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________________ १२२ । मदनपराजय कृतः । चतुर्थ स्वयमेवा क्रम्यागतोऽस्ति । तदंतच्छल सिद्धपङ्गनाथ परित्यजन् न लज्जेऽहम् । अन्यच, यदि कथमपि जिनं संग्रामे प्राप्नोमि, तत्सुरनरकिन्नरयक्षराक्षसफणीन्द्रादीनां यत् कृतं तत् करिष्यामि । यतो हि प्रसूतदिवसपर्यन्तं स्वगृहाभ्यन्तरे गजनां कुर्वन् सुखेन स्थितः । अतो महामुरायां पतितः कुतो यास्यति । उक्त च"तावच्छौर्यं ज्ञानसम्पत् प्रतिष्ठा तावच्छीलं संयमः स्यात्तपश्च। तावत् सिद्धिः सम्पदो विक्रमो वै यावत् क्रुद्धः सङ्गरे नाहमेकः ।।६।।" * इस प्रकार दोनों पक्षकी सेनाओंका कोलाहल सुनकर नंज्वलनने अपने मनमें सोचा कि क्या कामदेव मूर्ख हो गया है जो उसे यह भी मालूम नहीं है कि उसकी सेना कहाँ तक शक्ति-सम्पन्न है ? समझमें नहीं पाता कि स्वामोके पास जाकर क्या कहूँ ? क्योंकि "मुखं पुरुषोंको उपदेश देनेसे उन्हें क्रोध ही आता है। बातका समाधान तो कुछ होता नहीं। जिस प्रकार सांपको दुग्ध-पान करानेका परिणाम विष-वृद्धि ही होता है। जिस प्रकार नासिकाविहीन पुरुषको दर्पण बुरा लगता है उसी प्रकार मूर्ख पुरुषको सन्मार्ग का उपदेश भी अच्छा नहीं मालूम देता। संज्वलन सोचता है---वैसे मूर्खता मुझे बड़ी अच्छी लगती है। क्योंकि उसमें आठ गुण हैं-- मूर्ख आदमी निश्चिन्त रहता है। बहुत भोजन करता है । उसकी पाचनक्रिया ठीक रहती है। रात-दिन सोनेको मिलता है।
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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