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________________ अतुर्थ परिच्छेद [ १६१ नदी-नद और तड़ाग आदिको सुखाती हुई तत्क्षण जिनराजके पास दौड़ती हुई पहुंची। जिनराजने जसे हो दिल्याशिनीको प्राते हुए देखा, उसने अधः कर्म बारणोंसे उसपर प्रहार किया । पर इतनं पर भी उसके अाक्रमणका बेग अवरुद्ध नहीं हुमा । अतः इस बार जिनराजने प्रमल प्रतिरोधक चान्द्रायण प्रभृति बाण-समूहोंकी उसपर वर्षा की। परन्तु यह बाणवर्षाभी व्यर्थ सिद्ध हुई। इसके विपरीत दिव्याशिनी क्रुद्ध वेष में सामने आई और कहने लगी-जिन राज, तुम अभिमान छोड़ दो और मेरे साथ संग्राम करो। उत्तरमें जिनराज कहने लगे-दिव्याशिनी, तुम्हारे साथ युद्ध करने में हमें लाज लगती है । क्योंकि क्षत्रिय स्त्रियोंके साथ युद्ध नहीं करते। जिनराजके इस प्रकार कहते ही दिव्याशिनीने अपना मुह धरतीसे लेकर पासमान तक फैला लिया, अपनी विकराल दाढ़ोंको बाहर निकाल लिया और भयंकर वेप बनाकर अट्टाहास करती हुई जिनराजके और निकट पहुंच गयी। तदुपरान्त जिनराजने एकान्तर, तेला, पाठ दिनके उपवास, रसपरित्याग, पक्ष, मास, ऋतु अयन, और वर्षके उपवास आदि बारगजालोसे उसे छेद दिया और वह भूतलपर जा गिरी। जब मोहने देखा कि जिनराजने दिव्यशिनोको भी भूतलपर गिरा दिया है तो वह जाकर कामसे कहने लगा-देव, अब भी आप क्या देख रहे हैं। जिस दिव्याशिनोके वलपर आप साहस धारण किए थे वह भी युद्ध में गिरादी गयी है। और स्वाति नक्षत्र में होनेवाली निर्मल जल-वृष्टिी की तरह जिनराजको बाण-वर्षा अब भी अविराम हो रही है। इसलिए इस समय प्राप तो यहाँसे चले जाइए। मैं एक क्षणतक आपकी खातिर जिनराजको सेनासे लगा । कदाचित मेरे संग्रामसे प्रापका हित साधन हो सके।
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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