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________________ १२ ] मदनपराजय "राजा भृत्योंसे प्रसन्न होकर उन्हें केवल धन ही देता है । लेकिन भृत्य यदि राज-सम्मानित होते हैं तो अवसर आनेपर राजाके लिए उ.पने प्राण तक निछावर कर डालते हैं।" इस तथ्यको ध्यान में रखते हुए राजाका कर्तव्य है कि वह कुशल, कुलीन, शूरवीर, समर्थ, भक्त और परम्परासे चले पाये हुए भृत्योंको गाने 'हाँ स्थान दे ! कोंकि नीतिकारों का कथन है ___“बलाधान एकसे नहीं होता । बलके लिए समुदाय वाञ्छनीय रहता है। अकेला तिनका कुछ नहीं कर सकता। लेकिन रस्सीके रूपमें उन्हीं तिनकोंका समवाय हाथीको भी बन्धनमें रखता है।" मोह कहता गया-'इसलिए आपको अकेले समर-भूमिमें नहीं उतरना चाहिए।' मोहकी बात सुनकर मकरध्वजने धनुष-बाण एक ओर रख दिया और अपने प्रासनपर बैठ गया। वह मोह-से फिर कहने लगामोह, यदि तुम्हारा इस तरहका आग्रह है तो समस्त सैन्य तैयार करके तुम यहाँ जल्दी ग्रामो। ___मोह मकरध्वजसे कहने लगा-महाराज, अब कही है आपने ठिकानेकी बात । लोजिए, मैं यह चला। इतना कहकर उसने मकरध्वजको प्रणाम किया और वह वहाँसे चल पड़ा। मोह-योधाके चले जानेके पश्चात् मकरध्वज इस प्रकार गंभीर चिन्तामें निमग्न हो गया "वह सोचने लगा-वह समय कब पावेगा जब रात्रिके पिछले समय रति-खेदसे खिन्न होकर मैं क्षणभरके लिए मदमत्त हाथीके गण्डस्थलके समान विशाल और कुकुमसे आई मुक्ति-कन्याके स्तनयुगपर प्रपना मुख रखकर उसकी भुजाओंमें बँधा रहूँगा।"
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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