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________________ द्वितीय परिच्छेद . [ ६५ मन्त्रसिद्धिकी बातका अन्य मित्रोंने तो खयाल नहीं किया लेकिन वणिकपत्रके मनमें उसकी बात समा गयो। उसने सोचा, कदाचित् मन्त्रसिद्धिने इस लकड़ी के शेरको जीवित कर दिया तो महान् अनिष्ट उपस्थित हो जानेको आशङ्का है। इसलिए मुझे दूर रहकर ही इस घटनाका निरीक्षण करना चाहिए । क्योंकि मणि, मन्त्र और प्रौषधियोंका अचिन्त्य प्रभाव हुमा करता है । इस प्रकार सोचकर जैसे हो वणिकपुत्र यहांसे चलने लगा, उन दोनों मित्रोंने उससे पूछा- मित्र कहां जा रहे हो ? वणिकपुत्रने उत्तरमें कहा-मैं लघुशङ्का करने जा रहा हूँ। अभी प्राता हूँ। इतना कहकर जसे ही वरिणकपुत्र वहांसे चला, उसे सामने एक वृक्ष दिखलायी दिया--- "उस वृक्षकी छाया मृग सो रहे थे, पत्तोंमें पक्षियोंने घोंसले बना रखे थे, खोखलोंमें कीड़े निवास कर रहे थे, शाखाओंपर बन्दर डेरा डाले हुए थे और भ्रमर जिसके कुसुम-रसका पान कर रहे थे। वरिणकपुत्रने इस वृक्षको देखकर कहा - वास्तवमें इस प्रकारके वृक्षका हो जन्म सार्थक है, जो अपने सर्वांगसे अनेक प्राण-धारियोंको सुख दे रहा है। अन्य प्रकारके वृक्ष, जिनसे किसी भी सचेतन का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, पृथ्वी के लिए केवल भार-स्वरूप ही हैं।" इस तरह विचारकर परिणकपुत्रने अपनी निद्रा भंग कर दी. और वृक्षपर चढ़कर मन्त्रसिद्धि के क्रिया-काण्डको देखने लगा। - तदुपरान्त मन्त्रसिद्धि ध्यानारूढ़ होकर मन्त्रका जाप करने लगा और इस प्रकार उसने इस काष्ठमय शेर में जीवन डाल दिया। शेर जीवित हो गया। उसने मेधकी तरह भयंकर गर्जन और अट्टहास किया। नेत्रों को पलाशके अङ्गारेको तरह लाल किया । और अपनी एक हो उछाल में पूछको हिलाता हुआ वह तीनोंके सामने आ गया और तीनों को मारकर गिरा डाला।
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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