर अपने घर लौट सकें। इस प्रकारका देव न मैंने सुना है और न हो देखा है । क्योंकि "हरि, हर और ब्रह्मा प्रादि प्रबल देवोंको भी आपने इस तरहसे परास्त कर दिया है कि वे निलंज्ज होकर आज भी अपनी अङ्घको नारो-शुन्य नहीं कर रहे हैं।" मोह कामसे कहने लगा-देव, इस प्रकार एक तो जिनराजका इतना साहस ही नहीं कि वह आपका सामना करनेके लिए समराङ्गणमें आ सके । यदि कदाचित् आया भी तो यह निश्चय है कि वह आपका कुछ भी बिगाड़ न कर सकेगा । उसे पकड़कर वेड़ियाँ पहिना दी जावेंगो और वह अविचार-कारागारमें डाल दिया जायेगा। ____ मोहकी बात सुनकर कामने बन्दी बहिरात्माको बुलाकर कहा- अरे, बहिरात्मन् यदि तुम आज मुझे जिनराजका साक्षात्कार करा दो तो मैं तुम्हारा बहुत संमान करूंगा। इस प्रकार कहकर कामने अपने नाम से प्रति एक कटि-सूत्र बन्दीके हाथ में दिया और उसे शीघ्र ही जिनराजके पास भेज दिया। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] मदनपराजय . * ४ अषाऽसौ बन्धी जिनसकाशमागत्य प्रणभ्योवाचदेव देव, सम्प्राप्तोतसरमयमनको निजदूतापमानमाकर्ण्य । देव, तत्त्वयेदमशुभं कृतं यदनेन मकरध्वजेन सह युद्धमारब्धम् । अन्याय, यद्यपि तस्य मकरध्वजस्य भयात् स्वर्गे गमिष्यसि तत्वां सहेन्द्र हरिष्यति । यदि कथमध्यधुना पातालं प्रविश्य (श)सि तत् सफणीन्द्र वषिष्यसि । यदि तोयनिषौ प्रविश्य (श) सि तज्जलं संशोण्य असून गहोष्यति । देव, तत् किमनेन भरिप्रोक्तन । यदि भवान् सङ्गरकामस्तस्मरकठिनकोदण्डाद्विमुक्ता बाणावली प्रतिसहस्व । अथवा, तस्य भुत्यस्वेन जीव । अन्यान प्रस्थापिता मम करे निजधोरवीरनामावली च मवनेन शृणु प्रभो त्वम् । कोऽस्तीनियोधविजयो तव सैन्यमध्ये कोऽप्यस्ति दोषभयगारबधीरजेता ? ॥२६॥ कोऽप्यस्ति यो व्यसनदुष्परिणाममोहशल्यालवादिविजयी बद हे जिनेन्द्र । मिथ्यात्ववीरसमराणंबमज्जांच फस्तारकस्तव बले कथय त्वमेव ? ॥२७॥ इत्यादियोरनिचयस्य पृथक्-पृथक्को नाम (नामाद्यवोरमबधारयितुं समर्थः । चेत् सन्ति ते वरभटाः परिमार्जयन्तु नामावलोमल मिमामथवा नमन्तु ॥२८॥ * ४ तदुपरान्त बन्दो जिनराजके पास पहुँचा और उन्हें प्रणाम करके कहने लगा--देवदेव, आपने कामके दूतका इतना धोर अपमान किया कि जिसके कारण काम आपके ऊपर चढ़कर आ गया Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिद है । और आपने यह और हो अभद्र काम किया जो काम के साथ युद्ध करना प्रारंभ कर दिया। लेकिन मालूम होता है, आप इस युद्ध में विजयी न हो सकेंगे और आपको समराङ्गणसे भागना पड़ेगा। उस समय कामके डरसे और आत्म-रक्षाको दृष्टिसे यदि तुम स्वर्ग भी पहुंचे तो वहाँ मी तुम्हारी रक्षा न हो सकेगी। काम वहाँ भी पहुँचकर इन्द्रसहित तुमको खींच लावेगा । यदि तुमने पाताल में प्रवेश किया तो काम पाताल में भी पहुँचकर शेषनागसहित तुम्हें मार डालेगा । और यदि सागरमें प्रवेश किया तो काम वहाँ भी पहुंचकर उसके जलको सुखा देगा और तुम्हें पकड़ लावेगा । जिनराज, मुझे इस सम्बन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है । यदि अब भी तुम्हारी इच्छा संग्राम करनेकी है तो कामके कठिन कोदण्उसे छोड़ी गयी बाणावलीका सामना करो और यदि तुम्हारा युद्ध करनेका विचार न हो तो कामको दासता स्वोकार कर लो। इसके अतिरिक्त एक बात और है। जिन राज, कामने हमारे हाथमें कुछ धीर-वीर पुरुषोंको नामावली दी है। तुम उसे देखो और बतानो कि क्या तुम्हारी सेनामें ऐसा कोई धौर-वौर सुभट है जो इन्द्रिय, दोष और भय सुभटोंको जोत सके। साथ ही वह अपना वीर भी बतलाइए जो व्यसन, दुष्परिणाम, मोह, शस्य और प्रास्रव आदि सुभटोंको जीत सके तथा मिथ्यात्व-वीरके द्वारा समर-सागरमें डुबोए जानेवाले योधाओंको बचा सके। बन्दी कहता गया - कामने कहा है कि इस प्रकार हमने अपनी सेनाके कतिपय वोरों की हो यह संख्या गिनायी है । समस्त वीरोंके नाम कौन गिना सकता है। इसलिए यदि आपके यहाँ इन योद्धाओंके प्रतिद्वन्द्वी योधा है तो आप इस नामावली में संशोधन कर दीजिए और यदि आपके यहाँ इनकी जोड़के कोई योधा नहीं हैं तो चलकर कामदेवकी अधीनता स्वीकार कीजिए। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] मदनपराजय ५ तत्कठिनवचनं श्रुत्वा सम्यक्त्ववीरोऽप्यनवीतअरे बंदिन, मया मिथ्यात्वसंज्ञको वीरोऽङ्गीकृतः। पंचमहावतः पंचेन्द्रियाण्यङ्गोकृतानि । केवलज्ञानेन मोहोऽङ्गीकृतः । शुक्लध्यानेनाष्टादश दोषा अंगीकृताः । तपसा कम्मविश्वाङ्गीकृतः । सप्ततत्वैर्भयवीराः । अज्ञानं श्रुतशानेन । प्रायश्चित्तैः पाल्य त्रयम् । मारवाश्चारित्रेणाङ्गोकृताः । सप्तथ्यसनानि दयाधर्मेणांगीकृतानि । एवमादि परस्परं वरवीरलक्षनरेन्द्राः अङ्गोकृताः । सोनई अधिनं अति जितेनोक्तम्अरे, बन्दिन्, यदद्य सङ्ग्रामे मम मारं दर्शयसि तत्तुभ्यं बहुदेशमण्डलाला कारच्छत्रादीनि दास्यामि । स चाह-वेव, यद्यत्र क्षणमेकं स्थिरो भविष्यसि तत् समोहं कृतसअरमनङ्ग दर्शयिष्यामि । एवमाकर्ण्य निर्वेगः सङ कुवधमानो भूत्वा (संध्यन्) प्रयोचत्-अरे भ्रष्ट, तवैतवचनमप्रस्तुसं प्रभूतमुपसहितम् । प्रतो यदि किंचिद्वदिष्यसि तधिष्यामि । ततः स बन्दी चाह-भो निर्वेग, किमेवं जल्पसि, कोऽस्मिन्नस्ति यो मां हन्ति । एतक्षाकर्ण्य निगेणोत्थाय तस्य बन्दिनः शिरोमुण्डनं मासिकाछेवञ्च कृत्वा द्वारावाहिनिष्कासितः । ततो घृतसिक्तानलवत् कोपं गत्वाऽब्रवीत्-हे निचेंग, युष्माकं चेदनङ्गहस्तेन यमायतनं न दर्शयामि तदहमनङ्गचरणद्रोहको भवामि । एवमुक्त्वा निगतो बन्दी । * ५ बहिरात्मा बन्दोकी बातको सम्यक्त्व-वीर सुन रहा था। उसे बन्दीका यह वार्तालाप बहुत अशिष्ट मालूम हुआ । उसने कहाबन्दिन्, तुम क्या बेकार अनर्गल प्रलाप कर रहे हो ? मैं मिथ्यात्वसे लगा। पांच महाग्रत पञ्चेन्द्रिय-सुभटोंसे युद्ध करेंगे। केवलज्ञान मोहसे संग्राम करेगा। शुक्लध्यान अठारह दोषोंके लिए पर्याप्त Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ ११५ होगा तप कर्मों के साथ जुटेगा । सात तत्व भय-वीरोंके साथ युद्ध करेंगे । श्रुतज्ञान अज्ञानका सामना करेगा। प्रायश्चित तीन शस्योंसे भिड़ेगा | चारित्र अनर्थदण्डोंसे लड़ेगा ! दया-धमं सात व्यसनोंके साथ संग्राम करेंगे। इस प्रकार हमारे दलके लाखों योधा तुम्हारे सुभटोंके साथ लड़ने के लिए तैयार हैं। सम्यक्त्व और बहिरात्माकी इस चर्चा के प्रसङ्गमे जिनराजने बन्दीसे कहा- बन्दिन्, यदि आज रणस्थली में तुमने कामका साक्षास्कार करा दिया तो तुम्हें बहुत देश, मण्डल अलङ्कार प्रौर छत्र श्रादिक पारितोषिक में दूँगा ! उत्तर में बहिरात्मा जिनराज से निवेदन करने लगा - देव. यदि आप यहाँ क्षण भरके लिए स्थिर रहें तो मैं रणाङ्गरण में प्रद तरित हुए मोहसहित कामको दिखला सकता हूँ । बहिरात्माकी इस बातसे निवंगको बड़ा क्रोध हो प्राया । वह कहने लगा - अरे नीच, तू हमारे स्वामीका इस प्रकार उपहास कर रहा है । चुप रह | अब यदि एक भी शब्द मुँह से निकाला तो मैं तेरे प्राण ले लूंगा । बन्दी कहने लगा -- अरे निर्वेग, क्या कह रहे हो ? दुनियां में ऐसा कौन है जो मेरे प्राण ले सके । निवेंगने ज्यों ही बन्दीकी बात सुनी उठकर खड़ा हो गया और बन्दीका सिर घोंटकर उसकी नाक काट डाली तथा उसे समिति - भवन के द्वारसे बाहर निकाल दिया । इस व्यवहारसे बहिरात्मा कोसे इस प्रकार जल उठा जिस प्रकार घोके पड़ने से आग भभक उठती है । यह निवेंगसे कहने लगा-निर्वेग, यदि कामके हाथसे तुझे यमलोक न पहुँचा दूँ तो तू मुझे कामदेवका द्रोही समझना । बहिरात्मा बन्दी इस प्रकार कहकर वहाँ से चल दिया | Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनपराजय *६ ततस्तमागच्छन्तमेवंविधं मकरध्वज प्रति कश्चिद् दृष्ट्वा परस्परं विहस्योक्तम्-ग्रहो, पश्यत पश्यत बन्दिनोऽवस्थाम् । कोडशो मूत्वाऽऽगच्छति ? ततः स उवाच-अहो हताश, प्रथमं ममैवं संजातम् । अधुना युष्माकमपीत्थमेवं (व) भविष्यति । यतो यस्मिन् कार्ये प्रथमं यादृशी शकुनलग्थिः स्यात्ताशं तत्कायं भवति । तव में प्रथम संजातम् । तदत्रवेदं शकुनम् । तदधुना यद्यस्ति शक्तिस्तबुद्ध क्रियते (ताम)। अथवा वेशस्यागेन जीच्यते (साम्)। एवं भामा सो नलिसमापन-अरे बहिरास्मन्, स जिनः किं वदति ? तदाकर्ण्य सम्मुखो भूत्वाऽब्रवीद् बन्दीहे स्वामिन, पश्यन्नपि कि न पश्यति ? अन्यच्च जनो जनोक्ति या(या) व ते सा सत्याऽस्मिश्च दृश्यते । विद्यमान शिरो हस्ते कति धाताश्च तत्करे ॥२६॥ तथा च कोऽस्मिल्लोके शिरसि सहते यः पुमान् वज्रघातं कोऽस्तोरा यस्तरति जलधि बाहुबण्डरपारम् ? कोऽस्यस्मिन् यो बहनशयने सेवते सौख्यमिद्रा ग्राससिगिलति सततं कालकूटंच कोऽपि ॥३०॥ अन्यरुचसन्तप्तं द्र तमायसं पिबति कः को पाति कालगृहं को हस्तं भुजगानने क्षिपति वे कः सिंहवंष्टान्तरे । कः शृङ्ग यममाहिषं निजकरैरुत्पाटयत्याशु में कोऽस्तीहग जिनसम्मुखो भवति यः संग्रामभूमौ पुमान् ॥३१॥ (युग्मम्) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं परिच्छेद [ ११७ एवं बन्दिनो वचनमाकर्ण्यादिणलोचनः क्र दुधमानो भूत्वा (घन् ) निर्गतो मकरध्वजः । तद्यथासीमां यथाऽपास्य विनिर्गतोऽम्बुधिः केतुचा क्रुद्धशनैश्चरो यथा 1 यथा कल्पान्तकालेऽनुतपादको विनिर्गतो भाति तथा मनोभवः ॥३२॥ तस्मिन्नवसरे तस्यापशकुनानि बभूवुः । तद्यथाशुरुकारिष्टस्थितोऽरिष्टो विरोति विरसस्वनैः । पूर्वदिव्यांक्षवज्जाता पथि वामो गतः फणी ॥ ३३ ॥ लग्नोऽनलः प्रचण्डश्च खररवो खरोलूको । [eat] शूकरशशको गोधानकुलौ शिवासखा (खः ) ॥ ३४ ॥ तास्रेण सुमु (शुभको रोदिति कर्णो धुनोति सम्मुखो भूत्वा । दृष्टो रिक्तघटो वे पुरतः शरदं तथा तु ( तथौतु ) महाक्षीत् ।। ३५|| तथा च अकालवृष्टिस्त्वथ भूमिकम्पो निर्वातमुल्कापतनं प्रचंडम् । इत्याद्यनिष्टानि ततो बभूवुनिवारणार्थे सुहृदो यथैष । ३६ । एतान्यपशकुनान्यवगणय्यमाणो ( न्यवगणयमानो ) मदनो यावन्निर्गतस्तावत्तस्मिन्नवसरे यादृशं यत्प्रवृतं तन्निरूप्यते । दिक्चक्र चलितं भयाज्जलनिधिर्जातो महाप्राकुलः पाताले चकितो भुजङ्गमपतिः क्षोणीधराः कम्पिताः । भ्रस्ता सुपृथिवो महाविषधरा क्ष्वेडं वमन्त्युत्कटं जातं सर्वमनेकधा रतिपतेरेवं चमूनिर्गमे ।। ३७ ।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] मदनपराजय तथा च पवनगतिसमानरश्वयूषैरनन्तमंदधरमजयूथै राजले सैन्यलक्ष्मीः । ध्वजचमरवरात्रावृतं एवं समस्तं पपटहमृबङ्ग रिनास्त्रिलोकी ॥३॥ अश्वाङ प्रचाहतरेभिर्बहुतराप्तं स्वशेष नभः छत्ररावृतमन्तरालमखिलं ज्याप्ता च वीरैरा । निर्घोष रथः स्व नः प्रपतितं (तः) कर्णेऽपि न भूयते धीराणां निनदः प्रभूतभयदेय क्ता प्रपना चमूः ॥३६।। *.६ जब कामदेवके कतिपय सुभटोंने बन्दीको इस प्रकार विकलाङ्ग रूपमें प्राते हुए देखा तो उन्हें बड़ी हँसी आयी। वे कहने लगे-अरे, देखो-देखो, बन्दी कैसी दुखद अवस्थामें पा रहा है ! बन्दी इन लोगोंको इस प्रकार उपहास करता हुआ देखकर कहने लगा-अरै मूखों, मुझे देखकर क्यों हँस रहे हो । अभी मेरो यह दुर्गति हुई है और आगे तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है। कारण जिस कार्य में पहले जैसे शकुन दिखते हैं उस कार्यका अन्त भी लगभग उसो प्रकारका होता है। जब मेरी इस प्रकार की दुर्गति हुई है तो कह नहीं सकता कि इस युद्ध का परिणाम स्वामी के हित में किस प्रकार का रहेगा। इसलिए आप लोग अच्छी तरहसे सोन लीजिए । यदि हम लोगों में जिनराजको सेनाके सामना करनेकी शक्ति हो तो ही हम लोगोंको लड़ना चाहिए। अन्यथा इस देशको छोड़कर यहांसे चल देना चाहिए। जिससे जीवन-रक्षा हो सके । कामदेव बन्दीकी यह बातें सुन रहा था। उसने बन्दीको बुलाया और उससे कहने लगा---अरे बहिरारमन्, बतलाओ तो वह जिनराज क्या कह रहा है ? कामदेवकी बात सुनकर बन्दी उसके Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ ११९ सामने उपस्थित हुआ। कहने लगा-स्वामिन्, श्राप देखते-समझते हुए भी पूछ रहे हैं कि जिनराज क्या कह रहा है ? वह कहने लगा लोग जो “हाथ कंगनको प्रारसो क्या" वाली किंवदन्ती कहते हैं वह इस सम्बन्ध में पूर्णतया लागू हो रही है । यह बात वैसी ही है, जिस प्रकार किसी प्रादमीका कटा हुआ सिर अन्य किसी व्यक्ति के हाथपर रक्खा हो और लोग पूछे कि उस आदमी के हाथमें कितने आघात लगे हैं ? - और स्वामिन् मेरी यह खुली घोषणा है जिस प्रकार संसार में कोई पुरुष सिर पर वज्रका आघात नहीं झेल सकता, बाहुप्रोंसे अपार समुद्र-तरण नहीं कर सकता, आगपर सुखपूर्वक शयन नहीं कर सकता. विषको ग्रास ग्रास रूपसे भक्षण नहीं कर सकता, संतप्त और पिघले हुए लोहका पान नहीं करसकता, यमराज के प्रालय में प्रवेश नहीं कर सकता, सांप और सिके मुहमें हाथ नहीं डाल सकता, और अपने हाथसे यमराजके महिषके सींग नहीं उखाड़ सकता है उसी प्रकार ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो समर भूमि में जिनराजका सामना कर सके । बन्दोकी यह बात सुनकर कामदेव के नेत्र क्रोधसे लाल हो गये । और जिस प्रकार कल्पान्तकाल में समुद्र सीमा तोड़कर आगे निकल जाता है, केतु और शनैश्चर क्रुद्ध हो जाते हैं और अग्निदेव प्रचण्ड हो जाता है उसी प्रकार कामदेव भो जिनराजके साथ युद्ध करनेके लिए चल दिया । १. कामदेवने जैसे ही जिनराजपर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान किया, उसे निम्न प्रकारके अपशकुन दिखलायी दिये : ( कोबा सूखे वृक्षपर बैठा हुआ विरस ध्वनि करने लगा । पूर्व दिशा की ओर कविको पक्ति उड़ती हुई दिखलायो दी। और सांप मार्ग काटकर बायीं ओर चला गया । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] लगा । द्विये । मदनपराजय प्रचण्ड आग लग गयी । गधा और उल्लूका तीखा स्वर होने शूकर, खरगोश, छिपकली, नकुल और मृगाल भी दिखलाई कुत्ता सामने आकर रोने लगा और कान फटफटाने लगा । दुष्ट पुरुष, खाली घड़ा और गिरगिट भी सामने दिखलायी दिये । असमय में वर्षा होने लगी । भूकम्प होने लगा । वज्र और उल्कापात होने लगा । - कामदेवको यात्रा के समय यह सब घोर अपशकुन हुए जो एक सहृदय मित्रको भांति इस बातको व्यक्त कर रहे थे कि कामदेवको इस समय अपनी यात्रा श्रवश्य स्थगित कर देनी चाहिए । कामदेव ने इन अपशकुनोंको देखा और उसे अनुभव हुआ कि इस समय हमारा जाना श्रेयस्कर नहीं है । फिरभी वह लड़ाईके लिए निकल ही पड़ा । उस समय भय से दिशाएं चलित हो गई। समुद्र भी भत्यन्त व्याकुल हो उठा । पाताल में शेष नाग और मध्यलोकमें पर्वत कम्पायमान हो गये । पृथ्वी घूमने लगो और महान् विषधर विषवमन करने लगे । उस समय पवनके समान अनन्त घोड़ों और मदोन्मत्त हाथियोंसे सेनाकी शोभा द्विगुणित हो गयो । श्राकाश ध्वजाओं, चामरों और अस्त्रोंसे खचाखच भर गया । भौर नगाडे मृदङ्ग तथा भेरियोंकी ध्वनि तीनों लोकमें व्याप्त हो गयी । श्रर गगन मण्डल अश्वोंके पद रजसे सम्पूर्णतया आच्छन्न हो गया । छत्रोंसे समस्त मध्यभाग व्याप्त हो गया और पृथ्वी वीरोंसे आक्रान्त हो गई । रथोंकी चीत्कारसे कान इतने भर गये थे कि कोई शब्द भी सुनाई न पड़ता था। उस समय सेना में केवल वीरोंके भयंकर शब्द ही सुनायी पड़ रहे थे । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतुर्थ परिच्छेद [ १२१ * ७ एवमुभयसन्यकोलाहलमाकये सज्वलनेनैव हृदि चिन्तितम्-किमयमनको मूर्खः ? यतो जिनमलं सबलं दश्यते : तरिक करोमि । उक्त च यतः"उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये । पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्द्धनम् ||४|| प्रायः सम्प्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निहू ननासिकस्यैव विशुद्धादर्शदर्शनम् ।।५।। मूर्खत्वं हि सखे ममापि रुचितं तस्मिस्तदष्टौ गुणा निश्चिन्तो बहुभोजनो वठरता रात्री दिवा सुप्यते ! कार्याकार्यविचारणान्धवधिरो मानापमानौ समौ दतं सर्वजनस्य मूनि च पदं मूर्खः सुखं जीवति ।।६।। मूर्खरपक्वबीधेश्च सहालापैश्च (पे च) तुष्फलम् । वाचां व्ययो मनस्तापस्ताडनं दुष्प्रवादनम् ।।७।।" इति । तथापि परं किंचिडणिष्यामि यतोऽयमस्मस्वामी । एवमुक्त्वा सम्मुखो भूत्वाऽब्रवीत्-देव, दुर्द्ध रोऽयं जिनराजः । ततः किमनेनन्छलेन प्रयोजनम् ? ततः स्मर ऊधे-अरे मूढ, क्षत्रियाणां छलाचं जीवितम् ? उक्त च "यज्जीव्यते क्षणमपि प्रथितं मनुष्यविज्ञानशौर्यविभवा-गुणैः समेतम् । तनाम जीवितफलं प्रवदन्ति तज्ज्ञाः काकोऽपि जीवति चिरञ्च बलिञ्च भुङ्क्ते ॥८॥" अन्यच्च-प्रथमं मे रत्नानि महीत्वा गतः । द्वितीयं मम दूतापमानं कृतम् । तृतीयं जगत्प्रसिद्धबन्दिनो नासिकाछेदः Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ । मदनपराजय कृतः । चतुर्थ स्वयमेवा क्रम्यागतोऽस्ति । तदंतच्छल सिद्धपङ्गनाथ परित्यजन् न लज्जेऽहम् । अन्यच, यदि कथमपि जिनं संग्रामे प्राप्नोमि, तत्सुरनरकिन्नरयक्षराक्षसफणीन्द्रादीनां यत् कृतं तत् करिष्यामि । यतो हि प्रसूतदिवसपर्यन्तं स्वगृहाभ्यन्तरे गजनां कुर्वन् सुखेन स्थितः । अतो महामुरायां पतितः कुतो यास्यति । उक्त च"तावच्छौर्यं ज्ञानसम्पत् प्रतिष्ठा तावच्छीलं संयमः स्यात्तपश्च। तावत् सिद्धिः सम्पदो विक्रमो वै यावत् क्रुद्धः सङ्गरे नाहमेकः ।।६।।" * इस प्रकार दोनों पक्षकी सेनाओंका कोलाहल सुनकर नंज्वलनने अपने मनमें सोचा कि क्या कामदेव मूर्ख हो गया है जो उसे यह भी मालूम नहीं है कि उसकी सेना कहाँ तक शक्ति-सम्पन्न है ? समझमें नहीं पाता कि स्वामोके पास जाकर क्या कहूँ ? क्योंकि "मुखं पुरुषोंको उपदेश देनेसे उन्हें क्रोध ही आता है। बातका समाधान तो कुछ होता नहीं। जिस प्रकार सांपको दुग्ध-पान करानेका परिणाम विष-वृद्धि ही होता है। जिस प्रकार नासिकाविहीन पुरुषको दर्पण बुरा लगता है उसी प्रकार मूर्ख पुरुषको सन्मार्ग का उपदेश भी अच्छा नहीं मालूम देता। संज्वलन सोचता है---वैसे मूर्खता मुझे बड़ी अच्छी लगती है। क्योंकि उसमें आठ गुण हैं-- मूर्ख आदमी निश्चिन्त रहता है। बहुत भोजन करता है । उसकी पाचनक्रिया ठीक रहती है। रात-दिन सोनेको मिलता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धतुर्थ परिच्छेद [ १२३ कर्तव्य-प्रकर्त्तव्य का विचार नहीं करना पड़ता। किसीकी बातपर ध्यान नहीं देमा पड़ता है। मान-अपमान नहीं मालूम देते और सबके सिर-माथे रहनेका अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार मूर्ख मनुष्य सदैव सुखपूर्वक जीवनयापन करता है । अपक्वज्ञानी मूों के साथ वार्तालाप करनेके चार परिणाम हैं :-वाणीका सय, मानस्ताप, दण्ड गोर उमाका नकदार ! संज्वलन मन में सोचता है -यद्यपि यह बात है, फिर भी कामदेव हमारा स्वामी है । इसलिए मुझे उससे इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ अवश्य कहना चाहिए। यह सोचकर संज्वलन कामदेवके सामने पहुंचा । और कहने लगा--स्वामिन् पाप जिनराज को जीत नहीं सकते। फिर यह छल क्यों कर रहे हैं ? कामदेव कहने लगा-अरे मूढ़, क्षत्रियोंको वृत्तिको न छल बतला रहा है । क्या तुझे जीवनको परिभाषा नहीं मालूम है ? "मनुष्योंका यदि एक क्षण भी विज्ञान शौर्य, विभव और आर्यजनोचित प्रवृत्तियोंके साथ व्यतीत होता है, बुद्धिमान् उसे ही जोवनका फल कहते हैं। वैसे तो कौवा भी चिरकाल तक जीवित रहकर अपनी उदर-पूर्ति करता रहता है ।" कामदेव कहता गया-संज्वलन, फिर जिनराजने जितने अपराध किए हैं. हम उन्हें क्या-क्या गिनावें । पहले तो इसने हमारे रत्न चुराये । दूसरे हमारे दूतका अपमान किया। तीसरे जगप्रसिद्ध बन्दीकी नाक काटी और विरोधाग्निको पहले की अपेक्षा और अधिक प्रज्वलित किया । और त्रीथे यह हमारे ऊपर स्वयं ही चढ़कर भागया है। संज्वलन तुम्हारी दृष्टिमें यदि यह छल हो है तो मैं सिद्धि. अङ्गताके लिए उसे छोड़कर लज्जित नहीं होना चाहता। और यदि Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] मदनपराजय मैं जिनराज को किसी तरह संग्राममें प्राप्त कर सका तो उसकी भी वही दशा करूंगा जो सुर, नर, किन्नर, यक्ष, राक्षस और फणीन्द्रोंकी को है। अब तक जिन राज अपने घरमें बैठकर ही गरजता रहा है। अब मेरे जालमें प्रा फंसा है और देखते हैं कि इस जालसे वह किस प्रकार निकलता है। क्योंकि "पुरुषोंके शौर्य, ज्ञान, सम्पत्ति, प्रतिष्ठा शील, संयम, चारित्र. सिद्धि, सम्पत्ति और पराक्रम तभी तक साथ देते हैं जब तक मैं ऋद्ध होकर रणाङ्गणमें अवतीर्ण नहीं होता।" * ततो बन्दिनाऽभिहितम्-देव, पश्य पश्य । सम्प्राप्तः सम्प्राप्तोऽयं जिननाथः तत्किमेवं गलगर्जसि । एचमुक्त्वा बन्बो स्मरं प्रति जिनसुभटान वर्शयामास । तथा च पश्य निवेगवीरोऽयं खड़गहस्तो महाबलः । पश्य बण्डाधिनाथोऽयं सम्यक्स्वाख्यो हि बुद्धरः ।४०। सम्मुखो दुद्धं रोऽयं ये तस्वीरोऽतिदुर्जयः। सम्प्राप्ताः पश्य पश्यते महानतनरेश्वराः ॥१॥ ज्ञानवीरा महाधोरा पैजितं सचराचरम् । पश्यायं संयमो वीरो वैरिणामपरो यमः ॥४२॥ एवमाधनन्तं जिनसंन्यं यावदन्दिना शितं तावन्मबनवलं वेगेन निर्गतम् । ततोऽनन्तरं जयका (क) रणार्थ दलयुगलमामिलितम् । तद्यथा तोरर्वाचालभल्लः परशुहयगदामुद्गरान्चाप नाराचैभिण्डिमा( पा)ला (सः)हलझषमुसलेः शक्तिकुन्तैः कृपाणः । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १२५ पट्टीशैश्चक्रवज्रप्रभृतिभिरपरंदिव्यशास्तथास्त्र रन्योन्यं पुखमेवं मिलितबलयुगे वर्तते सटानाम् ।।३। तथा च एके वे हन्यमाना रणभुवि सुभटा जीवशेषाः पतन्ति ह्य के मूच्छी प्रपन्नाः स्युरपि च पुनसन्मूछिता व भवन्ति । मुञ्चन्त्येकेट्टहासं निजपतिवृत्तसम्मानमा प्रसावं स्मृत्वा धावन्ति चाग्रे जिनसमरभयाः प्रौढियन्तो हि मूत्वा ॥४४॥ एके वे कातना समरभरतपरत प्रासमत्यादयन्सि ह्म के सम्पूर्णघातरुपहतवपुषो नाकनारोप्रियाः स्युः । एके ये धीरधैर्या रिपुहसजठरालम्ब्य(म्ब)मानान्त्रजालाघातः संभिन्नवेहा अपि भयरहिता परिभिर्यान्ति योदम ॥४५॥ एके विभ्रान्तनेत्रास्त्रुटितपदभुजा शोरिणलिप्तदेहाः सङनामेभान्ति वीरा दवतरगहने पुष्पिता:किशुकाः स्युः। अन्योन्यं बाणघातोच्छलितभशिरोराहुशङ्करं दधेर्को युद्ध मिथ्यास्वनाम्नस्थिति समरभरे वर्तते दर्शनस्या४६। एवं यावबुभौ विग्रहं कुरुतस्तावधो जिनस्थानणोदर्शनवीरः स मिथ्यात्ववीरेण सनराम्ये भङ्गमानीतः । तावत् कोशः सङ्गरार्णवः । तद्यथा मैदोमांसवसादिकद्दमयतो रक्ताम्भसा पूरितः प्रध्वस्ताश्वखुरौघशुक्तिसहितः छत्रादिफेनाकुलः । नानावीरकिरीटमौक्तिकमहारत्नादिशिक्ता( सिकता ) वितो मिथ्यात्वा तबाश्वानलयुतः कोलाहलमजित: ।४७। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] मदनपराजय सत्रासिमरिकाशिस्त्रनिचयो भातीव मीनाकृतिः केशस्नायुशिराप्रकालनिचयः शवालयद् एश्यते । यानीभेन्द्रकलेवराणि पतितानीगरणाम्भोनिषौ पोतानीव विभान्ति तानि रुधिरे वाऽस्थीनि शाखा इव ॥४८॥ वीक्ष्येसणसागरं जिनपतेः संन्यञ्च नश्यस्यलं मागं त्यज्य(स्यक्त्वा धर्म)विशत्यमार्गनिमये दोना(न) जनं (ना)शङ्कितम् । धीरत्वं स्वपतेनं लक्षयति तदानछत्यही मन्दिर मिथ्यात्वस्य भयानरेषु शरणं गच्छत्स्वनेकेषु च ॥४६॥ त्यक्तारमशरणं जातमतीचारे प्रसितम् । कस्था मन्यते नाशा मयस्वति तान्जतम् ॥५०॥ * ८ इतने ही में बन्दोने कहा-स्वामिन् देखिए; जिनराज पागये । आप यह क्या गला फाड़ रहे हैं ? यह कह कर वन्दी कामके लिए जिनराजके सुमट दिखलाने लगा। ___वह कहने लगा-देखो, यह अत्यन्त बलवान निवेग वीर है, जिसके हाथमें खड्ग चमक रहा है। और यह दण्डाधिपति सम्यक्त्व है, जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता। सामने यह दुर्जय और दुःसह तत्त्व-वीर है, और देखो-देखो, यह महावत-राजा भी आ गए हैं । ___साथ ही चराचर विजेता और महाधीर यह, ज्ञान-वीर हैं और देखो, यह संयम वीर है जो रियोंके लिए द्वितीय यमकी बन्दी इस प्रकारसे कामदेवको जिनराजको सेनाकै सेनानियों का परिचय करा हो रहा था कि इतने में कामकी सेना वेगसे आगे निकल गयो और जिनराज तथा कामकी सेनामें भयंकर संघर्ष छिड़ गया । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १२७ उस समय तोर, भाला, फरसा, मदा, मुद्गर, धनुष, बाग भिण्डि, हल मुसल, शक्ति, कुन्त, कृपाण. चक्र और दिव्य अस्त्रशस्त्रोंसे दोनों दलफे योधाओंमें युद्ध होने लगा। इस युद्धकालमें अनेक सैनिक भरे मोर जोवन-शून्य होकर पृथ्वोपर गिर गए। कुछ मूच्छित हो जाते थे और कुछ पुन: सावधान होकर लड़ने लगते थे। किन्हींका हंसना बन्द हो गया था और कुछ अपने स्वामीका प्रोत्साहन प्राप्त करके स्वामीके प्रागे-आगे दौड़ रहे थे। अनेक सैनिक युद्धसे डरकर कातर हो गये | कोई सम्पूर्ण शरीर में प्राघात पहुँचनेसे मर गये और स्वर्ग में जाकर देवाङ्गनारों के प्रेम-पात्र हुए। कुछ धीर-वीर सैनिक इस प्रकारके थे जो शत्रुओंके आघातोंसे शरीरकी अन्सड़ियां कट जानेपर भी निर्भय होकर वैरियोंके साथ युद्ध करते रहे। कुछ सैनिकोंकी प्रांखे फिर गयीं। किन्हींके हाय-पांव कट गये । और किन्हीके शरीर खूनसे लथ-पथ हो गये । इस युद्धकाल में वे वीर सेनानी इस प्रकारसे मालूम हुए असे वृक्षारली-मण्डित प्ररम्य में किंशुक फूले हुए हों। उस समय बाणोंके प्रहारसे अनेकों कटे हुए शिर उछलते थे जो राहुके समान प्रतीत होते थे और उनसे ऐसा मालूम देता था जैसे अनेकों राह और सूर्य का युद्ध हो रहा हो । इस प्रकार मिथ्यारव और दर्शनवीरका यह युद्ध अत्यन्त भयंकर था । इस तरह मिथ्यात्व और मिनेन्द्र के अग्रणी दर्थनबीरका परस्पर युद्ध हो हो रहा था कि मिथ्यात्वने दर्शन-बीरको समरभूमि में पछाड़ दिया। उस समय समरार्णव इस प्रकारसे प्रतिभासित होने लगा जिनेन्द्रका संन्य-सागर मेदा, मांस, चर्बी आदि कीचड़से युक्त हो गया । खूनके जबसे भर गया । घोड़ोंको टूटी हुई खुररूपी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] मदनपराजय शुक्तियोंसे पूर्ण हो गया और छत्ररूपी फेनसे वह प्राकुल हो गया । उनके वीरोंके मुकुटोंमें जड़े हुए मोती और महान रत्नोंकी रेतसे अन्वित हो गया। मिथ्यात्वरूपी अद्भुत बड़वानल सस में प्रवेश कर गया और कोलाहलसे गर्जना करने लगा। इस संन्य-सागरमें तलवार, छुरी प्रादि अस्त्र-समूह मीनके समान प्रतीत हुए। केश, स्नायु, नाड़ियाँ और अंतड़ियाँ सेवालके समान प्रतीत हुईं। हाथियोंके कलेवर पोतोंके समान मालूम हुए और हड्डियां शंखोंके समान मालूम हुई । * ६ यावदेवं प्रवत्तंते तावद्गगनस्थिता ब्रह्मासास्त्रियशाः कौवहलं विलुलोकिरे । तत्र पितामहः प्रोवाच-भो सुरनाष, पश्य पश्य जिनस्य सैन्यं भज्यमानं दृश्यते । ततः शचीपतिरबोचत-भो अम्भोजभव, या नर्वेमसहित: प्रचण्डसम्यक्त्ववीरः न प्राप्नोति ताबज्जिनसैन्यस्य भङ्गो भविष्यति । तदिदानी क्षणमेकं स्थिरीभव, यावत्सम्यक्स्वनिःशाशक्तिघातेन शतखण्डोमूतं मिथ्यात्वं न दर्शयामि । पुनः स चाह-भो शक्र, यदि कथमपि मिथ्यात्वस्य भङ्गो भविष्यति सम्मोहमल्लः केन जेतव्यः ? उक्त'च "न मोहाबलवान् धर्मस्तथा दर्शनपञ्चकम् । न मोहाद्वलिनो देवा न मोहाबलिनोऽसुराः ॥१०॥ न मोहात सुभटः कोऽपि त्रैलोक्ये सचराचरे । यया गजानां गन्धेभः शत्रूणाञ्च तथैव सः ।।११।।" तच्छ त्वा सुरेन्द्रो विहस्योवाच-हे पनयोने, तावन्मोहस्य पौरुषं यावत् केवलज्ञानवीरो न दृश्यते । उक्त च यतः Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १२९ "निद्रामुद्रितलोचनो मृगपतिविद्गुहां सेवते तावत्स्वैरममी चरन्तु हरिणा: स्वच्छन्दसञ्चारिणः । उन्निद्रस्य विधतकेसरसटाभारस्य निर्गच्छतो नादे श्रोत्रपथं गते हतधियां सन्त्येव दीर्घा दिशः ॥१२॥ तावद्गर्जन्ति फूत्कारैः कागवेया विषोत्कटा: । यावन्नो दृश्यते शूरो बैनतेयः खगेश्वरः ।।१३।।" ततः पङ्कजभवोऽयोवत्-भो कुलिशधर, यदि कथमपि संग्रामे केवलज्ञानबीरेण मोहो जितस्तन्मदनराजस्य मनोमातङ्गपावन्तं धत्तुं कः समर्थोऽस्ति ? तदेतदनिष्ट जिनेपवरेण कृतं यदनेन सह युद्ध कर्तुमारब्धम् । यतोऽस्माभिरस्य पौरुषं इष्टं श्रुतमनुमूतमस्ति । अन्यच्च, ये ये चानेन जितास्तान् प्रकटान् कि कथयामि । एवमुक्त्वा सम्मुखं गत्वा सुरेन्द्र श्रवणे सकलं वृत्तान्तमाय (य)त् । 'अहं शबूरो हरिश्वेति त्रयोऽप्येकत्र मिलिस्वा वयं मवनोपरि युद्धाचं चलिताः। ततोऽनन्तरं शङ्कर एवं बवाय-"महं मवनारिरिति जगत्प्रसिदः।" एवं तस्य वचनबलादावामपि सगच्चों जाती। ततो गिरिजेशो मदनारिनामगर्यावग्रेऽग्ने धावनिर्गतो यावन् मदनस्थानं सम्प्राप्तस्तावत्तेन सम्मुखो दृष्टः तदनन्तरं स्वबाणेनैकेन मदनेन श्रीकण्ठो वक्षस्थले विद्धो मूर्छा प्रपन्नो निपपात । तस्मिन्नवसरे गिरितनुजया निजवसनाचलेन बात कृत्वा निजमन्दिरं नीत्वा गङ्गाजलेन संसिक्तः स्वस्थोऽभूत् । इतोऽनन्तरं नारायणो बाणद्वयेन हतः । तस्मिन्नवसरे कमलाऽनङ्गपादयोललगे । ततः पुरषभिक्षां ययाचे-वेव, मम Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] मदनपराजय भर्तृव धीयताम् . २० से नई बहसम्मान) । एवमुक्त्वा स्वगृहं निनाय । तद्ववाणद्वयेन मा विन्याष । तदवसरे ऋश्यया रक्षितोऽहम् । तदुपकारासद्दिनप्रभृति ऋश्या मम भार्या बभूव । तदेतद्वत्तान्तं त्वां प्रति कथ्यते, यतः कथनयोग्यस्त्वम् । अथान्यमूढान् प्रति चेत् कथ्यते तत् केवलं हास्य भवति । यतः प्रसूता एव वेदना वेति, न च वन्ध्या । तदस्मस्सहशानां देवानां य एवंविधस्त्रासो दशितस्तत्र जिनेश्वरस्य किं प्रष्टव्यम् । यतो जिनः, सोऽपि वेवसंज्ञकः ।' तन्छ त्वाऽत्रार्थे सुरेन्द्रः प्रमाणवचनमयोचत-अहो ब्रह्मन्, भवत्येवम्, परं किन्त्वन्तरास्तरमस्ति । उक्त च यतः “गोगजाश्वखरोष्ट्राणां काष्ठपाषाणवाससाम् । नारीपुरुषतोयानामन्तरं महदन्तरम् ।।१४।।" तरिक देवत्वेन समत्वं प्राप्यते ? तथा च-- मीनं भङक्त सदा शुक्लः पक्षौ द्वौ गगने गतिः । निष्कलकोऽपि चन्द्राच्च (चन्द्रण)न याति समतां बकः ॥५ ॥ * ९ कामदेव और जिनेन्द्रको सेनाके इस युद्ध को प्राकाशमें बिराजमान ब्रह्मा और इन्द्र देख रहे थे। उन्होंने देखा कि मिथ्यात्वके प्रतापसे जिनेन्द्रको सेना नष्ट हो चली है और मार्ग छोड़कर झुमार्गको ओर उन्मुख हो रही है तथा अनेक सैनिक मिथ्यात्वकी शशरण में जा रहे हैं तो वह इन्द्रसे कहने लगा मिथ्यात्वक प्रभाबसे जिनराजको सेनाने अपने स्वामीकी शरण छोड़ दी है और वह उन्मार्ग में प्रवृत्त हो गई है । मिथ्यात्वको उपस्थिति में शायद हो किसीको विवेक-बुद्धि स्थिर रह सके। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १३१ इन्द्रने उत्तरमें कहा-ब्रह्मन् जब तक निर्वगके साथमै प्रचण्ड सम्यक्त्ववीर नहीं आता है तब तक जिनराजको सेनाकी सुरक्षा नहीं है । वह आगे कहने लगा-ब्रह्मन्, इसलिये आप क्षणभरको जरा स्थिर होकर बैठ जायो। देखो, मैं अभी हाल निःशङ्का शक्तिके आघातसे मिथ्यात्वको संकड़ों खण्डके रूपमें दिखलाता हूँ। ब्रह्मा इन्द्रसे कहने लगे---इन्द्र, ग्रह तो तुमने ठीक कहा । पर यह तो बताओ, इस प्रकारसे मिथ्यात्वके भङ्ग हो जानेपर भी मोहमालको कौन पराजित कर सकेगा ? कहा भी है :-- _ "मोहसे बलवान् न धर्म है और न दर्शन है । न देव हैं और न ही बलशाली मनुष्य है। चराचर तीनों लोकमें मोहसे बढ़कर कोई सुभट नहीं है । जिस प्रकार गजोंमें गन्धगजकी प्रसिद्धि है, उसी प्रकार शत्रुनों में मोह मल्ल भी प्रसिद्धिमान् है।" ब्रह्माकी बात सुनकर सुरेन्द्र हंस पड़ा। वह कहने लगाब्रह्मन्, मोह का पुरुषार्थ तभी तक कार्यकर हो सकता है जब तक बह केवलज्ञान-वीर का साक्षात्कार नहीं करता है । कहा भी है - "सिंह जब तक आंख बन्द करके गुफामें सोता है हिरण सभी तक स्वच्छन्द विचरण करते हैं। किन्तु जैसे ही वह जागता है और जागकर सटामोंको फटकारता हुमा गरजकर मुफासे बाहर आता है उस समय विचारे हिरनोंको दिशाओं में भागनेके सिवाय और कोई चारा नहीं रह जाता । और - उत्कट विषवाले सांप तभी तक फुसकारते है, जब तक उन्हें पक्षिराज गरुड़ दिखलायी नहीं देता।" ब्रह्माने इन्द्रकी बात सुनो और कहने लगा- इन्द्र, यदि आपने कहने के अनुसार केवलज्ञानवीर मोहको जोत भी ले, लेकिन यह बतानो, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ मदन पराजय इस द्रुतगतिसे दौड़नेवाले मन-मातङ्गका कौन सामना कर सकता है ? इसलिए जिनेन्द्रने यह अच्छा काम नहीं किया जो कामके साथ युद्ध ठान बैठे। मैं यह बात इसलिए कह रहा है कि मैंने कामका पौरुष देखा है, सुना है और अनुभव भी किया है। कामन अपने परिषप्रतापसे जिन-जिनको पछाड़ा है, उनकी गिनती गिनानेसे लाभ नहीं है । इतना कहकर वह सुरेन्द्र के पास गया और उसके कान में जाकर सब कुछ वृत्तान्त सुना दिया। ब्रह्माने इन्द्र के कानमें इस प्रकार कहा--- 'मैं, शङ्कर और हरि तीनों ही एकत्र मिलकर मदनके ऊपर चढ़ाई करने के लिए चलें। इतने में शङ्कर कहने लगे - संसारमें मेरी 'मदनारि' के नामसे प्रसिद्धि है । शङ्करके इस कथनसे हम लोगोंको भी गर्व हो पाया। इस प्रकार मदनारि गिरिजेश अभिमानके मारे पागे-आगे दौड़ते हुए जैसेही कामके स्थान पर पहुँचे-दोनोंका कामसे सामना हो गया। कामने श्रीकण्ठके वक्षस्थलमें एक बाण मारा, जिससे पाहत होकर वह मूच्छित हो गये और पृथ्वी पर गिर पड़े। इतनेमें पार्वती वहाँ आ गयौं और अपने वस्त्रके अञ्चलसे हवाकर उन्हें अपने घर ले गयीं । वहाँ गङ्गाजलसे सिंचन करने पर वह स्वस्थ हो सके। तदनन्तर उसने नारायणको दो बाण मारे, जिससे कमला घबड़ा गयी। और काम के पैरोंमें गिरकर भीख मांगने लगी। उसने कहा-'मैं अपने पतिका जीवन-दान चाहती हूँ। कामदेव, तुम मुझे विधवा नहीं करो।" इस प्रकार प्रार्थना करके यह उन्हें घर ले गई । तदुपरान्त कामने मुझे भी अपने दो बाण मारे। उस समय मुझ ऋश्याने बचाया । इसलिए उस दिनसे लेकर ऋश्या मेरी पत्नी हो गई 1" ___ इन्द्र, यह घटनाचक्र मैं तुम्हें इसलिए सुना रहा हूँ कि तुम इस वृत्तान्त के सुनने के पात्र हो । यदि यही बात अन्य मुढोंको बताई Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १३३ जाय तो वे सिर्फ हँसी ही करेंगे। क्योंकि प्रसव-जन्य वेक्ना का अनुभव प्रसूता हो कर सकती है, वन्ध्या नहीं। इस प्रकार जब कामने हम सरीखे देवोंको इस प्रकारका बास दिया है तब जिनराजका क्या कहना ? क्योंकि जिन राज भी तो एक वेष ही हैं। सुरेन्द्रने ब्रह्माकी बात सुनी और वह इस सम्बन्ध में कहने लगा-ब्रह्मन्, आपको बात सच है। परन्तु जिनराज और पाप लोगोंमें कुछ न कुछ अन्तर तो है ही। कहा भी है 'गाय, हाथी, घोड़ा, गधा, ऊँट, काठ, पाषाण, वस्त्र, नारी, पुरुष और जल-इनमें आपसमें अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है।" हे ब्रह्मन्, इसी प्रकार कोई देव होनेसे ही एक नहीं हो सकता। देखिए चन्द्रमा और बगला -दोनोंही मोन-भोजी हैं, शुक्लपक्षवाले हैं, गगन-विहारी हैं परन्तु निष्कलनु होनेपर क्या बगला चन्द्रकी समानता कर सकता है ? * १ ततोऽनन्तरं सम्यक्त्ववीरेण यावरस्वसैन्यं भज्यमानं दृष्टम्, तावडावनागत्य (धावं घावमागत्य) 'अरे रे भवद्भिर्मा मेसध्यम् इत्युक्त्वाऽऽत्मवलल्याश्वासनं कृत्वा जिनराजं प्रति प्रतिज्ञा (मा)गृहीतवान् (गृहीसा) । तद्यथा ये धर्मसंस्थितहविर्जलतलभोजिनो ये ऋरजीवगणपोषणतस्परा नराः। ये नात्रिभोजनरता व्रतशीलजिता ये निष्कृपाः कृततिलाविरुधान्यसंग्रहाः ।।५२।। चूतादिकव्यसनसप्तकशीलिनो हि ये हिसारताश्च जिनशासननिन्वका नराः । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] मदनपराजय ये क्रोधिनः खलु कुदेवकुलिङ्गधारिणो ये चातरौद्रसहिताः स्यरसत्यवादिनः ॥५३॥ ये शून्यवाविन उदुम्बरपञ्चकाशिनो लध्या त्यजन्ति किल जनमहानतानि । तेषां भवामि सदृशो दुरितात्मनामह मिथ्यात्वनामसुभटं न जयामि घेणे ॥५४॥ (संदानितकम्) एवंविधप्रतिज्ञाहदो भूत्वा सम्यक्त्ववीरो जिनमानम्य निर्गतः । ततो मिथ्यात्वं प्रत्याह-परे मिथ्यात्व, सम्प्राप्तोऽहमधुना । मा भङ्गयासि । यतो गगनस्थानाममराणां विद्यमानमुभयबल(लं)प्रत्यक्षम् । आवयोविग्रहेणा नङ्गजिन योजयो वाऽजयो भविष्यति ।। ततो मिथ्यात्ववीरोऽवोचत-अरे सम्मपरव, मच्छ गच्छ। कि ते मरगेन प्रयोजनम् ? प्रथमं दर्शनवीरस्य याशस्त्रासो दशितस्तादृशं यत्ते न करोमि चेत्तदा स्मरचरणद्रोहकोऽहं भवामि । तवाकर्ण्य सम्यवस्ववीरोऽब्रवीत-अरे अधम, किमेतज्जल्पसि ? पस्ति शक्तिस्ते तत् स्वशस्त्रसंस्मरणं कुरु । एवं वचनमात्रश्रयणाद् मिथ्यात्वबोरस्तस्य सम्यक्त्ववोरोपरि मूढत्रयबाणावली मुमोच । ततः सम्यक्त्वेनान्तराले षडायतनवाविध्वंसिता । ततोऽनन्तरं मिथ्यात्ववीरः समररौद्रकोपानलदीप्यमानः शङ्काशक्ति करसले जग्राह । तद्यथा वीरश्रीवेगिरेखा मवनभुजलसमग्यरक्षाभुजङ्गी कि वा दुर्वारवैरिक्षितिपतिपृतनानाशकीनाशजिह्वा । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य परिच्छेद [१३५ किंवा क्रोधाग्निकोला किमु विजयवत्तिमन्मंत्रसिद्धिमिथ्यात्वाख्यो हि तस्योपरि समरभरे प्रेरयामास शक्तिम् ।।५।। ततस्तुणं सम्यक्त्वेन निःशकशक्त्यान्तराले शङ्काशक्तिविध्वंसिता। ततो मिथ्यात्ववीरेण आकांक्षाप्रभृतोन्यायुधानि तस्य सम्यक्त्ववीरस्योपरि प्रेरितानि । तावत्तेन सम्यमत्ववीरेण निष्कांक्षायायनिवारितानि । एवमन्योऽज्यं तयोस्त्रैलोक्यचमत्कारकारि य कुर्वतोनं च कस्यापि भलो भवति, तदा सम्यक्त्वेनैवं मनसि चिन्तितम्अतः कि कर्तव्यम् । यद्यनेन सह सम्यग् युद्धयुक्या युद्ध करिष्यामि तवधमोऽयं मम दुर्जयो भविष्यति । तदेकेन घातेनायं हन्यते मया । एवमुक्रवा परमतत्त्वसुतीक्षणासिमा जधान । यज्ञोपवीताकृतिच्छेदेन भूमण्डले पातितः । ततोऽनन्तरं मिथ्यात्वसुभटो यावद्धरातले पतितस्तावदनङ्गदल पराजम. खमभूत् तथा-- पराङ मुखं याति यथा तमो रवेर्यया खगेशस्य भया जङ्गमाः । स्वनान्मृगेन्द्रस्य पथा गजादयस्तथाऽभवत् कामवलं परामुखम् ।।५।। ततो गगनस्थितेनामरेन्द्रेणाम्बुजभवं प्रत्यभिहितम्-भो पितामह, पश्य पश्य सम्यक्त्येनानगसैन्यं पराङ मुखोकृतम् । ततो जिनसैन्ये जयजयरवसमेतः परमानन्दकोलाहला संजातः। ततोऽनन्तरं मदनेनात्मसैन्यं भज्यमानं दृष्ट्वा परबलकोलाहलमाकण्यं मोहं प्रत्येतदुक्तम् भो मोह, परबलकोला Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] मदनपराजय हलः । कथमेतत् ? । मोहः प्राह-देव, योऽस्मदीयोऽ नमोमिष्यास्ववीरः स सम्यक्त्तवीरेण समराहणे पासितः तस्मात् परबलं गर्जति । *१० इतने ही में सम्यक्त्व-वीर मा पहुँचा । उसने देखाहमारी सेना डर के मारे भागना हो चाहती है तो उसने शीघ्र श्राफर अपने सिपाहियों को आश्वासन दिया कि पाप लोग डरिए नहीं। और जिनराजके संमुख उपस्थित होकर प्रतिज्ञा को कि यदि अाज युद्ध में मैंने मिथ्यात्व-सुभटको पराजित नहीं किया तो मैं इन पापियोंके तुल्य पापका भागी बनू जो चर्म-पात्र में रक्खे हुए घो, अल और सेलके खानेवाले हैं। क्रूर जीवोंके पोषण में निरत रहते हैं । रात्रिमें भोजन करते हैं। व्रत और शीलसे शून्य हैं । निर्दय हैं । तिल आदि धान्यका संग्रह करते हैं। जुआ आदि सप्तव्यसनसेवी हैं। हिंसक हैं। जिनशासनके निन्दक हैं। क्रोधी हैं। कुदेव और कुलिङ्गधारी हैं । आत और रौद्र परिणामवाले हैं । असत्यवादी हैं। शून्यवादी हैं। पांच उदुम्बरभक्षी हैं और महावत लेकर उन्हें छोड़ देते हैं।" सम्यक्त्व-वीरने इस प्रकारको प्रतिज्ञा करके जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया और वहां से चल पड़ा। इसके उपरान्त वह मिथ्यात्वसे कहने लगा-परे मिथ्यात्व, मैं पागया । गर्व मत करो। देखो, आकाशमें देवतागण बैठे हुए हैं। इनकी साक्षी में हम दोनोंका युद्ध हो जाने दो। काम और जिनकी जय-पराजयका निर्णय इस संग्रामसे ही हो जायगा। सम्यक्त्वकी बात सुनकर मिथ्यात्व-वीर कहने लगा - अरे सम्यक्त्व चल, चल। क्या तू मरना चाहता है ? याद रख, जिस प्रकार मैंने दर्शन-वीरकी दुर्गति को है यदि वही हाल तेरा न कर डाल' तो तू मुझ स्वामि-द्रोही समझना । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १३७ मिथ्यात्व-बीरकी बात सुनकर सम्यक्त्व-बीर कहने लगा-रे नीच, तू क्या कहता है । यदि तुझमें कुछ शक्ति है तो अपना हथियार संभाल । इतना सुनते ही मिथ्यात्व वीरने सम्यक्त्व-वीरके ऊपर तीन मूढतारूपी बाणाक्ली छोड़ी, जिसे सम्यक्त्व-बीरने कुछ प्रायतनरूपी बागोंसे बीचहीमें छेद दिया । ____ तदनन्तर मिथ्यात्व-वीरने युद्धरूपी प्रचण्ड कोपानलसे दीप्त होकर शङ्का-शक्तिको हाथ में ले लिया और उसे सम्यक्त्व वीरके ऊपर चला दिया। यह शक्ति वीरश्रीकी वेरिण-रेखाके समान थी। कामदेवके भुजबलसे अपित द्रव्यको रक्षाके लिए सपिणो थी। दुःसह शत्रुराजाओंकी सेनाके भक्षण के लिए कालकी जिह्वा थी। क्रोधाग्निकी कील यो । विजयकी वधू थी और मूर्तिमान मन्त्रसिद्धि मालूम देती पी। सम्यक्स्व वीरने इस शङ्का-शक्तिको निःशङ्का-शक्तिसे बीचहींमें काट दिया। इसके पश्चात् मिथ्यात्व-वीरने आकांक्षाप्रभूति प्रायुधोंका प्रयोग किया। लेकिन सम्यक्त्व-चोरने इन्हें भी नि:कांक्षाआयुधोंसे निष्क्रिय कर दिया। इस प्रकार सम्यक्त्व-बीर और मिथ्यात्व-वीरमें परस्पर त्रैलोक्यविजयी युद्ध होनेपर भी किसी एककी भी हार जोक्त न हो सकी। प्रबको बार सम्यक्त्व-वीरने मन में सोचा - यदि इस मिथ्यात्ववीरके साथ समीचीन युद्धपद्धतिसे युद्ध करता हूँ तो यह नोच दुर्जय होता जायगा। इसलिए अब एक प्रहारसे इसका घात ही कर देना चाहिए। यह सोचकर उसने परम तपरूपी अस्त्रका उसपर प्रहार कर दिया और इस प्रकार मिथ्यात्व-बीर यज्ञोपवीतके प्राकारमें गोलरूपसे Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] मदनपराजय पृथ्वीपर या गिरा। मिथ्यात्व-धीरके धराशायी होते ही कामकी सेना पीछे हटने लगी। जिस प्रकार सूर्य के भयसे अन्धकार भागता है, गरुड़के भयसे साप भागते हैं और सिंहके गर्जनसे हाथी भागते हैं उसी प्रकार कामको सेना भी मिथ्यात्व-बीरके गिरते ही भागने लगी। इतने में प्राकाशमें स्थित इन्द्रने ब्रह्मासे कहा-पितामह, देखिए, सम्यक्त्वने कामकी सेनामें भगदड़ मचा दी है। और इस कारण जिनराजको सेनामें मानन्दमय जय-जयकार होने लगा है। जब कामने देखा कि उसकी सेना डरकर भाग रही है और शत्रुपक्षीय सेनामें जय-जयकार हो रहा है तो उसने मोहसे पूछामोह, शत्रुवर्गकी सेनामें यह क्या आनन्द-कोलाहल हो रहा है ? उत्तरमें मोह कहने लगा-स्वामिन् हमारे अग्रणी मिथ्यात्व-वीरको सम्यक्त्व-बीरने समराङ्गणमें पछाड़ दिया है। इसीलिए शत्रुपक्षीय सेनामें ग्रानन्दका कोलाहल छाया हुआ है। *११ एवं सयोर्यावरपरस्परं वदतोस्तावक रकानुपूर्वी व तसरं नरकतिस्थानमुद्दिश्य डुडोके । इसः सा नरकगतिरसिपत्रमध्ये वैतरियां जलक्रीडा कृत्वा सप्तमूमिका थवलगृहे यावदुपविष्टास्ति तावनरकानुपूर्वी संप्राप्ता । ततः सा नरकानुपूर्वी प्राह-हे सखि, तव भर्ता मिथ्यात्वनामा समराङ्गणे पतितः । तरिक सुखेनोपविष्टासि त्वम् ? एवं सखीवचनमात्रश्रवणात् प्रचण्डवाताहतकवलोदलबत् कम्पमाना भूत्वा भूतले पपात । ततस्तरक्षणाच्चेतना लाध्या सखी प्रत्यवोचत् हारो नारोपितः कण्ठे मया विरहभीररणा (भीतया)। इदानोमन्तरे जाता: सरित्सागरपर्वताः ।।५७।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १३९ तथा च उग्रतप्रेम्नि प्रषमवयसि प्राषि प्राप्तवयां स्कन्धाधारं मम पतिरसौ निर्गसो मां विहाय । सेयं जाता जगति विधिता सुप्रसिद्धा जनोक्तिरप्रणासनसनसमये मक्षिकासनिपातः ॥५८।। एवं विजल्प्य पुनरपि नरकानुपूर्वी) सय प्रति बभाण-हे पखि, मत्प्रियोऽसो मिथ्यात्वनाम (नामा)मृत इति सत्यं मे न प्रतिभासते । यतः पूर्व मस्पितरं नरकाभिधं प्रति, मम हे वैधव्याचलमालोक्य, केनचिल्लक्षण नवं निरूपितम्'ग्रहो न हमापुत्रीय यावज्जीयमक्षयसौभाग्या भविष्यति । यतोऽस्या देहेऽशुभविलानि दृश्यन्ते ।' तच्छ ल्वा भूयोऽपि मपित्रा तानि चिलानि कानीति पृष्टो लक्षणज्ञः । ततस्तेन लक्षणजेन सण्यिपि चिहानि कषितानि । ततस्तत्समीपस्थया मया श्रुतानि तान्यद्यापि मापुषि दृश्यन्ते । तानि त्वमाफर्णय'च (ननु) मे कृष्णमांसानि करालाश्च दन्ताः।' प्रम नरफानुपूर्वी ब्रूसे-हे सुन्दरि, किं वृथा विला करोषि ? बाा माकर्णय नष्टं मृतमतिकान्तं नानुशोचन्ति पण्डिताः पण्डितानांच मूर्खाणां विशेषोऽयं यतः स्मृतः।।५।। तथा छ प्रशोच्यानि हि भूतानि यो मूर्खस्तानि शोचति । स बुःख लभते दुःखं द्वावनों निषेयते ।।६।। अथ सा नरकगति प्रति नरकगत्पनुपूर्वी प्रोवाच-तसव भर्ता सम्यक्त्ववीरगघातभयभीतः कुमार्गे प्रविष्टोऽस्ति, तद्वमा शोकं मा कुरु । यत उक्त च Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] मदनपराजय "होयडा संवरि धाहडी मूउ न आवइ कोइ । अप्पत्रं अजरामरु करिवि पछइ अनेरां रोइ ।।१५।।" एवं संबोध्य प्रेषिता । * ११ मोह और कामकी इस प्रकार बातचीत हो ही रही यो कि इतनेमें नरकानुपूर्वी शीघ्र ही नरकगसिके स्थान को भोर रवाना हुई। जैसे ही नरकानुपूर्वी नरकगतिके पास पहुँचो, वह असिपत्रों के बोच वैतरिणीमें जलक्रीड़ा करके स्वच्छ सतखण्डे भवनपर बैठी हुई नरकानुपूर्वीको दिखलायी दी। नरकानुपूर्वीन नरकगतिसे कहा - सखि, मिथ्यात्व नामका तुम्हारा पति युद्ध-भूमिमें मर चुका है और तुम यहाँ इस प्रकारसे सुखपूर्वक बैठी हुई हो? नरकगतिने ज्योंही नरकानुपूर्वी की बात सुनो, वह प्रसारसे पाहत पीले पनी तरह का गगी और जमीन पर गिर पड़ी। कुछ देरमें जब उसे होश आया तो वह सखी से कहने लगी-- सखि, पतिदेवसे विरह न रहे इसलिए मैंने अपने कण्ठ में हारतक नहीं पहना था। और अब तो हमारे और उनके बीच नदी-नद, सागर और पर्वतोंका अन्तर पड़ गया है। विधि-विडम्बना तो देखो। तथा च ___ एक मोर उत्कट प्रेमपूर्ण मेरी युवावस्था है और दूसरी ओर वर्षा काल पा गया है। ऐसे अवसर पर मेरे पतिदेव मुझे छोड़कर परलोक चले गए हैं इस समय तो "प्रथमासे मक्षिकापात:" बाली सुप्रसिद्ध किंवदन्ती चरितार्थ हो रही है। इस प्रकार कह कहकर वह अपनी सखी नरकानुपूर्वीसे पुनः कहने लगी-सखि, मेरा मिथ्यात्व नामका पति मर गया है, यह बात मुझे भी सत्य-सी लग रही है । क्योंकि बहुत दिन पहलेकी बात है Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १४१ जब किसी लक्षणशास्त्री ज्योतिषीने मेरे शरीरमें वैधव्य के चिह्न देखकर मेरे पितासे कहा था कि तुम्हारी यह पुत्री जीवनपर्यन्त मक्षय रहेगी में कुछ अशुभ चिह्न दिखलायी दे रहे हैं। उस समय मेरे पिताने पूछा था कि वे अशुभ चिह्न कौन-कौन हैं ? तब ज्योतिषीने उन्हें वे सब चिह्न बतलाये थे। में पिता के पास ही बेठी थी और मैंने भी उन्हें सुन लिया था। वे चिह्न आज भी मेरे शरीर में प्रतित हैं। तुम चाहो तो उन्हें सुन सकती हो। मेरा मांस काला है और दांत भयंकर हैं । नरकानुपूर्वी कहने लगी- सुन्दरि, व्यर्थ विलाप क्यों करती हो ? मेरी बात सुनो : पण्डित जन नष्ट हुई, मृत हुई सम्बन्ध में कदापि शोच नहीं करते हैं। विशेषता तो है। सथ: और बिछुड़ी हुई वस्तुके पण्डित मोर मुखमें यहो प्राणियों के सम्बन्ध में कदापि शोध नहीं करना चाहिए । जो उनके सम्बन्धमें कुछ भी शोच करता है वह मूर्ख कहलाता है और वह दुख हो दुख भोगता रहता है। इस प्रकार उसे मूर्खता और दुख - ये दो अनर्थ कदापि नहीं छोड़ते 1 नरकापूर्वी कहती है-- इसलिए हे सखि, तुम्हारा पति सम्यक्त्व वोरकी तलवार के भाषातसे ग्राहृत होकर कुमार्ग ही में प्रविष्ट हुआ है । अत: तुम व्यर्थ शोक मत करो । कहा भी है: --- "रे हृदय इस आघातको सम्हाल | मरकर फिर कोई नहीं आता । अपनेको अजर-अमर मान कर पीछे अपूर्व रुदन करना पड़ता है ।" इस प्रकार नरकानुपूर्वी उसे धीरज बँधाकर वहाँसे चल दी । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] मदनपराजय 3 १२ ततोऽनन्तरं लोकत्रयशल्यो मोहमल्लोऽनङ्गचरणौ प्रणम्य स्वसंन्यमावास्य निर्गतस्तत्र यत्र केबलशानवीरप्रभृतयस्तिष्ठन्ति, सेः सह मिलितः । तद्यथापंचेन्द्रियः पंचमहानतानि तथा व शुक्लेन सहासरोद्रो । रणाङ्गणे वा मिलितास्त्रिशल्या योगैः सहेभश्च यथा मृगेन्द्राः ॥६ ॥ तत्त्वः सहार्था मिसिता भवेशाः स्वाचारवीरैः सह । चालबाश्च । समादमाभ्यां सह रागरोषौ मुखः सहार्था मिलितास्त्रि वण्डाः ।।६२॥ पदार्थवीरः सह चानयाश्च धर्मः सहाण्टादशोषवीराः । प्रब्रह्मवीरःसह ब्रह्मवीरास्तपोऽभिधानश्च कषायवीरा॥६३ एवमादि यो यस्य सम्मुखो जातः स तेन सह मिलितः । ततोऽनन्तरं परमेश्वरेणानन्देन सिस्वरूपनामानं स्वरशास्थान प्रडमारवषम्-महो सिद्धस्वरूप, पुराऽस्मसन्यस्म भङ्गः केन प्रकारेण संभातः ? अब स सिद्धस्वरूपो जजल्पदेव, उपशमणिमूमो यावत् स्थितं तावद्भङ्गमा (भामा) गत(गतः)स्यसंन्यस्य । तदधुना क्षकश्रेणिमारोहति चेत्तववश्यं जयवनविष्यति । तथाकयं जिनो जहर्ष । ततो बभाण-ग्रहो सिखस्वरूप, तहि स्ममेव मे सैन्यं क्षपकणिमूमावाकडं कुरु । तदाकर्ण्य स सिद्धस्वरूपो जिनसैन्यं क्षपकश्रेमिभूमावारूढं कृतवान् । तरवलोक्य जिनोऽति सन्तुतोष । * १२ इस बोच लोकत्रयमें शल्य स्वरूप मोमल्लने कामके चरणों में प्रणाम किया और अपनी सेनाको धीरज बंधाकर जहाँ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिकछेद [ १४३ केवलशानवीर आदि सुभट ठहरे हुए थे वहां चला गया। और वहाँ पहुँचकर उसने सबको इस प्रकारसे भिड़ा विया : पांच महावत पाँच इन्द्रियों के साथ भिड़ गए और शुक्लध्यानके साथ प्रातरौ मिल गए। और जिस प्रकार मृगेन्द्र हाथियोंके साथ जुट जाते हैं उसी प्रकार तीन शल्य-वीर भी योग-वीरों के साथ रणाङ्गणमें जुट पड़े। तत्त्वों के साथ भय मिल गये और भाचार वीरोंके साथ मानव मिल गये। राग-द्वेष क्षमा और संयमके साथ भौर अर्य तथा दण्ड मुण्ड-सुभटोंके साथ भिड़ गये। नव पदार्थोंके साथ अनय, धोंके साथ अष्टादश दोष, ब्रह्मवीर अब्रह्म वीरों के साथ और कषायवीर तप-वीरोंके साथ भिड़ पड़े। इस प्रकार जो जिसके सामने प्राया वह दूसरेसे टक्कर लेने लगा। तदनन्तर परमेश्वर आनन्दने स्वरशास्त्रज्ञ सिद्धस्वरूपसे पूछासिद्धस्वरूप, बताओ तो पहले हमारी सेनामें भगदड़ क्यों मच गयी थी। उसने कहा-देव, उस समय तुम्हारी सेना उपशम-भूमिकामें स्थित थी। इसलिए उसमें भगदड़ मच गयी थी। अब यदि क्षपक श्रेणो में प्रारूढ़ होगी तो नियमत: उसकी विजय होगी। सिद्धस्वरूपकी बात सुनकर जिनराजको बड़ी खुशी हुई। वे कहने लगे–यदि यह बात है तो तुम हो उसे क्षपकग्रणी भूभिमें आरूढ़ कर दो। जिन/जकी बात सुनकर तिमस्वरूपने जिनराजकी सेनाको क्षपकारिणभूमि में प्रारूढ़ कर दिया। यह देखकर जिनराजको अत्यन्त हर्ष हुआ । * १३ ततोऽनन्तरं रथवरसङ्ग घटहेषितहययूथर्मवमरमत्तमातङ्ग विस्फुर्विजापत सम्मुख चरणमहावीरः पूरितं Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] मदनपराजय जिनबलं यायद दृष्टं तायन्मोहनरेन्द्रः कोपं गत्वा सम्मुखो पावनागस्य तमस्तम्भमारोपिसवान् । ततो मोहमरेन्द्रः प्राहअरे रे केवलझानवीर, इतरो भय । यदि यो नोषि तततरं मम सम्मुखमागछ । अथवा यम्मम घातभयान्विभेषि तच्छीघ्र याहि याहि । कि ते मरणेन प्रयोजनम् । ततः केवलज्ञानवीरः स ऋद्धमनो (नाः) भूत्वाऽवोचतपरे अधम, किमेतज्जल्पसि ? वदानी सारे स्वां न जयामि तमिनचरणद्रोहकोऽहं भवामि । ततः समरक बन मोहेन प्राशाकामुकात्तस्य केवलज्ञानवीरस्योपरि गारवत्रयबाणाबली मुक्ता। ततः केवलज्ञानयोरेण रस्नत्रयबाणेनान्तराले विध्वंसिता । भूयोऽपि केवलज्ञानधीरेण समाधिस्थानं धुत्वा उपशममार्गगेन वक्षःस्थले विद्धः समूछो भूमण्डले पातितः । तत्क्षणायुम्माछितो भूत्वा तस्य केवलज्ञानबोरस्योपरि प्रमावमाणावली निक्षेप । ततः केवलज्ञानवीरेण षडावश्यकमाणेस्त्रयोदशविषधारित्रवानिवारिता । भूयोऽपि केवलज्ञानेन मोहः प्रचारितः-'अरे रे मोह, स्वधनुरेतद्रक्ष रक्ष' इति भणित्वा निर्ममत्वबाणेम तस्य मोहवीरस्य करतलस्थं कामुक चिच्छेद । ततो मोहेन तस्योपरि मदान्धगजघटाः संप्रेषिताः । ततः केवलेन निजकरिघटाभिः संबद्धाः, पाचादुपशमधातेन विध्वंसिताः । तदा मोहवीरः प्रकृतिसमूहमानन्देन प्रेरितवान् । तद्यथा प्रकृति निचयभीता भूधराः संचलम्ति त्रिवशनरभुजङ्गाः कम्पमाना अवन्ति । प्रचलति वसुधाऽलं सागरा व्याकुलाः स्युः प्रकृतिवरसमूहे प्रेरित वृत्तमेवम् ।।६४॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [१४५ एवं तं प्रकृतिसमूहं महादुर्जयं दृष्ट्वा जिनसैन्यं सभयं भूत्वा प्रकम्पितम् । तदा केवलज्ञानकोरेण सामायिकच्छेदोपस्थापन परिहार विशुद्धिसूक्ष्मसाम्परायययाख्यातमिति पञ्चविधचारित्रविण्यायुधधातः प्रकृतिसमूहागितः। ततो मोहमल्लं समराङ्गणे हस्था धरातले मूर्छान्यितः पातितः । ततोऽनन्तरं पुनरुन्मूच्छितो भूत्वा अनाचारखङ्ग करतले गृहोत्रा स ऋ खमना यावत्सम्मुखमागच्छति तावत्केवलज्ञानेनानुकम्पाफरी करे धत्वा सम्मुखं स्थित्वा स मोहो निर्ममत्वमुद्गरेण हतो जर्जरितशिरा प्राक्रन्दनं कुस्त्रियशासुरनरविद्याधरविद्यमानो परातले पातितः। एवं प्रभूतघातहन्यमानो यदा मोहवीरः प्रपतितस्तका वृत्तासमवलोक्य पी मदन प्रति गाया प्रणम्योवाच-भो देव देव, त्रैलोक्यशिल्पो मोहमालो भङ्ग मतः । अन्यच्च जिनसैन्येन सकलसंन्यं भङ्गमानीतम् । तच्छोघ्र देवेन कालवञ्चना क्रियते ।। तच्छ स्वा रस्योक्तम्-देव, बहिरात्मायं बन्दी युक्तमेतद्वदति । यथा गमनोपायो भवति तथा क्रियते (ताम) । अपरं स्वभावेन शुभतरं भवति । तत्किमनेन वृथाऽभिमानेन प्रयोजनम् । तदवश्यं गम्यते (ताम् ), नात्र स्थातव्यम् । ततः प्रीतिः प्राह-हे सखि, किं भगिष्यसि ? मूर्योऽमम् । पापात्माध्यम् । महाऽऽग्रहो । यत: प्राग्रहश्च प्रहश्चथ द्वावेतो लोकदेरिणौ। ग्रह एकाकिन हन्ति, प्राग्रहः सर्वनाशकः ॥६॥ ततो जिनस्य जयश्रीश्चास्माकं बंधव्यं केन वार्यते । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] मदनपराजय अन्यच्च वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं यत्रोक्त लभते फलम् । स्थायी भवति चास्यन्तं रागः शुक्लपटे यथा ॥६६॥ तवाकर्ण्य मदनेनोक्तम्-हे प्रिये, वचनमेतधाकणंयसुरासुरेन्द्रोरगमानवाद्या जिताः समस्ताः स्ववशीकृता यः । ते सन्ति मे पाणितले च बाणास्तस्कि न लज्जेत्र पलायनेन ?॥६७।। एवमुक्त्वा मदनमोहनदशीकरणोन्मोवनस्तम्भनेतिपंचविधकुसुमबाणावली शरासने सम्बित्वा (सन्धाय) मनोगजमारुह्य व्रततरं धावन स मदनः समराङ्गणे गत्वा जिनसम्मुसमवोचत्-अरे रे जिन, पुरा मया सह सङग्रामं कृत्वा पश्चास्सिद्धिवराङ्गनापरिणयनं कुछ । मुक्त्यङ्गनालिङ्गनसुखं मे बाणावल्येव ते दास्यति । * १३ तदनन्तर मोहने जैसे हो रथोंके संघर्ष, घोड़ोंकी हिनहिनाहट मदमस हाथियोंकी चिंघाड़, उड़ती हुई पताकाएँ और सामने पर बढ़ाते हुये महान् योधानोंसे पूरित जिनराजको सेना देखी, उसे प्रत्यन्त क्रोध हो पाया और आगे बढ़कर उसने अन्धकार-स्तम्भ गाड़ दिया तथा केवलज्ञानवीरसे कहने लगा -- केवलज्ञानवीर, सावधान हो जायो । यदि हमारे साथ युद्ध करने की हिम्मत हो तो तुरन्त हमारे सामने प्रायो। यदि तुम्हें हमारे आघातौंका डर हो तो चुपचाप भाग जायो। मुफ्तमें मरना क्यों चाहते हो? मोहकी बात सुनकर केवलज्ञान वीरको क्रोध हो पाया। वह कहने लगा-अरे अधम, क्या बकता है ? यदि आज मैंने युद्ध में तुझे पराजित न किया तो तू मुझे जिनचरणोंका द्रोही समझना । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १४७ केवलज्ञानको बात सुनकर मोहको भी रोष हो पाया । उसने पाशा-अनुषसे गारवनामक तीन बाण लेकर केवलज्ञानके ऊपर छोड़े। परन्तु केवलज्ञानवीरने उन्हें रत्नत्रयबाणसे बीच में ही छिन्न-भिन्न कर दिया और पुन: समाधिस्थानमें बैठकर उपशम बाण चलाया जो मोहके वक्षस्थलमें विंध गया और मोह मूच्छित होकर पृथ्वीपर मा गिरा। मोहको थोड़ी ही देर में चैतन्य हो पाया और इस बार उसने केबलशानीरके ऊपर प्रमादरूप बाणावलीको वर्षा प्रारम्भ कर दी। किन्तु केवलज्ञानबीरने मावश्यक और त्रयोदश चारित्रबारणोंसे उसे बोच ही में भंग कर दिया। और मोहसे यह कहकर कि 'अरे मोह, अपना धनुष, संभालो' उसने निर्ममत्व बाणसे मोह वीरके हाथ में स्थित धनुषको छेद डाला। तदुपरान्त मोहने केवलज्ञान वोरफे ऊपर मदान्ध गज-घटाएँ भेजीं, जिन्हें केवलज्ञानवीरने अपने. हाथियोंकी घटाओंसे रोक दिया और पीछेसे उपशमके भाघातसे उनका विध्वंस कर दिया। जब मोहने देखा कि उसका अब तकका प्रयत्न बिलकुल निष्फल गया है तो प्रबकी बार उसने कर्मप्रकृति-समूहका प्रयोग केवलज्ञानवीरके ऊपर किया। उसके प्रयोग करते ही इस प्रकारकी स्थिति उत्पन्न हो गयी प्रकृति-निच्यसे डरकर पर्वत चलित होने लगे। देव, नर और साँप कम्पित होकर आवाज करने लगे। वसुधा कप गयो और समुद्र व्याकुल हो उठे । इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति क्षुब्ध हो उठी। इस तरह प्रकृति-समूह को महादुर्जय देखकर जिनराजको सेनामें भयका संचार होने लगा और कंपने लगी। जब केवलज्ञान वीरने अपने सैन्यकी यह स्थिति देखी तो उसने सामायिक, छेदोप Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] मदनपराजय स्थापना, परिहारविशुद्धि, सुक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातरूपी पांच चारित्रवीरोंके प्रहारसे उस प्रकृति समूहको निःशेष कर दिया। इसके पश्चात् उसने मोहमल्लपर प्रहार किया और वह मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। कुछ देरके पश्चात् मोह पुनः चैतन्य हुआ और अनाचार खड्ग हाथमें लेकर क्रोधावेशमें जैसेही केवलज्ञानवीरके सामने आया वह अनु म्पा-फाल हाथ में लेकर मोहके सामने खड़ा हो गया और निर्ममत्व मुद्गरसे उसके सिरपर जोरका प्रहार दे मारा ! मोन मुद्गरके इस प्रहारको सहन नहीं कर सका। वह इस प्रहारसे बुरी तरह घायल हुआ और चिल्लाकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। इस प्रकार प्रबल प्रहारके कारण जब मोह लड़खड़ाकर पृथ्वीपर गिर पड़ा तो बन्दी बहिरात्मा इस घटनाको सुनानेके लिए कामके पास पहुँचा। बन्दीने वहाँ पहुँचकर उसे प्रणाम किया और निवेदन करने लगा-महाराज त्रैलोक्यके लिए शल्यस्वरूप मोहका सर्वस्व भंग हो गया है--उनकी जीवन-लीला समाप्त हो चुकी है और जिनराजकी सेनाने अपनी समस्त सेनाका विध्वंस कर दिया है। इसलिए इस समय आपको यह अवसर टालकर अन्यत्र चले जाना चाहिए । बन्दी बहिरात्माकी बात सुनकर काम तो चुप रहा; पर रतिसे नहीं रहा गया। वह कहने लगी- स्वामिन् बन्दी ठीक तो कह रहे हैं। इस समय प्रापको यहांसे चल देनेका ही कोई उपाय करना चाहिए और इस प्रकार प्रस्थान कर देनेका परिणाम शुभ ही होगा। इसलिए आप झूठा अभिमान छोड़िए और यहाँसे प्रस्थान कर दीजिए। रतिकी बात सुनकर प्रीति कहने लगी-सखि, व्यर्थ क्यों प्रलाप करती हो? यह महामूर्ख, पापी और नितान्त हठी जीव है । यह हमलोगों की बात नहीं सुनेंगे । क्योंकि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नार्म पनि । १४९ "प्राग्रह और ग्रह-ये दोनों ही लोकके अत्यन्त वैरी हैं। प्रह जहाँ एक का नाश करता है वहां प्राग्रह सर्वस्व नाश कर डालता प्रीति कहती गयो-अब ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो जिनराजको जयश्रीकी प्राप्ति और हम लोगोंके वैधव्य-योग को टाल सके । और फिर-- अपनी राय वहाँ देनी चाहिए जहां उसकी कुछ पूछ हो । जिस प्रकार स्वच्छ वस्त्रपर लाल रंग खूब गहरा चढ़ता है। ___ रति और प्रीतिकी बात सुनकर कामने कहा- हे प्रिये, मेरी बात तो सुनो जिन बाणोंके द्वारा मैंने सुर, असुर इन्द्र, उरग और मानव आदिको जीता और अपने अधीन किया, वे बाण अब भी मेरे हाथ में हैं । फिर मैं कैसे भागू? और इस प्रकार भागनेसे क्या मुझे लज्जित नहीं होना पड़ेगा? इस प्रकार कहकर मदन, मोहन, वशीकरण, उन्मादन और स्तम्भन रूप पाँच प्रकारकी कुसुमवारणालीको धनुषपर चढ़ाकर और मनोगजपर मारूढ़ होकर उसे शीघ्र दौड़ाता हुमा कामदेव समराङ्गणमें जिनराजके सामने जाकर कहने लगा- अरे जिनराज, पहले हमारे साथ युद्ध करो । पश्चात् सिद्विवधू के साथ विवाह करना मेरी बाणावलीसे ही तुम्हें मुक्त्यङ्गनाके आलिङ्गनका सुख मिल जायगा । * १४ तच्छ वा मोक्षनवराजहंसेन सापशकुनिविश्रामारामेण मुक्तिवधकामेन पुष्पायुधोदधिमथनमन्दरेण भव्यजनकुलकमलविकासमार्तण्डेन मोक्षद्वारकपाटस्फोटनकुठारेण दुर्वारविषयविषधरवैनतेयेन साधकुमुदाकरविकासचन्द्र ण मायाकरिणीमृगेन्द्रेग सङ ग्रामावसरे मदन पाहतो जिनेन्द्रग-रे रे Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] मदनवराक, किमर्थं मे बाणमुखान्तौ त्वं पतङ्गवस् पतितुमिय? या माहि । ततः क्रोधाग्निज्वालाज्वलितेन मदनेनोक्तम्- अरे जिन, मच्चरित्रं कि न जानासि त्वम् ? तद्यथा मदनपराजय रुद्र ेण लङ घिता गङ्गा मद्भयाद्धरिणाम्बुधौ (धिः ) । क्षिप्रमिन्द्रो गतः स्वर्गे धरणोन्द्रस्त्वधो गतः ॥ ६८ ॥ hearsa च गुप्तोऽर्को ब्रह्माऽसौ मम सेवकः । न मे प्रतिबलः कोऽपि त्रैलोक्ये सचराचरे ॥६६॥ एवं श्रुत्वा मुक्तिपतिरवोचत् रे कन्दर्प, तव शूरत्वं वृद्धानां गोपालानां पशुपतीनामुपरि । न त्वस्मत्सदृशः कोऽपि त्वया स्वप्नेऽपि जितोऽस्ति । तदिदानों यद्यस्ति तथ शक्तिस्तहि शीघ्र बली भव । एतवाकर्ण्य रतिपतिना मदभरमत्तो दुर्नयरगर्जमानो मनोमातङ्गो जिनेन्द्रोपरि प्रेरितः । तद्यथा उद्दण्ड संसारकरेण रभ्यश्चतुष्कषायैश्वरः समेतः । वन्तावुभौ यस्य च राम (रो) षौ यो रम्य आशाद्वयलोचनाभ्याम् ॥ ७० ॥ : - एवंविधमनोगजमागच्छन्तमवलोक्य निजकरिया जिनेन्द्रण प्रतिस्खलितः 4 पश्चात् कठिनसमभाव मुद्गरेण निहत्य भूतले पातितः । तसो जिनघातहन्यमानो निजकरी यावद्भूतले पतितो दृष्टस्तावद्रसिहृदयं महाव्याकुलीभूतम् । : अथ सा रतियों नास्या प्रबलानुपात गद्गदयाचान्विता भूत्वा कामं प्रत्युवाच भो नाथ, अद्यापि किं पश्यसि ? सकलसैन्यं भङ्गमागतम् । एको जीवशेष उद्धृतोऽसि स्वम् । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १५१ द्रततरं गम्यते (साम्)। ततोऽनन्तरं कामसैन्यस्य भङ्गः कीदृशः प्रवर्तते सत् कथ्यते यावत् स्यावावमेरो या जिनसंन्ये प्रगर्जति । तावद्भ समायान्ति दर्शनान्याशु पंच वै ॥७॥ तथा च यावत् पंच महाव्रतानि समरे षान्ति पंचेन्द्रियाण्यागच्छन्ति च तावदाशुविलयं यदत्तमो भास्करात् । यावच्छोदशधर्मभूमिपतयो घावन्ति शीघ्र रगे तावत् कर्मचयो बिभेति च तथा सिंहाद्य था कुजरः।७२। यावद्धावन्त्यभिमुखमलं तत्ववीराश्च तावज्जायन्ते ते चकितमनसः सप्त वीरा भयाख्याः । प्रायश्चित्तप्रवरसुभटाः सङ्गरे संचलन्तो यावत्तावत् सभयमनसः शल्यवीरा द्रवन्ति ॥७३॥ तथा च जिनपतिदलमध्ये यावदाचारगीरः प्रचलति किल तावत् कम्पते चालवास्यः । अभिमुखमति यावद्धावतो धर्मशुमली द्रवत इति हि तावच्चातरौत्रप्रवीरौ ।।७४।। * १४ कामका आह्वान सुनकर मोक्षनदके राजहंसस्वरूप, साधुपक्षियोंके लिए विश्रामाश्रय, मुक्तिबधूके पति, काम-सागरके मथनके लिए मन्दराचल, भव्यजन-कुल-कमल-विकासके लिए मासण्डस्वरूप, मोक्षद्वारके कपाट तोड़नेके लिए कुठार-स्वरूप, दुर्वार विषय-विषधरके लिए गरुड़के समान, साधु-सरोवरके विकासके लिए चन्द्र के तुल्य और मायाकरिणीके लिए मृगेन्द्रको तरह जिनराजने Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ } मदनपराजय कामदेवसे कहा-अरे नीच काम, तू मेरी बाणाग्निमें पतङ्गकी तरह व्यर्थ ही क्यों झ लसना चाहता है ? चल, चल यहाँसे । जिनराजकी बात सुनकर कामदेवकी क्रोधाग्नि भड़क उठी । वह कहने लगा-अरे जिनराज, क्या तुम्हें मेरा चरित्र याद नहीं है ? मेरे भयसे ही रुद्रने गङ्गाको लाधा। मेरे भयसे ही जल समुद्र में गया। मेरे भयसे ही इन्द्र स्वर्ग में गया और मेरे भयसे ही धरणेन्द्र अधोलोकमें गया। मेरे भवस हा सूर्य के निकट छपा, और मेरे भयले ही ब्रह्मा मेरा सेवक बना। इस प्रकार चराचर तीनों लोकमें मेरा कोई प्रतिभट नहीं है। यह सुनकर जिनराज कहने लगे-भरे काम, तुम्हारी शूरवीरता वृद्ध, गोपालक मोर पशुपतियोंतक ही चल सकती है। हमजैसोंके ऊपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । और हम-जैसा तो तुमने स्वप्न में भी पराभूत नहीं किया होगा। फिर इतने पर भी यदि तुम मेरे साप लड़नेकी क्षमता रखते हो तो पाकर मेरा सामना करो। यह सुनकर कामने मदोन्मत्त और दुर्नय रूपसे चिपाड़ता हुप्रा मन-मातङ्ग जिनेन्द्र के ऊपर छोड़ दिया। यह मन-मतङ्गज, उन्नत संसाररूपी शुण्डादण्ड, कषायरूपी चार चरण, राग-द्वेषरूपी दांत और पाशारूपी दो लोचनोंसे मनोहर था। इस प्रकार मनोगजको आता हुमा देखकर जिनराजने अपने हाथोसे उसे छेड़ दिया और तत्पश्चात् दृढ़ मुद्गरके प्रहारसे मारकर उसे भूतल पर गिरा दिया। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १५३ जब रतिने अपने हाथीको जिनके प्राघातसे पाहत होकर पृथ्वीपर गिरते देखा तो उसका हृदय अत्यन्त व्याकुल हो गया । उसका मुख दीन पड़ गया और वह अश्रु गद्गद वाणोमे कामसे कहने लगी-स्वामिन्, पाप अब भी क्या देख रहे हैं ? सेनाका सर्वनाश हो चुका है। अकेले तुम ही बच रहे हो। इसलिए मेरी तो यही राय है कि अब हमें यहासे तुरन्त चल देना चाहिए । कामको सेनाका जिस प्रकारसे दिनाश हुमा उसे भो देख लीजिए : ज्योंही स्याद्वाद भेरोकी पावाज होनी शुरू हुई और जिनराजकी सेना का गर्जन प्रारम्भ हुमा, कामकी सेनामें भगदड़ मच गई। उस समय जिस प्रकार भास्करसे डरकर अन्धकार भाग जाता है, उसी प्रकार पाँच इन्द्रियां भी पाच महावतोंसे डरकर भयभीत हो गयौं। और जिस प्रकार सिंहसे हाथी भयभीत हो जाता है उसी प्रकार दश धर्मराजामोंके सामने कर्मवीर भी डर गये। और जैसे हो तत्त्ववीर सामने आये, सात भय बीर मनमें चकित हो गये। तथा जैसे ही प्रायश्चित्त सुभटोंने प्रयाण किया, शल्य वीर भी सभयमन होकर रणसे भागने लगे। और जिनराजको सेनामें जैसे ही आचार वीरने प्रवेश किया, आश्रयकोर कैंप गया। तथा धर्म और शुल्क वोरके सामने आते ही आर्त और रौद्रवीर द्रवित हो उठे। १५ एवंविधो मदनसन्यस्य भङ्गो यावत प्रवर्तते तावत्तस्मिन्नवसरेऽवधिज्ञाननामा बोरो जिनसकाशमागत्य प्रणम्योवाच-भो भो देव, लग्नमासन्न सम्प्राप्तम् । किमनेन युविस्त (स्ता) रेण ? यतोऽयमेको मदन इहाधृतोऽस्ति । अन्यच्च, मोहोऽयं तावत् केवलज्ञानवीरघातः क्षीणत्वं मतो Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] मदनपराजय ऽस्ति । तच्छीघ्र द्वयोरेकेन सन्धानेन साधनं कुरु । एवमवधिज्ञानवीरवचनमाकर्ण्य जिनेन्द्ररण मदनं प्रत्युक्तम्-रे कन्दर्प, दर्पः ? यं वहसि स्त्रीणां पुरतः स्वगृहमध्ये ? मन्तःपुरस्थ पुरतः पुरुषोभवन्तः श्मश्रुणि मुखैः (हस्तः) कति नोस्लिखन्ति । युद्ध तु तुम्नकरिशोणितसिन्धुतीरे वीरवती घरति धोरकराल एय ॥७॥ तरिकमनेन क्षात्रेण ? तवाकनिङ्गन मोह प्रति प्रष्टुभारब्धम्-हे सचिवेश, इदानी कि क्रियते ? स वाह-भो देव, परोषहाख्या विद्या स्मयंते, तत्वया(तवतद्विद्याबलेनाभीष्टसिद्धिर्भवति । ततस्तेन सक्रोधमनसा रक्तध्यानेनाह्वानिता(माहूता)तत्क्षणात सा द्वाविंशतिरूपः सहिता 'देहि देह्यादेशम्' इति वदन्ती सम्प्राप्ता। ततो मदनेनोक्तम्-हे देवि, 'त्वया जिनो ओतम्यः । साहाय्यमेतत् करणीयम् । एवमुक्त्वा जिमोपरि सम्प्रेषिता मदनेन । ततः सा निर्गता नततरमसिधारोपमा नानाविधभा. वभिन्दन्ती वंशमशकप्रभृतिभिरुपसर्गभेदनानाविधिदुःखजनकैः साहिता परीषहाख्या विद्या जिनेन्द्र रुद्धि स्म । ततोऽनन्तरं जिनेन निर्जराख्या विद्या मनसि चिन्तिता । सा स्मरणमात्रेण सम्प्राप्ता । अथ तो निर्जरां दृष्ट्वा सा परीषहाख्या विद्या तत्क्षणात पलायिता। * १५ इस प्रकार जैसे ही मदनकी सेनाका संहार प्रारम्भ हो गया, अबधिज्ञानवीर जिनराजके सामने आया और उन्हें प्रसाम करके निवेदन करने लगा-भगवन्, अब विवाह-वेला निकट आ गई Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद { १५१ है। अतः आप अनावश्यक युद्धका विस्तार क्यों कर रहे हैं ? केवल काम हो ऐसा शेष रह गया है जिसको वश नहीं किया जा सका है। • मोहको तो केवलशानवीरके माधातोंने क्षीण हो कर दिया है । इसलिए पाप शीघ्र ही ऐसा मार्ग स्वीकार कीजिए कि एक ही संधानसे सेनाका संहार हो जाय । इस प्रकार अवधिज्ञानवीरकी बात सुनकर जिनेन्द्रका साहस और अधिक बढ़ गया और वे कामको इस प्रकार ललकारने लगेअरे काम, घरके भीतर बैठ कर ही तुमने अपने स्त्रीसुलभ दर्पका प्रदर्शन किया है। अन्त:पुरके सामने मूछ एंठते हुए अपनेको पुरुष कहलाने वाले बहुत मिलेंगे। परन्तु जहाँ छिन्न हुए हाथियोंके खूनसे समुद्र लहा उठता है, उस मुहिले वीर ही डटे रह रा है : अत: यदि साहस हो तो आओ, मुझसे सामना करो। जिनराजको बात सुनकर मोह एकदम स्तब्ध रह गया। कुछ क्षणबाद उसने मोहसे मंत्र करना प्रारंभ कर दिया। वह मोहसे कहने लगा-सचिवोत्तम, बतलाइए, इस समय हमें क्या करना चाहिए । मोह कहने लगा-देव इस समय परोषह नामक विद्याका स्मरण कीजिए । उस विद्याके बलसे आपकी अवश्यमेव अभीष्ट सिद्धि होगी। कामको मोहकी राय पसन्द आई। उसने क्रोधावेश में तरक्षण उस विद्याका अाह्वान किया, जिसके कारण वह बाईस प्रकारका रूप धारण करके कामके सामने उपस्थित हो गयी। और उपस्थित होते. ही कामसे कहने लगी-देव, मुझे आदेश कीजिए, आपने किस प्रयोजनसे मुझ स्मरण किया है ? __ काम कहने लगा-देवि, तुम्हें जिन राजको जीतना है। और जिनराजको पराजित करने में मेरी सहायता करनी है। इस प्रकार कहकर कामने उसे जिन राजके पास भेज दिया । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] मदनपराजय कामकी प्राज्ञा पातेही परीष विद्या वहाँसे चल दी और तलवारको धारके समान तीक्ष्ण देशमशक आदिके उपसगों और अनेक प्रकारके दुखद उपायोंसे जिनेन्द्रको कष्ट देने लगी। जैसे ही परीषह विद्या जिनराजको कष्ट देने के लिए उद्यत हुई उन्होंने निर्जरा विद्याका मनमें स्मरण किया। जिनराजके स्मरण करतेही वह उनकी सेवामें आ उपस्थित हुई और निर्जरा विद्याके आते ही परीषह विद्या तत्क्षण पलायन कर गयी। *१६ ततो मनःपर्ययेण जिनो विज्ञप्तः-देव, प्रथापि कि निरीक्ष्यसि (से)? विवाहसमयः सम्प्राप्तः । अन्यच्च, बलक्षीमिमं मोहं न हन्सि चेसरिसद्धिवराङ्गनापरिणयन न भवति । उक्त च यतः "मोहकर्मरिपो नष्टे सर्वे दोषाश्च विद्रुताः । छिन्नमूलद्रुमा यद्वद् यथा सैन्यं नि(वि)नायकम् ।१६।" तदस्मिन् मोहे हते सति मवनोऽयं गमिष्यति । तच्छु त्वा जिनेन पंचरं प्रति विहस्योक्तम्-अरे वराक मार, मा नियस्व । याहि याहि । युक्तीजनगिरिगह्वरान्तरनिवासी भव । तद्वचनमाकर्ण मोहेन कामं प्रत्युक्तम्-ग्रहो देव, अधुनैविधेऽवसरे प्रात्मकुलदेवता आशिनी नाम विद्या संस्मर्यते (तां)त्वया। तस्या प्राशिन्याः प्रसादेन रणसागरोतरणं भविष्यति । तच्छ स्वा मदनस्तथाविधं चकार । तद्यथा प्राप्ता घेतसि चिन्तिताऽभूतसरं कामेन विव्याशिनी द्वात्रिंशद्विजराक्षसः परिवृता यत्परा चण्डिका । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १५७ कुवंती भुवनत्रयस्य कवलं देवेन्द्रकम्पप्रदा यात्यन्सच्छलपालका तबला ब्रह्मादिकषुर्जया।७६। एवंविधा सम्प्राप्य मदनाभिमुखा(खी) तस्थौ । ततस्तामाशिनीमवलोक्य मुकुलितकरकमलो मनो विनयालापः प्रशंसयामास । तद्यथा जितलोकनया त्वंच स्वमचिन्स्यपराक्रमा । मानापमानवा त्वंच विधा त्वं भुवनेश्वरी ॥७७।। स्वं च ज्ञानवती......... बाह्मो त्वं शब्दब्रह्मत्वाविश्वव्याप्ता च वैष्णवी ॥७॥ प्राप्तासि सर्वभाषात्वं तस्मात् त्वं देवमातृका । पुष्टं स्थाणि भुलायाभुता जगत् कृशम् ।।७।। तस्मात्वं च जगन्माता सकसानन्दधायिनी । निघण्टनाटकच्छन्दस्तव्याकरणानि च ।।६।। इत्याचं त्वद्यतो जातं तस्मात्वं श्रुतदेवता । त्वं पना स्पाद (स्या ह्य) जन्मत्वात्वमेका हि जगस्त्रिया ॥५१॥ एवं बहुभिः(बहु) प्रकारः स्तोत्रः स्तुत्या __ जगत्प्रिया( याम् )। इति श्रुत्वा च सन्तुष्टा प्रोवाचेति तमाशिनी ।।२।। हे मदन, पूर्यताम् । ममाह्वाने कि कार्य तत्कथय । ततः स्मरो जगाव-हे परमेश्वरि, अनेन ममाखिलं सन्य भङ्गमानीतम् । तस्मात्तव स्मरणं कृतम् । अधना येन केनोपायेन मां रक्षसि घेवदह जोवामि, नान्यथा । यतस्तव जपेन जयवानहं तव पराजयन पराजयं गमिष्यामि । एवं तस्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] मदनपराजय घचनमाकये जिनसम्मुखं धावन्ती निर्गता साऽऽशिमो. भक्ष्याभक्ष्यं भक्षयन्ती सागरनवीसरिसडागादि शोषयन्ती । एषमागच्छन्ती यावजिनेन एष्टा तावस्थाकर्ममार्गणविडा परं नास्थिरा भवति । ततो भूयोऽपि जिनेन नानान्सरायषष्ठभुक्तषष्ठचान्द्रायणकस्थानप्रभृतिभिर्वाणसमूहै विद्धा, परन्तु दुई रा जिनाभिमुखं सम्प्राप्याऽब्रवीत्-है मिन, स्यज गर्वम्, भया सह सङ प्रामं कुरु ।। ततो जिनेश्वरेणोक्तम् हे माथिमि, यमा पर स्ट, ग्रामं कुर्वन् लज्जेऽहम् । यतः शूरसरा ये क्षत्रिया भवन्ति ते स्त्रीभिः सह सङग्राम न कुर्वन्ति । इति श्रवणमात्रादा मूतलाद् गगनपर्यन्तं प्रसारितवदना विकरदंष्ट्राकराला भैरवरूपं धृत्वाट्टहासं मुचन्ती जिननिकटा संजाता । ततस्तेन जिनेनेकान्तरनिराकाष्टोपवासरमपरित्यागपक्षमासयनवर्षापवास - प्रभृतिभिर्वाणजालेविदा भूतले पतिता । ततस्तां पतितामाशिनीमवलोक्य मोहेन मदनं प्रत्युक्तम्भो देव, प्रचापि कि निरीक्ष्यसि(से)। अस्या प्राशिन्या बलेन स्थातव्यं साऽऽशिनी पातिता । अन्यच्च स्वासीगतशुकाम्बुवृष्टिरिव जिननाथस्य बाणवर्षार्षोि)न स्थिरा (रो) दृश्यते । तहि त्वं निगच्छ । क्षणमेकमहं भववर्थे यथाशक्त्या(क्ति)जिनसैन्येन सह योरस्ये । यथान्तरं किचित्तव भवति । एवं मोहवचनमाकयं संख्यावतमागंणमहतालोऽनङ्गो धेयं धतुन शक्नोति पदा, तदा निर्गतः । तद्यथाचण्डानिलेन प्रहतो यथाम्बुदो विनिर्गतः सिंहभयाद्यथा गजः। तमो यथा भानुकरविवि तं तथा स्मरो भूशिरैः कथितः ।।८३॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद * १६ तदुपरान्त मनःपर्ययज्ञान वीर जिनराजके पास आया और उनसे निवेदन करने लगा-भगवन्, अब आप क्या प्रतीक्षा कर रहे हैं ? विवाहका समय पा गया है। अभी आपको क्षीणशक्ति मोहका भी समूल उन्मूलन करना है। जब तक आप मोहका विनाश नहीं करेंगे, आपका मुक्ति कन्याके साथ पाणिग्रहण होना कठिन है। फिर मोह भी साधारण सुभट नहीं है । कहा भी है : ___"जिस प्रकार सेनापतिके नष्ट हो जाने के बाद सेना नष्ट हो जाती है और जड़ कट जानेपर वृक्ष नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार मोह कर्मके नाश हो जानेपर समस्त बाधाएं भी विलीन हो जाती हैं ।" दूसरे मोहके आहत होनेपर काम स्वयमेव भाग जायगा । मनःपर्ययवीरको बात सुनकर जिनराजने कामदेवसे कुछ स्मित के साथ कहा--अरे वराक काम, चल यहा से। मरना क्यों चाहता है ? स्त्री-रूपी गिरि-कन्दरामोंमें जाकर अपने प्राण बचा। अन्यथा तुझे अभी समाप्त किये देता हूँ। जिनराजकी बात सुनकर कामको बड़ा विस्मय हुआ । उसने अपने प्रधानमन्त्री मोहसे इस सम्बन्धमें परामर्श किया तो मोह कहने लगा-इस समय आपको अपनी कुलदेवी दिव्याशिंनी विद्याका स्मरण करना चाहिए। उसीके प्रसादसे आप इस रण-सागरसें पार हो सकेंगे। मोहकी बात कामको जंच गई। उसने ऐसा ही किया और दिव्याशिनी इस प्रकारके वेष में तत्काल पाकर उपस्थित हो गयी: यह दिव्याशिनी वत्तीस द्विज-राक्षसोंसे वेष्टित थी, चण्डीके समान भयङ्कर और तीनों लोकको भक्षण करती हुई-सी प्रतीत हो रही थी । देवेन्द्रको भी केंपा देनेवाली थो । अद्भुत बलशाली, अत्यन्त छलमय और ब्रह्मा आदिसे भी दुर्जय थी। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - मदनपराजय इस प्रकार कामके स्मरण करते ही दिव्याशिनी पाकर कामके सामने उपस्थित हो गयी । जैसे ही कामने दिव्याशिनीको अपने सामने उपस्थित देखा, वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और अनेक स्तुतिवचनोंसे उसकी निम्न प्रकार प्रशंसा करने लगा हे देवि, तुमने तीनों लोक जीत लिये हैं। तुम्हारा पराक्रम अचिन्स्य है। तुम मान और अपमान करने में दक्ष हो और तुम असाधारण भुवनेश्वरी विद्या हो । तुम ज्ञानवती हो । शब्दब्रह्म होनेसे ब्राह्मी हो ! और विश्वमें व्याप्त हो। वैष्णवो हो। सर्वभाषामय होनेसे देवमातृका हो । तुम्हारे भोजन करनेपर जगत् पुष्ट रहता है पोर भूखे रहनसे कृश । अतः तुम जगत्की माता हो। तुमसे सत्र को मानन्द मिलता है । निघन्टु. नाटक, छन्द, तर्क और व्याकरण आदि तुम्हीसे उत्पन्न हुए हैं। अतः तुम कुलदेवता हो। तुम अजन्मा हो और पद्मा हो । तुम एक हो और जगत्को प्यारी हो। इस प्रकार कामने जब दिव्याशिनीकी विविध भांति स्तुति की तो वह भी इसके ऊपर प्रसन्न हो गई और कामसे कहने लगी- काम, कहो, तुमने मुझे किस लिए स्मरण किया है ? काम कहने लगा--देवि, जिनराजने हमारी समस्त सेनाका संहार कर डाला है। इसलिए यदि इस समय तुमने मुझे किसी प्रकारसे बचा लिया तो ही मैं जीवित रह सकता हूँ। मेरी प्रारारक्षाका अन्य कोई उपाय मुझ नजर नहीं पा रहा है । अब पापहीकी जयसे मैं जयवाला और पापहीकी पराजयसे मैं पराजित समझा जाऊंगा। जब काम दिव्याशिनीके सामने इस प्रकारसे विनत हुया और दिव्याशनीने उसकी तथोक्त दीनदशा देखी और आतंन्यारणी सुनी तो वह अनेक अभक्ष्य पदार्थोको भखती हुई और मार्गवर्ती अनेक सागर, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतुर्थ परिच्छेद [ १६१ नदी-नद और तड़ाग आदिको सुखाती हुई तत्क्षण जिनराजके पास दौड़ती हुई पहुंची। जिनराजने जसे हो दिल्याशिनीको प्राते हुए देखा, उसने अधः कर्म बारणोंसे उसपर प्रहार किया । पर इतनं पर भी उसके अाक्रमणका बेग अवरुद्ध नहीं हुमा । अतः इस बार जिनराजने प्रमल प्रतिरोधक चान्द्रायण प्रभृति बाण-समूहोंकी उसपर वर्षा की। परन्तु यह बाणवर्षाभी व्यर्थ सिद्ध हुई। इसके विपरीत दिव्याशिनी क्रुद्ध वेष में सामने आई और कहने लगी-जिन राज, तुम अभिमान छोड़ दो और मेरे साथ संग्राम करो। उत्तरमें जिनराज कहने लगे-दिव्याशिनी, तुम्हारे साथ युद्ध करने में हमें लाज लगती है । क्योंकि क्षत्रिय स्त्रियोंके साथ युद्ध नहीं करते। जिनराजके इस प्रकार कहते ही दिव्याशिनीने अपना मुह धरतीसे लेकर पासमान तक फैला लिया, अपनी विकराल दाढ़ोंको बाहर निकाल लिया और भयंकर वेप बनाकर अट्टाहास करती हुई जिनराजके और निकट पहुंच गयी। तदुपरान्त जिनराजने एकान्तर, तेला, पाठ दिनके उपवास, रसपरित्याग, पक्ष, मास, ऋतु अयन, और वर्षके उपवास आदि बारगजालोसे उसे छेद दिया और वह भूतलपर जा गिरी। जब मोहने देखा कि जिनराजने दिव्यशिनोको भी भूतलपर गिरा दिया है तो वह जाकर कामसे कहने लगा-देव, अब भी आप क्या देख रहे हैं। जिस दिव्याशिनोके वलपर आप साहस धारण किए थे वह भी युद्ध में गिरादी गयी है। और स्वाति नक्षत्र में होनेवाली निर्मल जल-वृष्टिी की तरह जिनराजको बाण-वर्षा अब भी अविराम हो रही है। इसलिए इस समय प्राप तो यहाँसे चले जाइए। मैं एक क्षणतक आपकी खातिर जिनराजको सेनासे लगा । कदाचित मेरे संग्रामसे प्रापका हित साधन हो सके। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] मदनपराजय नागदेव प्रसंग मत ना त होकर अधीर हो ही रहा था इसलिए जैसे ही मोहने संग्राम भूमिसे भाग जानेका उसे परामर्श दिया वह तुरन्त ही बहस चल पड़ा। जिस प्रकार प्रचण्ड पवनसे ग्राहत मेघ खण्ड-खण्ड होकर उड़ जाता है, सिंहके भय से हाथी भाग जाता है और सूर्य किरणोंसे विमदिल अन्धकार विलीन हो जाता है उसी प्रकार जिनराजकी बारावर्षा श्राहत काम भी संग्राम-भूमिसे भाग निकला । * १७ अथ निर्गते मदने क्षीणाङ्गो मोहः पवनप्रहताभ्रमिव जिनसैन्यं क्षणमेकं प्रतिस्खलितवान् । ततो जिनेनोक्तम्- धरे मोह बराक, गच्छ गच्छ कि बुथा मनुं - मिच्छसि ? एतarकण्यं मोह ग्राह-हे जिन, किमेवं वदसि ? पुरा मया सह सङ्ग्रामं कुरु । यतो मय जीविते स्थिते मनोऽयं केन जेतव्यः ? अन्यच्च, स्वाम्यर्थे भूत्येन प्राणत्यागः कर्त्तव्यो न पलायनम् । उक्तं च " जितेन लभ्यते लक्ष्मी तेनापि सुराङ्गनाः । क्षणविध्वंसिनी ( नः ) काया ( याः ) का चिन्ता मरणे रणे ।। १७ ।। " तथा च "स्वाम्यर्थे यस्त्यजेत् प्राणान् भूत्यो भक्तिसमन्वितः । लोके कीत्तिर्यशस्तस्य परत्रे चोत्तमा गतिः ।। १८ ।। " अन्यच्च "स्वाम्यर्थे ब्राह्मणार्थे च गवार्थे स्त्रीकृतेऽथवा । स्थानार्थे यस्त्यजेत् प्राणांस्तस्य लोकः सनातनः ||१६|| " एवं तयोजनमोहोर्यावद्रणविवादः परस्परं वर्तते तावद्धर्मध्यानेन (नः) समर क्रुद्ध ेनाग्रतः (क्रोप्रतः ) स्थित्वा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १६३ मोहस्तं चतुर्भेदवर्हत्वा भूतले शतखण्डमकार्षीत् । ततोऽनन्तरं ससैन्यो जिननाथो घावन् मवनस्य पृष्ठतो लग्नः । ततः ससंभ्यं जिमपतिमागच्छन्तं यावद् दूरस्थमवलोक्य ( कयति) तावन्मदनी महाव्याकुलोऽभूत् । प्रथ तस्य भवनस्य । तस्मिन्नवसरे न चात्मकलत्रस्थ संस्मरणम, न च शरचापावीनाम्, न चाश्वरथगजपदातीनाम् । एवंविधः शुष्कास्यो मुक्तकेशो यावन पश्यति तावच्छ्रीप्रमाक्रम्य जिनस्तं मदनं प्रचारितवान् रे रे मन अपलाय्य त्वं कस्या मातुर्जवरे प्रविशसि ? अन्यच्च त्वमेवं वदसि - "मया को न जितो लोके ?" मेrrent ar मिस्ता ( सन्धाय ) वक्षःस्थले विद्धो मुच्छ प्रपन्नः पतितः । तखथा J " मरुतो वै पतति मो यथा खगेन्द्रपक्षप्रहृतो यथोरगः । सुरेन्द्रवज्रण हतो यथाऽचलस्तथा मनोभूः पतितो विराजते ।। ८४|| ततस्तत्क्षणात् सर्वतो यावत्सैन्येनावेष्टितस्ताव सस्मिन्नबसरे मदनः श्लोकमेकमपठत् । तद्यथा पूर्वजन्मकृतकर्मणः फलं पाकमेति नियमेन देहिनाम् । नीतिशास्त्रनिपुणा बदन्ति यद् दृश्यते सदधुनाऽत्र सत्यवत् ॥६५॥ * १७ जब कामदेव ररण-स्थली से भाग खड़ा हुआ तो श्रीणकाय मोह जिनराजकी सेनाका सामना करने लगा, लेकिन क्षीण शक्ति होनेके कारण उसे पदे पदे स्खलित होना पड़ा । श्रतः जिनराज - ने उससे कहा - अरे वशक मोह, भाग महसि । व्यर्थ में क्यों मरना चाहता है ? Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ } जिनराजकी बात सुनकर भोह कहने लगा-परे जिन. आप यह क्या कह रहे हैं? पहले मेरे साथ तो लड़ लो । जब तक मैं जीवित हूँ, कामको कौन जीत सकता है ? फिर स्वामी के लिए अगर मुझे अपने प्राणों की बलि भी देनी पड़े तो मैं कत्तध्य समझकर उसे देने के लिए सहर्ष तैयार हूँ। रणसे भाग जाना अनुचरका कर्तव्य नहीं है। कहा भी है : 'युद्ध में विजयी होनेपर लक्ष्मी मिलती है। मरनेपर देवाजनाएं मिलती हैं। माया तो क्षणभरमें विलीन हो जाने वाली है । फिर रण में मर जानेकी कौन चिन्ता?" तथा "श्रो भृत्य भक्ति के साथ स्वामीके लिए प्राण-परित्याग करता है, उसे इस लोकमें कीत्ति और यश मिलता है तथा परलोकमें उत्तम गति ।" इस सम्बन्धमें और भी कहा है : "जो व्यक्ति स्वामी के लिए, ब्राह्मणके लिए, गायके लिए, स्त्रीके लिए और स्थानके लिए प्राणोंका परित्याग करता है उसे परलोकर्मे सदैव सुख मिलता है।" इस प्रकार जिस समय जिनराज और मोहका इस तरह परस्परमें रणसम्बन्धी विवाद चल रहा था, धर्मध्यान क्रुद्ध होकर मा उपस्थित हुआ पौर चार प्रकारके बाणोंसे मोहको आहत करके उसे शतखण्कोंके रूपमें पृथिवीपर बिखरा दिया। तदनन्तर जिनशाजने अपनी सेना लेकर काम का पीछा किया। जब कामने सेनासहित जिनराजको अपना पीछा करते हुए देखा तो वह अत्यन्त व्याकुल हो गया। उस समय उसे न अपनी सुध रही, न स्त्रीकी, न धनुष-बारणकी और न ही अश्व, रथ, हाथी और पदातियोंकी ही इसके विपरीत उस समय उसे भागने के सिवाय और कुछ सूझ ही न पड़ा और फलतः उसने भागना शुरू कर दिया । इतने में, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १६५ जब तक शुक्लध्यान वीर इस दृश्यको नहीं देखता है, तब तक जिनराज शीघ्र ही कामके निकट प्राकर कहने लगे-मरे काम, अब भागकर तू कहाँ जा रहा है ' wणा फिरसे सगनी के जहर में प्रवेमा करना चाहता है ? तुम जो कहते थे कि मैंने संसारमें किसे पराजित नहीं किया है, सो यदि तुममें हिम्मत हो तो मेरा सामना करो। इतना कहकर जिन राजने धर्मबाणावली को धनुषपर चढ़ाकर कामके वक्षस्थल में इस प्रकारसे प्रहार किया कि वह पाहत होकर जमीन पर गिर पड़ा। जिस प्रकार वायु वृक्ष को उखाड़कर गिरा देती है, साप गरुड़के पंखोंसे पाहत होकर गिर पड़ता है और पर्वत इन्द्रके वफा-प्रहारसे गिर जाता है उसी प्रकार काम जिनराजकी बाणावलीसे पाहत होकर गिर पड़ा। कामके भूतलपर गिरते ही जिनराजकी सेनाने उसे भा घेरा और बाँध लिया। इस प्रकारको अवस्थामें पड़े हुए कामको निम्नलिखित पद्य की स्मृति सजग हो उठी "पूर्वजन्मकृतकर्मणः फलं पाकमेसि नियमेन वेहिनाम् । नोतिशास्त्रनिपुणा बदन्ति यद् दृश्यते तदधुनाऽत्र सत्यवत् ।” 'नीतिकारोंने जो उपदेश दिया है कि पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मोका फल देहधारियों को अवश्य भोगना पड़ता है, वह आज खुले रूप में सामने पा गया है।" * १८ ततस्तके बदन्त्येवम्-"अयमषमो बध्यते (ताम)।" एके वदन्ति-"गईभारोहणं शिरोवपनमस्य च कर्तव्यम् ।" एके बदन्ति-''चारित्रपुरबाह्य प्रदेशे शूलारोहणमस्य क्रियते (ताम्) ।" एवमावि सकलसामन्सवोरक्षत्रियाः Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] मदनपराजय प्रहृष्ट मनसो यावत् परस्परं पदन्ति तावासस्मिन्नवसरे रतिप्रोस्यो (ती)जिनेनं प्रति विज्ञापनां कृतवत्यो । तद्यथा भो धर्माम्बुद हे कृपाजलनिधे हे मुक्तिलक्ष्मीपते भो भव्य म्बुजराज (जिरंजनरवे सर्वार्थचिन्तामणे । भो चारित्रपुराधिनाथ भगवन् हे देव देव प्रभो वैधव्यं कुरु माऽऽवयोः करुणया त्वं दीननाथ प्रभो। अन्यच्च भोकेऽस्मितिलमत्रानं साध रोयो)हि दुर्जनो वध्यः। एवं त्वयाऽपि कार्य यदि हे जिन तत् किमाश्चर्यम् ।। तम्मा मारय मार दोषिणमप्येनमावयोथिम् । कि ते पौरुषमस्मिन् प्रहते ज्ञेयं च हे देव | | अपरम उपकारिषु यः साधुः सापत्वे तस्य को गुणः । अपकारिष यः साधुः स साधुः सद्भिरच्यते ।'८६॥ नानाविध प्रकार: (-रुपायः) शिक्षित एषः स्मर: पुराऽऽयाभ्याम् । तत्फलमनेन डट तक्दिानी रक्ष रक्ष भो वेव ॥१०॥ एवं तयोविज्ञाप्यवचनं श्रुत्वा मिनेन्द्र णोक्तम्-हे रतिप्रीत्यौ(ती), भवत्योः किमनेन बहुप्रोक्त न ? दुष्टमिममधर्म तहि न मारयामि यदि देशत्यागं प्रकरिष्यति । तच्छ वा ताभ्यामुक्तम्-देव, तवावेश(शः) प्रमाणम् । परन्तु देवेन किचिन्मर्यादामा कयनीयम् । तदाकय जिनेन्द्रो विहस्योवाप-तवनेनाधमेनास्मद्देशस्य सीमा कदापि काले न ला धनीया। ततो मूयोऽपि रतिप्रीतिभ्यामुक्तम्-तद्देवेन Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १६७ शीघ्र स्वदेश सोमा कथ्यते (ताम्) । सतो जिम वर्शनबीरगणक मुख्यमाहूयाभिहितम् - अरे दर्शनवीर, मनस्य देशपट्टबानार्थ स्मदेशसीमापनं विलिख्य समर्पय । सणवीरः स्वचेतसीमापत्रं लिलेख । . तद्यथा "शुक्रमहा शुक्रशतार सहस्राराऽऽमतप्रानताऽऽरणाच्युतन - अत्रैवेयक विजयवैजयन्त जयंता पराजित सर्वाभंसिद्धि शिलापर्यन्तेषु देशेषु मदनश्चेत्प्रविशति तदवश्यं मन्धनीयः" इति विलिख्य श्रीकारचतुष्टयसहितं सीमापत्रं रतिहस्ते यत्तम् । * १८ जब काम जिमराज से पराजित हो गया तो सेना के कतिपय सुभट कामके सम्बन्ध में इस प्रकार मन्त्ररणा करने लगे- यह अधम है, इसे मार डालना चाहिए । कुछ कहने लगे- इसका शिर मूंडकर और गधे पर बिठाकर इसे निकाल देना चाहिए। और कुछ सुभट कहने लगे – इसे चारित्रपुरसे बाहर ले जाकर शूलीपर चढ़ा देना चाहिए । इस प्रकार जब समस्त सामन्त परस्पर में इस प्रकारसे वार्ता - लाप कर रहे थे उस समय रति और प्रीति कामके दुखद समाचारसे दुखित होकर जिनराजके पास आयीं और इस प्रकार प्रार्थना करने लगीं :-- - हे धर्माम्बुद, हे करुणासागर, हे मुक्तिलक्ष्मीपति, हे भव्यरूपी कमलोंके लिए सूर्य, हे सर्वार्थचिन्तामणि, हे चारित्रपुरके अधिपति - भगवन् जिनराज, आप हमपर करुणा कीजिए और कामदेवको जीवित छोड़कर हमारा सौभाग्य श्रचल कीजिए । हे प्रभो आप दीनानाथ हैं, इसलिए हम लोगोंकी प्रार्थना पर श्रवश्यमेव ध्यान दीजिए । यद्यपि संसार में यह दण्ड विधान सुप्रसिद्ध है कि सत्पुरुषकी सब तरह से रक्षा होनी चाहिए और दुर्जनको दण्ड दिया जाना - Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] मदनपराजय चाहिए । हे जिनराज, यदि इस पद्धतिका आप भी अवलम्ब ले टो कोई आश्चर्य नहीं है । हे नाथ, हमारे पतिने आपको महान् अपराध किया है। फिर भी आप उन्हें मृत्युदण्ड न दीजिए; क्योंकि इस प्रकारले क्षीणशक्ति प्राणनाथको मारने में आपका क्या पौरुष है ? और ओ उपकारियोंके प्रति सौजन्य दिखलाता है उसके सौजन्य से क्या लाभ ? वास्तविक सौजन्य तो उसका है, जो अपकारियोंके प्रति सद्व्यवहार करता है । फिर भगवन्, हम लोगोंने इन्हें अनेक प्रकारसे समझाया भी था, लेकिन इन्हों हुआ ! सीर यही कारण है कि यह अपने कर्मोंका इस प्रकारसे फल भोग रहे हैं। फिर भी देव, आपको तो रक्षा ही करनी है । रति और प्रीतिकी जिनराजने यह प्रार्थना सुनी और कहने लगे – आप इस प्रकारसे अधिक निवेदन क्यों कर रही हैं ? यदि यह पापारमा देशत्याग कर दे तो में इसे नहीं मारूंगा । जिनराजको बात सुनकर रति और प्रीति कहने लगी- देव, हमें आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। लेकिन आप कुछ मर्यादा का निर्देश तो कर दीजिए। यह सुनकर जिनराज हँसकर कहने लगेयदि यह बात है तो कामको हमारे देशकी सीमाका उल्लंघन नहीं करना चाहिए । — रति प्रीति फिरसे कहने लगी- देव, आप कृपाकर अपने देशकी सीमा बतला दीजिए, फिर उसका उल्लंघन न होगा । रति प्रीतिकी बात सुनकर जिनराजने दर्शनवीर आदिको बुलाकर कहा - धरे दर्शनवीर, मदनको देशपट्ट देने के लिए अपने Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थं परिच्छेद [ १६९ देशकी सीमा बतलाते हुए उसे एक सीमा-पत्र दे दो, जिससे वह इस निर्धारित सीमाके भीतर कदापि प्रवेश न करे । जिनराजकी आज्ञानुसार दर्शनवीर ने इस प्रकारसे सीमान्पत्र लिखना प्रारम्भ कर दिया : - शुक्र - महाशुक्र, शतार-सार, श्रानत-प्राणत, धारण-अच्युत, नव ग्रेवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि तथा सिद्धशिला पर्यन्त के प्रदेशों में यदि मदनने प्रवेश किया तो इसे अवश्य ही मृत्यु दण्ड दिया जायगा।' इस प्रकार श्रीकार - चतुष्टय के साथ सीमा पत्र लिखकर रतिके हाथ में दे दिया । * १६ ततोऽनन्तरं भूयोऽपि रतिप्रीस्पो ( तो ) जिनेन्द्र प्रति विज्ञापयांचऋतु:-देव, तदना कतिपय भूमि यथाऽस्मानयति तथाविषसहचरो दातव्यो भवद्भिः । तच्छ्रुत्वा जिनेन्द्रः सकलात्म सुभटानामाह्वाननं (ह्नामं) चकार । तद्यथाधर्माचारमाः क्षमानयतपोमुण्डाङ्गतत्त्वक्रियाः प्रायश्चितमतिश्रुतावधिमनः पर्यायशीलाक्षकाः । निर्देगोपशम सुलक्षणभटाः दृष्टाभिधा ( ? ) संयमाः स्वाध्यायाभिधब्रह्मचर्य सुभटा द्वौ धर्मशुक्लाभियो । ६१ । गुप्ति गुणा महागुणभटाः सम्यक्त्व निर्धन्यकाः पूर्वाङ्गाभिकेवलप्रभृतयो येभ्येऽपि सर्वे भटाः । तानाहूय जिनो बभारण भवतां मध्ये हि को यास्यति प्रद्युम्नं कियदन्तरं कथयत प्रस्थापनार्थं पुमान् ? |२| तदाकर्ण्य से सर्वे न किचिद् वन्तः स्थिताः, तदा जिनेन्द्रः पुनरभाषत - अहो, कस्माध्यं मोनेन स्थिताः ? किमर्थ मेतस्य (स्मात् ) युष्माकं मनसि भीतिर्वर्तते ? अयं तावन्म Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] मदनपराजय बनो मया त्यक्तवर्षः कृतोऽस्ति । तत्कथं वो भयकारणम् ? अन्यच्च विषहीनो यथा सो दन्तहीनो पथा गजः । नविरहितः सिंहः सैन्यहीनो यथा नृपः ।।६३|| शस्त्रहीनो यथा शूरो गतबंष्ट्रो यथा किटिः। नेत्रहीनो यथा स्याम्रो गुणहीन यथा धनुः ।।४।। शृङ्गविनेव महिषो निकण्डरिव शूकरः । तथाऽयमस्ति पंचेषगत शौर्यबलायुधः ॥१५॥ (सन्मानितकम्) एवं जिनवचनमाकर्य तत्र शुक्लध्यानबोरोऽवादीतदेव, यास्याम्यहम् । ममादेशं देहि । पर किषिद्धणियामि सहवधारय । एवं तावत्सर्वज्ञाख्योऽसि । सर्व जानाति । तत्कथमस्य पापस्य वरिणः सहचरो दीयते ? कोऽयं हेतुः ? किन मारयसि ? प्रथ सर्वशो बभाषे-अरे शुक्लध्यानवीर, शृण-"करणागतमपि वैरिणं न हन्यते (हन्ति)" इति राजधर्मः । यत "कि पाणिना परधनग्रहणोद्यतेन कि पाणिना परवधूस्तनलम्पटेन ? किं पाणिना गलगृहीतवनीपोन कि पाणिना शरणसंस्थितघातकेन ? ॥२०॥" अन्यच्च, यवभीष्टं तदस्माकं सिद्धम् । तदभुना किमनेन होन प्रयोजनम् ? Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १७१ * १९ इसके पश्चात् रति प्रीतिने जिनराजले पुनः निवेदन किया - महाराज, आप हमें ऐसा सहचर दीजिए जो कुछ दूरतक हम लोगों को पहुंचा श्रावे | क्योंकि श्रापके वीरोंसे हमें बहुत डर लग रहा है । यह सुनकर जिनेन्द्र ने धर्मं, प्राचार, दम, क्षमा, नय, तप, सत्य, कृपा, प्रायश्चित्त, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, शील, निवेंग उपशम, सुलक्षण, स्वाध्याय, ब्रह्मचयं, धर्म, शुक्ल, गुप्ति, मूलगुण सम्यक्त्व, निर्ग्रन्यश्व, पूर्वाङ्ग और केवलज्ञान आदि जितने वीर थे उन सबको बुलाया, और बुलाकर कहने लगे-- श्राप लोगों में इस प्रकारका कौन वीर है जो कामको कुछ दूरतक भेजने के लिए उसके साथ जा सकता है ? जिनराजक यह बात सुनकर जय किसान कुछ उस नहीं दिया तो जिनराज फिर कहने लगे- प्राप लोग चुप क्यों रह गये हैं ? आप कामसे क्यों डरते हैं ? मैंने इसका दर्प क्षीण कर दिया है । अतः अब भयका कोई कारण नहीं है । और कामदेव इस समय तो विषहीन सौपकी तरह, दतिरहित हाथीकी तरह नखशून्य सिंहकी तरह, संभ्यहीन राजाको तरह शस्त्रहीन शूरको तरह, दन्तरहित बराहकी तरह, नेत्रहीन व्याघ्रकी तरह, गुराहीन धनुष की तरह शृङ्गशून्य भैसेकी तरह घोर दाढ़ीन वराहकी तरह क्षीणबल हो गया है | इस प्रकार जिनराजकी बात सुनकर शुक्लध्यानवीर कहने लगा -- देव मुझे आज्ञा दीजिए। मैं जानेके लिए तैयार हूँ। लेकिन एक निवेदन करना है, जिसपर आपको अवश्य ही ध्यान देना चाहिए । मेरा यह निवेदन है और श्राप स्वयं सर्वज्ञ होनेसे जिसे जानते भी हैं कि काम अत्यन्त पापात्मा और वैरी है। यह कदापि अपना स्वभाव छोड़नेवाला नहीं है। इसलिए आप इसे मार क्यों नहीं डालते ? Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] मदनपराजय सहवर भेजकर इसको प्राणदानके साथ ही इसकी दूषित वृत्तियोंको प्रोत्साहन क्यों है । शुत्रलयानवीरकी बात सुनकर जिनराज कहने लगे - शुक्लध्यानवीर, कामको हमें इस समय नहीं मारना चाहिए, क्योंकि यह राजधर्म है कि कोई शरणागत वैरीको भी भृग्यु दण्ड न दे । नीतिकारोंने कहा भी है "वह हाथ किस कामका जो दूसरेका धन छुए, परस्त्रीके स्तनका लम्पट हो, याचकोंके गलेमें धक्का देकर उन्हें बाहर करे और शरणागतका वध करे ।" फिर हमारा प्रयोजन सिद्ध हो ही चुका है। अब इसके मारतेसे क्या लाभ ? * २० ततो रतिश्वाच-देव, शुक्लध्यानयोरोऽयं शुभतरां विज्ञप्तिकां करोति । एवंविधोऽयमस्मात् यदि मारथितु शक्नोति कोऽत्र सन्देहः ? यतस्तादृशी शक्तिरस्य शुक्लध्यानवीरस्य दृश्यते । उक्त ं च FTM "आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषणेन च । taaraविकारेण लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥२१॥" तदाकयं जिनेन्द्रो विहस्य प्राह है रते, मा भैषीः । न भविष्यत्येवम् । किमयं शुक्लध्यानवीरो मम वचनमुल्लङ घघ युष्मान् हनिष्यति ? एवमुक्त्वा रतिप्रीतिभ्यां सह शुक्लध्यानबीरं प्रस्थापयामास । ततोऽनन्तरं मदनसकाशमागस्य रतिप्रीतिभ्यां वचनमे. तदभिहितम् - भो नाथ, भवदर्थं नानाविज्ञापन वचनंरावाभ्यां जिननाथो विज्ञप्तः । प्रन्यच्च देव, तव मरणमवश्यं प्राप्तम - Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १७३ प्यावयाः कृपाववनरवनया न प्राप्तम । तधना जिनेन दर्शनवीरसकाशाद विलिख्य स्वदेशसीमापत्र दत्तम् । एतद् गहाण । प्रतो जिनदेशसीमां विहाय युडमाभिरन्यत्र सुखेन स्थातव्यम् । धैवेन विपरीतेन कि कतुं शक्यते ? अन्यच्च, कतिपयभूमिपर्यन्तं शुक्लध्यानवीरः सहचरः प्रहितोऽस्ति । तदधुना कि न गम्यते ? एवं वचनमाप्रश्रवणास्पंवेषणा निजमनसि चिन्तितम्प्रहो, इदानी कि कत्तंच्यम् ? शुक्लध्यानवीरः सहचरः शुभकरोऽस्माकं न भवति । यतोऽनेन शुक्लध्यानवीरेण दृष्टोऽहं चेत् तववश्यं प्रहरिष्यति । तरकोस्य शुक्लध्यानवीरस्य विश्वास: ? उक्तंच"न बद्ध्यन्ते ह्यविश्वस्था (स्ता) दुर्बला बलवत्तरैः। विश्वस्था (स्ता)श्वाशु वद्धधन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलः।२२।" एवं चिन्तयित्वा सप्ताङ्गानि परित्यज्यानको भूत्वा निर्गतो पुवतीजनगिरिकपाटं निविष्टः । अथ तस्मिन्नवसरे सधीपसिना ब्रह्माणं प्रत्युक्तम्-ब्रह्मन्, पश्य पश्य मदनेनातिहारितम् । इति श्री ठकुरमाइन्ददेवस्तुजिन (नाग) देवविरचिते सुसंस्कृतबन्धे स्मरपराजयेऽनङ्गभङ्गो नाम चतुर्थः परिच्छेदः ।।४।। * २० रति शुक्लध्यानवीरकी बात सुन रही थी। वह जिनराजसे कहने लगी-भगवन्, शुक्लध्यानवीरका आशय हमें शुभ नहीं मालूम देता। कौन जाने, कदाचित् यह हमलोगोंको रास्तमें ही समाप्त कर दे। शुक्लध्यानवीरको वीरता भी ऐसी ही है। कहा भी है Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ गणय "प्राकार, इंगित, गति, चेष्टा और भाषणसे, नेत्र और मुखके विकारोंसे मनके भीतरकी बात पहचानी जा सकती है।" रतिफी बात सुनकर जिन राज हंस पड़े और कहने लगे- हे रति, तुम डरो मत । यह कभी न होगा। यह संभव नहीं है कि शुक्लध्यानवीर हमारी बात न माने और तुमलोगोंको मार गले इस प्रकार कहकर जिनराजने शुक्लध्यानवीरको रसि और प्रीति के साथ भेज दिया। तदुपरान्त रति और प्रीति वहां से चलकर काम के पास आयी और काम से कहने लगीं-नाय, प्रापकी प्राणरक्षाके लिए हम लोगोंने जिनराजसे अनेक प्रकारको अनुनय-विनय की श्रीर यदि हम लोगोंने उनकी इस प्रकार से स्तुति-प्रार्थना न की होती तो आपको प्राणरक्षा असम्भव थी। इस समय जिनराजने 'दर्शनवीरसे लिखवाकर एक स्वदेश-सीमापत्र दिया है, जिसे पाप पढ़ लीजिए । अतः हम लोग जिनराजके देशको सीमा छोड़कर अन्यत्र के लिए चल दें और वहाँ शान्तिके साथ जीवनयापन करें। इस समय देव प्रतिकूल है। और पता नहीं, उसके मन में क्या समाया हुआ है ? इसके अतिरिक्त जिनराजने हमलोगों को कुछ दूर तक भिजवानेके लिए शुक्लध्यानवीरको साथमें भेजा है । इसलिए अब हमें यहाँसे चल ही देना चाहिए। रति और प्रीतिकी बात सुनकर काम अपने मनमें सोचने लगा-- कि अब क्या करना चाहिए? शुक्लध्यान हमारा सहघर बनाया गया है, जो हमारे हकमें कदापि शुभकर न होगा। यदि में शुक्लध्यानवीरको दृष्टि में प्रा गया तो यह अवश्य ही हमारे ऊपर प्रहार करनेसे न चूकेगा। इसलिए इस शुक्लध्यानवीरका क्या विश्वास किया जाय ? कहा भी है Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १७५ "बलवान् भी अविश्वस्त दुर्बलोंको नहीं बाँध सकते, और विश्वस्त होकर बलवान् भी दुर्बलोंके द्वारा सरलतासे बाँध लिये जाते हैं।" कामने इस प्रकार सोच-विचार करने के उपरान्त अपना शरीर सर्पया ध्वस्त कर दिया और अनङ्ग होकर युवतियोंकी हृदय-कन्दरामें प्रवेश कर गया। इस अवसरपर इन्द्र ब्रह्मासे कहने लगे-देव, देखिए. देखिए, फामदेव अनङ्ग होकर अदृश्य हो गया है । इस प्रकार ठक्कुर माइन्ददेवके द्वारा प्रशंसित जिन (नाग) देवविरचित संस्कृतबद्ध मदनपराजयमें अनङ्ग-मन नामक चतुर्थ परिच्छेद पूर्ण हुआ। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमः परिच्छेदः * १ तं मन्मथं विजय पौरुवदर्पहीनं योषिजनांचल विलासगृहं प्रविष्टाम् । दृष्ट्वातिहृष्टमनसा त्रिदशाधिपेन प्राय तत्र च वयां बच एतदुक्तम् ||१|| जये, स्वया मोक्षपुरं हि गरबा श्रीसिद्धसेनं प्रति वाच्यमेवम् । विवाहकार्याय सुतां स्वकीयां शोघ्र गृहीत्वा गमनं प्रकार्यम् ||२|| श्रुत्वा वचस्तत्र दया उठौके प्राप्यान्तिकं मोक्षपुराधिपस्य । तो सम्मुखं वीक्ष्ण वयामधासा बेवं वचः प्राह च सिद्धसेनः ॥३॥ का त्वं दयाsहं किमिहागतासि प्रस्थापिता भो त्रिदशाधिपेन । कार्याय कस्मे च ततस्तयाद्य वृत्तान्तमु( उ ) क्त (तः ) स पुनर्वबाद ||४|| कोऽसौ वरो मे तनयासमानो गोत्रं कुलं कीदृशमस्ति रूपम् ? कायोच्छ्रयस्तस्य कतिप्रमाण स्तस्यैवमाकर्ण्य वचोऽवीत् सा ॥५॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद रूपनामगुणगोत्र लक्षणाऽऽपृच्छया किमिति कारणं प्रभो ? सोऽग्रयच्छृणु वयेऽधुना हि तत्कारणं सकलमत्र कथ्यते || ६ || रूपवान् विमलवंशसम्भवो देवशास्त्रगुरुभक्तिमान् सदा । सज्जनोपकृतिकारको युवा [ १७७ संयुधः सुतः॥७॥ शीलवान् धनयुतो हि सद्गुणी शान्तिमतिरपि सोद्यमो भवेत् । यो हि, तस्य तनुजा प्रदीयते, सा दया तत इदं वचोऽवदत् ||८|| श्रीनाभिपुत्रो वृषमेश्वराट्य स्तस्य प्रभो, तोर्थंकरंच गोत्रम । रूपेण रम्योऽनु तहाटकाभो विशालवक्षः स्थलभासमानः ॥ ६॥ सर्वप्रियोऽष्ट। प्रसहस्त्रसंख्यकेः सल्लक्षणं तवपूः शृणु प्रभो । योऽशीतिलक्षश्च चतुभिरुत्तरं गुर्णतः शाश्वतसम्पदान्वितः ॥१०॥ श्राकर्णवीर्धोत्पललोचनोऽसौ योजानुविश्रान्तसुबाहुदण्डः । कि स्तोम्यहं तस्य वरस्य रूपं यस्योच्छयश्चापशतानि पञ्च ॥ ११ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] मदनपराजय आकण्यं सर्व वरवर्णन सद् भूत्वा ततो हष्टममाऽप्रवीत् (उवाच) सः । दयेऽधुनाऽलं पुनरेव गत्या स्वया प्रतीन्द्रं कथनीयमेवम् ॥१२॥ प्रस्थापयामः स्वसुतां भवद्भिः __ स्वयंवरायं रचनाऽशु कार्या । पानीयते कर्मधनुविशालं यत्कालभूपालकमन्दिरस्थम् ॥१३॥ मुरमा समस्तं सोच हास। शीघ्रच मोक्षादथ निर्गता सा । सम्प्राप्य शक प्रति तत् समस्तं दया हि वृत्तान्तमचीकथत् सा ॥१४॥ सकलमिति च श्रुत्वा क्षिप्रमाहूय यक्षं धनबमथ सुरेशस्तं प्रतीवं बभाषे । सकलसुरनराणां मानसालावकार समवशरणसंज मण्डपं है (वं ) कुरुष्य ॥१५॥ श्रुत्वेवमिन्द्रवचनं धनदः स तस्मिन् सोपानविंशतिसहस्रविराजमानम् । भुङ्गारतालकलशध्वजनामरोघ. श्वेतातपत्रवरवर्पणसंयुतंच ॥१६॥ स्तम्भप्रतोलिनिधिमार्गतटाकवल्ली प्रोधानपघटहाटकवेदिकाभिः । विभाजितं विमलमौक्तिकभासमानं द्वारैः सुतोरणयुतैः सहितं चतुभिः ॥१७॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद [ १७९ प्रासादचैत्यनिलयामरवक्षनाट्य पालारिकोष्ठकसुगोपुरसंयुतंच । एवंविधं ानुपमं किल मणपंच चक्रे हि षडाधगुणयोजनाधिस्तर तारा(संवानितकन) तस्मिन्ननोऽमरपतिप्रमुखाः समस्ता विद्याधरामरनरोरगकिन्नराधाः । गन्धर्वदिक्पतिफणीश्वरचऋत्ति यक्षादयोऽपि सकलाश्च समागतास्ते ।।१६।। अथास्रवः पंचभिराशु तस्मिन् यत्कालभूपालककोशसंस्थम् । कापोतनीलासितवुष्टलेश्या वणैरोषस्तु सुचित्रितं यत् ॥२०॥ मध्ये समोहायतसूत्रबद्ध त्वाशामुमेन प्रतिभासमानम् । पानीय सर्वामरसम्मुखं तैः संस्थापितं तद् कर्मचापम् ।।२१॥(युग्मम्) प्रवर्तते तत्र च यावदेवं तायत्ततो या रमणीयरूपा। सदा हि शुद्धस्फटिकाभदेहा रत्नत्रयाला कृतरम्यकण्ठो ॥२२॥ पूणेन्दुबिम्बप्रतिमानना या नीलोत्पलस्पद्धिविशालनेत्रा। हस्ते गृहोतामलतत्त्वमाला सैव प्रपन्ना बारमुक्तिलक्ष्मीः ॥२३॥ (युग्मम्) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] मदनपराजय तीक्ष्य स त्रिदशाधिराज ततोऽब्रवीत्तान् सकलान् प्रतीयम् । परिषद्धसेनेन पुरोि धूयं समस्ताः शृणुतात्र सर्वम् ||२४|| यः कर्मकोदण्डमिवं विशालं ह्याकर्षते मुक्तिपतिः स च स्यात् । श्रुत्वा तदेवं न च किचिदूचुः परस्परं वीक्ष्य मुखं यदा ते ||२५|| तथा जिनेन्द्रोऽतिमनोहरो यो लोकेश्वरः सन्ततशान्तमूतिः । ज्ञानात्मक ज्ञात समस्ततत्त्वो दिगम्बरः पुण्यकलेवरो यः ||२६|| भवार्णयोतीर्ण उदारसत्त्वो दशार्द्ध कल्याण विभूतियुक्तः । आताम्रनेत्री वरपद्मपाणी रजीमलस्वेदविमुक्तगात्रः ||२७|| तपोनिधिः क्षान्तिवयोपपन्नः समाधिनिष्ठस्त्वथ निष्प्रपञ्चः । छत्रत्रयेणातिसितेन रम्यो भामण्डलेन प्रतिभासमानः ॥ २८ ॥ यो देवदेवो मुनिवृन्दबन्धो वेवेषु शास्त्रेषु य एव गीतः । निरंजन: सद्गतिरव्ययो यः सिंहासनादुत्थित की (ई) शोऽसौ | २११ (कलापकम् ) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद [ १८१ प्रागस्य चापाभिमुखो हि मूरखा हस्ते गृहीत्वा परमेश्वरेण । माकर्णसजीकृतमाशु याव ताबनमहानावयुतञ्च भग्नम् ॥३०॥ तद्भङ्गनादोच्चलिता च पृथ्वी प्रकम्पिताः सागरपर्वताहाः । वगंस्थिताः पद्मभचाहिमेवा मूच्छा प्रपन्नाः पतिताश्च सर्वे ॥३॥ ततस्तया वीक्ष्य समस्तमेवं मुक्तिप्रियानन्दसमेतया तत् । क्षिप्ताशु कण्ठे परतत्त्वमाला श्रोनाभिसूनोवृषभेश्वरस्य ॥३२॥ प्राप्तास्ततो मङ्गलयोषितश्च चतुणिकायास्त्रिक्शाः समस्ताः । अन्येऽप्यसंख्या मिलिताश्च तस्मिन् जना जिनेन्द्रोत्सवधीक्षणायम् ।।३३।। ताथामृगपतिमहिषोष्ट्राऽष्टापदद्वोपिरिश्य. वृषमफरवराहल्याघ्रकारण्उवाश्च । द्विपबककलहंसाश्चक्रवाकाश्च पृङ्गिद्विजपति गवयाश्वाः कुक्कुटाः सारसाश्च ॥३४॥ इत्याविवाहविमानसमाधिरूढा ये षोडशाभरणभूषितदिव्यदेहाः । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] मदनपराजय प्रान्दोलितध्वजपटप्रखुरातपत्रा मानाकिरीटमणिभाप्रहताकंभा ये ॥३५॥ विव्यायुषस्वपरिवारवधू ममता उच्चैःकृतस्तुतिमनोहरनुत्पपीताः । मेरीमृबङ्गपटहाम्बुजकालादि घण्टास्वनैवधिरिताम्बरमण्डला ये ॥३६॥ अन्योन्यवाहनविमानकराजप्रवेह संवर्षणग्रुटितमौक्तिकरत्नमालाः । एवंविधा मुकुलिताऽमलपाणिपधाः खावागता जय जयेति रवं ब्रवन्तः ॥३७॥ (संवानितकम्) तथा चश्रीहोकीत्तिसमस्तसिदिसमसा निःस्वेदतानिर्जराः वृद्धिविरशस्यता सुविभवा बोषिः सम्बधिः प्रभा । शातिनिर्मलता प्रणीतिरजिता निमोहता भावना तुष्टिः पुष्टिरमूढष्टिसुकलाः स्वास्मोपलब्ध्यादयः ॥३८॥ निःशडाकान्तिमेधाविरति मतितिक्षान्तिवाचाऽनुकम्पा इत्याद्याः पुण्यरामा ललित भुजलता इन्दुतुल्यानना याः। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद नानाहारविचित्रैविविधमणिमय सम्प्रापुस्तत्र शीघ्र जिनवर रम्ययक्षःस्थला था: ततो हि मुक्तधा सहितो जिनेन्द्रो यात्रामङ्गलं मायनार्थम् ||३६|| (युम्नम् ) कृतामरीधर्वर पुष्पवृष्टि एव तथा च [ १८३ मनोरथेभंथ स आरुरोह । सुन्श्यं पुरतोऽमरेन्द्रः ॥ ४० ॥ कुर्वन्ति शेषाभरणं दयाथा वागीश्वरी गायति मङ्गल । प्रणाविताः शखमृदङ्गमेर्यः सत्कालाद्या पटहा: सुरोधः ॥४१॥ अनन्त केवलज्ञानवी पिकानां हि तेजसा । विभात्यनुपमा लोके वरयात्रा जिनप्रभोः ॥४२॥ [ पंचम परिच्छेद ] * १ जब इन्द्रने देखा कि कामदेव विजय, पौरुष और गर्वसे हीन होकर युवतियोंकी हृदयकन्दरा में प्रवेश कर गया है तो वह बहुत प्रसन्न हुआ । उसने तुरन्त ही दयाको अपने पास बुलवाया और उससे इस प्रकार बात करने लगा ---- दये, तुम मोक्षपुर जाओ। वहाँ पहुँचकर सिद्धसेनसे कहना कि वह विवाह के लिए अपनी कन्या लेकर यहाँ शीघ्र श्राबें I Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] मदनपराजय इन्द्रका वचन सुनकर दयपान कर दिगः । वह मोक्षगुरुगे अधिपति सिद्धसेनके सामने पहुँच गयी। सिद्धसेनने सामने आते ही उससे पूछा-तुम कौन हो? दयाने कहा-मैं दया हूँ। सिखसेन-तुम यहाँ किसलिए पायी हो ? दया-मुझे यहाँ इन्द्रने भेजा है। सिडसेन-इन्द्रने तुम्हें यहाँ किस कार्यसे भेजा है ? दयाने उत्तरमें इन्द्रके द्वारा कहा हुमा समस्त वृत्तान्त सिद्धसेनको सुना दिया। तदनन्तर सिद्धसेन कहने लगे-यह प्रस्तावित वर कौन-सा वीर है ? क्या मेरी कन्या-जैसी योग्यता उसमें है ? उसका गोत्र, कुल और रूप कैसा है ? उसके शरीरकी ऊंचाई कितनी है ? सिद्धसेनकी प्रश्नावली सुनकर दया कहने लगी-प्रभो, आप वरके रूप, नाम, गोत्रके सम्बन्धमें क्यों पूछ रहे हैं ? दयाके प्रश्नके उत्तरमें सिद्धसेन कहने लगे-दया, सुनो, मैं तुम्हें इस सम्पूर्ण प्रश्नावलीके पूछने हेतु बतलाता हूँ। वह कहने लगे दया, जो वर रूपवान्, कुलीन, देव-शास्त्र और गुरुओंमें भक्तिमान्, प्रकृतिसे सज्जन, शुभलक्षण-सम्पन्न, सुशील, धनी, गुणो, सौम्य-मूर्ति और उद्यमी होता है उसीको कन्या देनी चाहिए। यदि किसी वरमें ये विशेषताएं न हों तो उसे कन्यादानका पात्र नहीं समझना चाहिए। सिद्धसेन कहने लगे - दया, मैंने इसी कारण से यह वर-प्रश्नावली तुमसे पूछी है। सिद्धसेनकी बात सुनकर दया कहने लगी-सिद्धसेन, तब आप अपनी प्रश्नावलीका उत्तर सुन लीजिए --- Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद [ १५५ श्रीनाभिन रेशके पुत्र श्रीवषम तो बर हैं। तीर्थकरत्व उनका गोत्र है। रूपसे सुवर्ण-सुन्दर हैं। उनका वक्षःस्थल विशाल है । वे सबके प्रिय हैं और १००८ शुभ लकरणोंसे सम्पन्न उनका शरीर है । वे चौरासी लाख उत्तर गुणोंसे सम्पन्न और शाश्वत सम्पत्तिसे संयुक्त हैं। आकर्णदीर्ध और कमलके समान उनके नेत्र हैं । एक योजनकी लम्बी भुजाएं हैं। मैं उस वरके सौन्दर्यका कहाँ तक वर्णन करू जिसकी ऊँचाई पांच सौ धनुषप्रमाण है। दया-द्वारा बतलायी गयो वर महोदयकी समस्त गुण-गाथा सुनकर सिद्धसेनको बड़ी प्रसन्नता हुई। यह दयासे कहने लगे-दया, प्रच्छी बात है। तुम इन्द्र के पास जाओ और कहो कि सिद्धरेन अपनी कायाको ला रहे हैं, तबतक स्वयंवरकी तैयारी करो। यह भी कहना कि वे अपने साय यमराजके मन्दिरमें रखा हुआ अपना विशाल कर्मधनुष भी साथमें लावेंगे। सिरसेनकी बात सुनकर दयाको बड़ी प्रसन्नता हुई । वह शीघ्र ही मोक्षपुरसे चल पड़ी और इन्द्रके पास पहुँचकर समस्त वृत्तान्त सुना दिया। इन्द्रने जैसे ही दया-द्वारा बतलाया गया समस्त समाचार सुना, कुबेरको बुलाकर वे उसे तत्काल इस प्रकारका आदेश देने लगे कुबेर, तुम तुरन्त एक समवशरण नामक मण्डप तयार करो, जिसे देखकर समस्त देव और मानवों का मन आह्लादित हो जाय । इन्द्र के प्राज्ञानुसार कुबेरने समवशरण मण्डगकी रचना की, जिसमें २०००० सोढ़ियां थीं और जो भृङ्गार, ताल, फलश, ध्वजा, चामर, श्वेत छत्र. दर्षण. स्तम्भ, गोपुर, निधि, मार्ग तालाध, लता उद्यान, धूपघट, सुवर्ण, निर्मल मुक्ता फलसे सुशोभित और चार Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ } मदनपराजय सुन्दर तोरण द्वारोंसे अभिराम था । इसके अतिरिक्त भवन, चैत्यालय, कल्पवृक्ष, नाटयशाला, द्वादश सभाओं और गोपुरोंसे रमणीय सभामण्डप बारह योजनके विस्तारमें तैयार कर दिया गया । इस समवशरण में इन्द्र आदिक समस्त देव, विद्याधर, मनुष्य, उरम, किन्नर, गन्धर्व, दिपति, फणीन्द्र, चक्रवर्ती और यक्ष आदिक सब पाकर उपस्थित हो गये। इसके पश्चात् प्रास्त्रबोंने कर्मधनुषको-जो यमराजके भवन में रक्खा हुआ था, कृष्ण, नील, कापोत-दुष्ट लेश्यामय बोसे चित्रित था, बीच में मोहरूपी तांतसे बँधा था और पाशारूप डोरीसे अलंकृत या-लाकर समस्त देवताओंके सामने रख दिया । प्रास्रवोंने कर्मधनुषको लाकर रक्खा ही था इतने में रमरणीय रूपवती, शुद्ध स्फटिक शरोरवालो, रत्नत्रयीरूप रेखामोंसे अलंकृत कण्ठवाली, पूर्ण चन्द्रमुखी, नील कमलके समान सुन्दर नेत्रबाली मुक्ति-लक्ष्मी भी हाथमें तत्वरूपो वरमाला लेकर उपस्थित हो गयी। सबको उपस्थित देखकर इन्द्र कहने लगा--वीरो, पाप सिद्धसेन महाराजका सन्देश सुन लीजिए । उनका सन्देश है कि जो इस विशाल कर्मधनुषको बींचकर उसका मन करेगा वही मुक्ति-कन्याका वर समझा जायगा। इन्द्रकी घोषणा सभीने लूनी, परन्तु उसे सुनकर सब एकदूसरेका मुंह देखने लगे। कोई भी धनुष तोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ । इतने में अत्यन्त मनोहर, शान्तमूर्ति, सर्वज्ञ, समस्त तत्वोंके साक्षातकर्ता, दिगम्बर, पुण्यमूर्ति, संसारके उद्धारक, अनन्त शक्तिशाली पांच कल्याणकों से अलंकृत, प्राताम्रनेत्र, कमलपारिण, पाप-मल Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद [ १८७ और स्वेद प्रादिसे रहित तपोनिधि, क्षमाशील, संयमी, दयालु, समाविनिष्ठ तीन छत्र और भामण्डलसे सुशोभित, देव-देव, मुनिवृन्दके द्वारा वन्दनीय, वेद-शास्त्रीद्वारा उपगीत और निरजन जिनराज सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये । वह धनुषके सामने प्राये और उसे हाथमें ले लिया। उन्होंने जैसे ही उसे कान तक खींचा. वह टूट गया और उसके टूटनेसे एक महान भयङ्कर शब्द हुआ । कर्म-धनुषके भङ्ग होनेपर जो नाद हुआ, उससे पृथ्वी चलित हो गयो। सागर और गिरि कैप गये तथा ब्रह्मा प्रादि समस्त देव मूच्छित होकर गिर गये। ज्यों हो मुक्ति-श्रीने यह दृश्य देखा, उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने तत्काल नाभिनरेशके सुपुत्र श्री वृषभनाथके कपट में तत्त्वमय वर-माला डाल दी। वरमालाके डालते ही देवाङ्गनाएँ मङ्गल-गान गाने लगी और इस महोत्सवको देखने के लिए समस्त चतुनिकायके देव आकर उपस्थित हो गये। इन देवोंमें कोई सिंहके वाहनपर सवार थे तो कोई महिषके। कोई ऊँटके वाहनपर अधिरूढ़ थे, तो कोई चीतेके । कोई बैल के वाहनपर बैठे हुए थे, तो कोई मकरके। किन्हींका वाहन वराह था तो किन्हींका व्याघ्र । किन्हींका गरुड़ था तो किन्हींका हाथी। किन्हींका बगुला था तो किन्हींका हंस । किन्हींका चक्रवाक या तो किन्हींका गैडा। किन्हींका गरुड़ था तो किन्हीं का गवय । किन्हींका अश्व था तो किन्हींका सारस । इस प्रकार समस्त देव अपने-अपने वाहनोंपर बैठे हुए थे। इसके अतिरिक्त उनके शरीर सोलह प्रकारके प्राभूषणों से प्राभूषित थे, उनके विमानोंकी ध्वजाए और वस्त्र वायु-विकम्पित हो रहे थे और उनके किरीटोंकी कान्ति अनेक प्रकारके देदीप्यमान मणि और सूर्यके प्रकाशको भो अभिभूत कर रही थी। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] मदन पराजय ये देव सपरिवार थे और दिव्य आयुधोंसे अलंकृत थे। कोई उच्च स्वरसे मधुर स्तुति-पाठ कर रहे थे तो कोई मनोहारो नृत्य और संगोतमें तन्मय थे। और कोई भेरी, मृदङ्ग, नगाड़े और घण्टा आदि बजाकर आकाशको गुन्जित कर रहे थे। इन देवोंके अतिरिक्त धी, ह्री. कीर्ति, सिद्धि, निस्वेदता, निर्जरा, वृद्धि बुद्धि, अशल्यता, सुविभवा, बोधि, समाधि, प्रभा, शान्ति, निर्मलता, प्रणोति अजिता, निर्मोहिता, भावना, तुष्टि, पुष्टि. अमूढ़दृष्टि, सुकला, स्वात्मोपलब्धि, नि:शङ्का, कान्ति, मेधा, विरति, मति, धृति, क्षान्ति, अनुकम्पा इत्यादि देवियाँ भो-जो सुन्दर भुज-लताओं और चन्द्र-तुल्य मुखोंसे अलंकृत थीं, विचित्र और विविध मरिणमय हारोंसे जिनके वक्षःस्थल सुशोभित थे-जिनराज के विवाहमें मङ्गल-गीत गाने के लिए आ पहुंची। तदनन्तर भगवान् जिनेन्द्र मुक्ति-धीके साथ मनोरथरूपी हाथीपर आरूढ़ हो गये। उस समय देवताओंने पुष्पवृष्टि की और इन्द्रने उनके सामने नृत्य किया। दया प्रादि देवियोंने भगवानको दिव्य आभरण पहिनाये और वागीश्वरो मङ्गल-गान गाने लगी। शेष देवोंने शङ्ख, मृदङ्ग, भेरी और नगाड़े बजाये। इस अवसरपर अनन्त केवलज्ञानरूपी दीपकोंके तेजसे जिनराजको वरयात्रा अत्यन्त अनुपम मालूम हो रही थी। * २ एवंविधो यः परमेश्वरोऽसौ चतुणिकायाऽमरवन्धमानः । पुण्याजनागानसुगीयमानो भामण्डलेन प्रतिभासमानः ।।४३।। संस्तूयमानो मुनिमानवौघ योश्च यश्चामरचीज्यमानः । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद छत्रत्रयेणाऽतिसितेन रम्यो मोक्षस्य मार्गेण जगाम यावत् ॥४४॥ तथा चताथच्च तश्रावसरेऽनवी दिवं सुसंयमश्रीश्च तपःश्रियं प्रति । कि त्वं न जानासि, महोत्सवान्वितो निष्पन्न कार्यश्च जिनस्वमूक्यम् ।।४५।। प्रागस्य चारित्रपुरं स भूयो विध्वन्सते चेत्त (चे) कथमप्यनङ्गः । तस्माच्च विज्ञापय वीतरागं स्थातव्यमस्माभिरिहैव यस्मात् ।।४६॥ (कलापकम्) प्राकर्ण्य तस्याः सकल वचस्ततः प्राह त्वया हे सखि, मुक्तमोरितम् । उक्ताथ संबं कृतपाणिसम्पुटा प्रोचे तप:श्रीः पुरतो .जिनेश्वरम् ।।४५।। भो पुष्यमूर्त त्रिजगत्सुकीर्ते हे चारचामीकरतुल्यकान्ते । भो द्वषरागाय भयोपशान्ते विज्ञाप्यमेक त्ववधारगोयम् ॥४६।। भूयोऽपि चारित्रपुरे स्मररचे द्विध्वंसते, तज्जिन किं प्रकार्यम् ? Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - १९. ] मदनपराजय पतो हि यूयं कृतसर्वकार्याः का पालयिष्यत्यधुना नरोऽस्मान् ।।४७॥ (युग्मम्) अथ हि जिनवरेणाकण्यं तत्सर्वमेवं सफलश्रुतसमुद्र सज्जनानन्दचन्द्रम् । मदनगजमृगेन्द्र दोषवल्यामरेन । ___ सकलमुनिमिनेशं कर्मविध्वंसरोद्रम् ॥४॥ हतकुगतिनिवास यं व्याश्रीविलास भवकलुषविनाशथिनां पूरिताशम् । सकलगणधरेशं शानबीपप्रकाश तमिति अषभसेनं क्षिप्रमाहूय, पश्चात् ।।४६॥ प्रोचे जिनस्तं प्रति भो मृण स्वं वयं ततो मोक्षपुर बजामः । स्वया तप:श्रीगुणतत्त्वमुमान् (दाः) महानता चारक्यामयादीन (द्याः)।१५।। अस्मिन् सुचारित्रपुरे समस्ता एते झवायं प्रतिपालनोपान (याः) । सम्बोध्य तानेवमसौ जिनेशो विनिर्गतो मोक्षपुरं सुखेन ॥५१॥ (कलापकम् ) ॥ इति श्री ठक्कुरमाइन्वदेवस्तुजिन(नाग) देवविरचित स्मरपराजये सुसंस्कृतबन्धे मुक्तिस्वयंवरों नाम पंचमः परिच्छेदः ॥५॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद [ १९१ सायन्तं यः शृणोतीदं स्तोत्रं स्मरपराजयम् । तस्य मानंच मोक्षः स्यात् स्वर्गादीनां च का कथा ? 1१६ तावत् दुर्गतयो भवन्ति विविधास्तावनिगोरस्थितिस्तावत् सप्त सुवारुणा हि नरकास्तावद्दरिद्रादयः । ताव दुःसहघोरमोहतमसाच्छन्न मनः प्राणिना पान्मारपराजयोद्भवकथामेतांच शृण्वन्ति न ॥२॥ तथा - शृणोति या वक्ष्यति वा पठेत्तु यः कथामिमा मारपराजयोद्भवाम् । सोऽसंशयं च लभतेऽक्षयं सुखं शीघ्रण कायस्य कवर्थनं विना ॥३॥ अज्ञानेन धिया विना किल जिनस्तोत्रं मया यत्कृतं कि वा शुद्धमशुसमस्ति सकलं नैवं हि जानाम्यहम् । तत्सर्वं मुनिपुङ्गवाः सुरुवयः कुर्वन्तु सर्वे क्षमा संशोध्याशु कथामिमा स्वसमये विस्तारयन्तु ध्र वम् ॥४॥ ॥ इति स्मरपराजयं समाप्तम् ।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] मदनपराजय * २ इस प्रकार चतुनिकायके देवों-द्वारा वन्दित, सुरागनामोंके पवित्र और श्रुति-मधुर गीतों द्वारा गान किये गये, भामण्डलसे प्रतिभासित, मुनि-मानव और यक्षोंके द्वारा स्तुति किये गये और घामरोंसे विजित तथा तीन छत्रोंसे सुशोभित जिनेन्द्र जैसे ही मोक्षके मार्गसे आने के लिए उस हुए, संगमभी पापी हिमाली तप:श्रीसे इस प्रकार कहने लगो ___ सखी तप:श्री, क्या तुम्हें मालूम नहीं है. भगवान् जिनेन्द्र विविध महोत्सवोंसे भुषित और कृतकृत्य होकर मोक्षमार्गकी और प्रस्थान कर रहे हैं ? यदि भगवान् मोक्ष चले गये तो कामदेव सबल होकर चारित्रपुर पर आक्रमण करके पुनः हमलोगोंको कष्ट पहुंचा सकता है। इसलिए हमें भगवान के पास चलकर उनसे यह निवेदन करना चाहिए कि वे मोक्ष जाने के पहले हमलोगोंको सुरक्षाका कोई स्थिर प्रबन्ध करते जावें। संयमधीकी बात सुनकर तप:श्री कहने लगी-सखि, तुम्हारा कथन बिलकुल यथार्थ है। चलो, हम लोग भगवान् जिन राजके पास चल कर उन्हें अपनी प्रार्थना सुनावें । इस प्रकार निश्चय करके ये दोनों सखियां भगवान् जिनेन्द्रकी सेवामें पहुंची और हाथ जोड़कर इस प्रकार विनय करने लगी __ हे पुण्यमूति, त्रिभुवनके यशस्वी, सुन्दर सुवर्ण-वर्ण, बीतराग भगवन्, हमें आपकी सेवामें एक बिनय करनी है । वह यह है कि प्राप तो कृतकृत्य होकर मोक्ष जा रहे हैं, और यदि कामने पुनः 'चारित्रपुरपर आक्रमण किया तो यहां भापके प्रभावमें हम लोगोंको सुरक्षा कौन करेगा? भगवान् जिनेन्द्रने संयमश्री और तप:श्रीको यह बिनय सुनी। उन्होंने भी अनुभव किया कि इनकी विनय वस्तुतः महत्वपूर्ण है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : पंचम परिच्छेद [ १९३ भगवान्ने तत्काल उस वृषभसेन गणधरको बुलाया जो सम्पूर्णशास्त्रसमुद्र के पारगामी थे, चन्द्रकी तरह मनुष्योंको आह्लादित करते थे, मदन- गजके लिए मृगेन्द्र-जैसे थे, दोषरूपी दैत्योंके लिए भ्रमरेन्द्र के समान थे, समस्त मुनियोंके नायक थे, कर्मोके नाश करने में कुशल थे, कुगतिनाशक थे, दया तथा लक्ष्मीके लीलायतन थे, संसारके पाप को प्राक्षित करने वाले थे, याचककि मनोरथ पूर्ण करने वाले थे, समस्त गणधरोंके ईश थे और ज्ञानके प्रकाश थे। और 'बुलाकर जिनराज उनसे इस प्रकार कहने लगे वृषभसेन, देखो हम तो मोक्षपुर जा रहे हैं । तुम तप:श्री, संयमत्री, गुण और तत्वोंसे मण्डित, महाव्रत, श्राचार, दया और नय आदिसे अलङ्कृत समस्त चारित्रपुर निवासियोंकी भली भाँति रक्षा करना । इस प्रकार चारित्रपुरकी रक्षाका सम्पूर्णभार वृषभसेन गणधरको सौंपकर भगवान् जिनेन्द्र बड़े ही प्रानन्दके साथ मोक्षपुर चले गये । इस प्रकार ठक्कुर माइन्ददेवके द्वारा प्रशंसित जिन (नाग) देवविरचित संस्कृतबद्ध मश्नपराजय में मुक्तिस्वयंवर नामक पाँचवाँ परिच्छेद सम्पूर्ण हुआ । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 . - -. - 194 ] मदनपराजय जो व्यक्ति इस मदनपराजयको पढ़ता है और सुनता है उसको सम्यग्ज्ञान और मोक्षकी प्राप्ति होती है। स्वर्गादिककी तो बात ही क्या ? मनुष्यको तभी तक विविध प्रकारकी दुर्गति होती है, तभी तक उसे निगोदमें रहना पड़ता है, तभी तक सात नरकोंमें जाना पड़ता है, तभी तक दरिद्रताका संकट झेलना पड़ता है, और तभी तक प्राणियोंका मन दुःसह पोर घोर अन्धकारसे प्राच्छन्न रहता है, जब तक बह इम मदनपराजय-कपा को नहीं सुनता है / / जो मनुष्य इस मदनपराजय-कथाको सुनता है और उसका वाचन करता है, काम उसे कभी बाधा नहीं पहुँचाता और वह निःसन्देह अक्षय सुखको प्राप्त करता है। ग्रन्थकार कहते हैं, मैं अज्ञानी हूँ। बुद्धि मुझमें है नहीं। फिर भी मैंने इस जिनस्तोत्रकी रचना की है। मैं नहीं जानता कि यह सम्पूर्ण ग्रन्थ शुद्ध है अथवा अशुद्ध / फिर भी समस्त मुनिनाथ और सुकवियोंसे प्रार्थमा है कि वे मुझे इस अपराधके लिए क्षमा करें और इस मदनपराजय-कथामें उचित संशोधन करके इसके लक्ष्यका सदैव प्रसार करें। इस प्रकार मदन-पराजय सम