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मदनपराजय कामदेवसे कहा-अरे नीच काम, तू मेरी बाणाग्निमें पतङ्गकी तरह व्यर्थ ही क्यों झ लसना चाहता है ? चल, चल यहाँसे ।
जिनराजकी बात सुनकर कामदेवकी क्रोधाग्नि भड़क उठी । वह कहने लगा-अरे जिनराज, क्या तुम्हें मेरा चरित्र याद नहीं है ?
मेरे भयसे ही रुद्रने गङ्गाको लाधा। मेरे भयसे ही जल समुद्र में गया। मेरे भयसे ही इन्द्र स्वर्ग में गया और मेरे भयसे ही धरणेन्द्र अधोलोकमें गया।
मेरे भवस हा सूर्य के निकट छपा, और मेरे भयले ही ब्रह्मा मेरा सेवक बना। इस प्रकार चराचर तीनों लोकमें मेरा कोई प्रतिभट नहीं है।
यह सुनकर जिनराज कहने लगे-भरे काम, तुम्हारी शूरवीरता वृद्ध, गोपालक मोर पशुपतियोंतक ही चल सकती है। हमजैसोंके ऊपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । और हम-जैसा तो तुमने स्वप्न में भी पराभूत नहीं किया होगा। फिर इतने पर भी यदि तुम मेरे साप लड़नेकी क्षमता रखते हो तो पाकर मेरा सामना करो।
यह सुनकर कामने मदोन्मत्त और दुर्नय रूपसे चिपाड़ता हुप्रा मन-मातङ्ग जिनेन्द्र के ऊपर छोड़ दिया।
यह मन-मतङ्गज, उन्नत संसाररूपी शुण्डादण्ड, कषायरूपी चार चरण, राग-द्वेषरूपी दांत और पाशारूपी दो लोचनोंसे मनोहर
था।
इस प्रकार मनोगजको आता हुमा देखकर जिनराजने अपने हाथोसे उसे छेड़ दिया और तत्पश्चात् दृढ़ मुद्गरके प्रहारसे मारकर उसे भूतल पर गिरा दिया।