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प्रथम परिच्छेद
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एवं तस्य वचनमाकण्यं सवाणं कार्मुकं परित्यज्योपविष्टः । ततो मोहं प्रत्यवोचत-भो मोह, यो तस्वं सकलसैन्यमेलनं कृत्वा इसतरमागच्छ ।
ततो मोहो जजरूप-देव, एवं भवति युक्तम् । एकमुमत्वा तं मकरध्वनं प्रणम्य निर्गतः । अथ मोहमले गते सति मकरध्वजः अतावस्था व्याप्सः श्लोकमेन(स) मपठत"मत्त भकुम्भपरिणाहिनि कुङ कुमा
तस्याः पयोधरयुगे रतिखेदखिन्नः । वक्त्रं निधाय भुजपजरमध्यवर्ती
स्वप्स्ये कदा क्षणमहं क्षणदावसाने ॥११॥" * ५ जब मोहने देखा कि मकरध्वज जिनराजसे लड़ाई लड़ने चल ही पड़ा है तो वह कहने लगा-अरे महाराज, पाप इस प्रकार उत्सुकतासे कहीं जा रहे हैं ? मेरी बात तो सुनिए । अपनी शक्तिको बिना पहिचाने युद्ध के लिए नहीं जाना चाहिए । कहा भी
मजो मनुष्य अपने बलका विवेक न रखकर युद्ध के लिए तैयार होता है वह अग्निके सम्मुख आए हुवे कोट-पतंगकी तरह भस्म हो जाता है ।" और
"जिस प्रकार तेजस्वी भी सूर्य किरणों के प्रभावमें न स्वयं ही सुशोभित हो सकता है और न प्रकाश ही कर सकता है उसी प्रकार भृत्योंके बिना राजा भी लोकका उपकार नहीं कर सकता।" प्रथ च
"जाका भृत्योंके बिना काम नहीं चल समाता और भृत्योंका राजाके धिना। इस प्रकार राजा और भृत्योंको स्थिति एक-दूसरे के प्राश्रित समझनी चाहिए। साथ ही