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प्रथम परिच्छेद
[ ३३ मनसि बधिरे । एके स्वातीतामागत भवपृच्छां कुर्वन्ति स्म । एवं यावत्तत्र लोकमहोत्सदो वति तावत्तस्मिन्नवसरे सा जिनदत्ताङ्गना सम्मुखं स्थित्वा प्रणम्योवाचभगवन, अस्मत जिनवासस्च कोशी गतिः संजाता, तत् कथनीयं भवद्भिः तच्छ तथा ते ज्ञान हष्टया विललोकिरे । ततः प्रोच:-हे पुत्रि, कि कथ्यते ? कथनं योग्यं न भवति । सतः साऽनवोत्-भो भगवन, किमस्मिन् भवद्भिः शङ्का कर्तव्या ? यतोऽस्मिन् संसारे उत्तमो जीयोऽप्यधमः स्यावधमोऽप्युत्तमः स्यात् । अथ ते प्राहु:-हे पुत्रि, ययेवं तत्तव भर्ता स्वगहाङ्गणवायां ददुरो भूस्वाऽऽस्ते।
__ * १४ जैसे हो राजाने वनपाल के मुखरो मुनियोंके आगमनका समाचार सुना वह तत्काल सिंहासनसे उठ बैठा और उस दिशामें सात कदम आगे चलकर मुनिराजों को भावपूर्वक नमस्कार किया ! इसके पश्चात् वह अन्तःपुर और अपने परिकरके साथ मुनि-वन्दनाके लिए चल पड़ा । जर पुर-वासियों को पता चला कि राजा मुनिबन्दनाके लिये जा रहे हैं तो पुरवासी समस्त श्रावक और जिनदत्ताप्रमुख श्राविकाएँ भी भक्तिसे गद्गद होकर मुनि-दर्शनके लिए चल दी।
मुनियोंके निकट पहुँचते ही सबने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया । तीन प्रदक्षिणा की और नमस्कार करके यथास्थान बंठ गये। उपस्थित श्रामक-श्राविकामों में से कोई विराग-दीक्षाकी प्रार्थना करने लगे। कोई धर्म-चर्चा सुनने लगे। कोई गद्य-पद्यमय स्तवनों से स्तुति करने लगे। कोई मुनिदर्शन कर अपनेको धन्य-धन्य कहने लगे। कोई अपने अतोत भव पूछने लगे।
वहाँ इस प्रकार जन-समूह आनन्द लाभ ले ही रहा था कि ऐसे समय जिनदत्ताने मुनिराजको प्रणाम किया और कहने लगी.
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