________________
प्रथम परिच्छेद
[४५ "भवस्य बीजं नरकस्य द्वारमार्गस्य दीपिका ।
शुचां कन्दः कलेमूलं पररामा, ततस्त्यजेत् ।।२६॥" अन्यच्च"सर्वस्वहरणं बन्धं शरीरावयवच्छिदाम् ।
मृतश्च नरपोर लभते गारनारिका: ।।१०।। नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यञ्च भवे भवे ।
भवेन्नराणां मूढानां पररामाभिलाषत: ॥३१॥ दत्तस्तेन जगत्यकीत्तिपटहो गोत्रे मषोकूर्चक
श्चारित्रस्य जलालिगुणगणारामस्य दावानलः । संकेतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढ़ः कामात स्त्यजति प्रतोदकभिदा (5) स्वस्त्रों परस्त्रीं न यः
॥३२॥" १६ जैसे हो रति निर्ग्रन्थ-मार्गसे जा रही थी, मकरध्वजके प्रधानसचिव मोह उसके सामने आ गये। मोहने देखा कि रति बहुत ही क्षीण हो गयो है और चिन्तित भी है रतिको इस प्रकारको अवस्था देखकर उसे बड़ा विस्मय हुआ और वह रतिसे कहने लगादेवि, आपने यह विषम मार्ग किसलिए अङ्गीकार किया है ?
मोहकी बात सुनकर रतिने उसके सामने समस्त घटना-चक ज्योंका स्यों रख दिया।
रतिकी बात सुनकर मोहने कहा-देवि, जिस समय संज्वलनने अपनी विज्ञप्ति सुनायी थी मैं उसी समय भांप गया था कि आगे इस प्रकारका घटनाचक्र चलेगा। मैं भी महाराज मकरध्वज की प्राज्ञानुसार सैन्य तैयार करनेके लिए गया था और लौटकर ही न आ पाया कि महाराजने आपके लिए इस प्रकारको अनुचित आज्ञा दे डाली !
मोहकी बात सुनकर रतिने कहा-मोह, जो विषयी होते हैं उन्हें उचित-अनुचितका विवेक नहीं होता। कहा भी है :