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________________ द्वितीय परिच्छेद [ ६९ सैन्यसमन्वितो रतिनाथः समागमिष्यति । एवमुक्त्वा तो प्रस्थापयामास । ७ मकरध्वज ने कहा- मोह, तुमने बहुत उपयुक्त बात सुकायी है । लेकिन दूत कार्य कुशल होना चाहिए । मोने कहा -- महाराज, राग और द्वेषको बुलवाइए और इन्हें दूतत्वका भार समर्पित कीजिए । काम कहने लगा - मोह. क्या राग और द्वेष सफलता के साथ तत्वका निर्वाह कर सकेंगे ? 4 मोहने कहा- स्वामिन्, राग-द्वेषको छोड़कर और कौन प्रशस्त दूत हो सकता है ? ये दूतत्व के लिए बहुत सुयोग्य है। कहा भी है : "राग और द्वेष अनादिकालीन महान् ग्रह हैं और ये ही अनन्त दुःख-परम्परा के प्रथम श्रड कुर हैं ।" और "यदि संयमी अपनी चित्तवृत्तिको प्रत्माभिमुख करता है तो भी राग और द्वेष उसे भवसागरमें डुबोते हैं ।" तथा "ये राग और द्व ेष देहधारियोंके मनमें अनायास ही हो जाते हैं । ये महान् बीर हैं और ज्ञानराज्य के समूल विध्वंसक हैं । राग और द्वेष मनको कहीं भुलाते हैं, कहीं भ्रमाते हैं। कहीं डराते हैं कहीं रुलाते हैं। कहीं शंकित करते हैं और कहीं दुख देते हैं ।" कामने राग और द्वेषका इस प्रकारका विक्रम वर्णन सुनकर उन्हें बुलवाया और अपने शरीर के वस्त्र और आभूषण देकर उनका खूब सम्मान किया। तदुपरान्त उनसे कहा- क्या श्राप लोग कुछ दूतकार्य कर सकते हैं ? राग-द्रष कहने लगे-देव, कहिए क्या आज्ञा है ? हम श्रवश्य उसका अनुपालन करेंगे ।
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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