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प्रथम परिच्छेद
हरिदेवने जिस कथा (मदन-पराजय) को प्राकृतमें लिखा था, भव्य जीवोंके धामिक विकासकी दृष्टिसे मैं उसे संस्कृत में निबद्ध कर रहा हूँ।
मैं यहां जिस कथाको चर्चा कर रहा हूँ, वह भव्यजनों का विवेक जागृत करनेवाली है और प्रविनश्वर सुख देने वाली है। संसार-सागरकी महत् ऊमियोंको विलीन करती है और श्रोतानोंको अत्यन्त प्रिय है। इतना ही नहीं, इस कथाके सुननेसे पूर्व जन्मके समस्त पाप समुल धुल जाते हैं और दारिद्रय तथा भय भाग जाते हैं ।
__ कथा इस प्रकार है :
* २ अस्ति मनोहरमेकं भवनाम पत्तन प्रसिद्धम् । तत्रेषकोदण्डमण्डितो मकरध्वजो नाम राजाऽस्ति । सेन मकरध्वजेन सकलसुरसुरेन्द्रनर नरेन्द्रणिफणीन्द्रप्रभृतयो दण्डिताः । एवंविधस्त्रैलोक्यविजयो युवाऽतिरूपवान् महाप्रतापी त्यागी भोगी रतिप्रीतिभाद्वियो 'मोहप्रधानसमन्वितः सुखेन राजक्रिया वर्तमानोऽस्यात् ।
सच मकरध्वज एकस्मिन् दिने शल्यत्रबगारवत्रय दण्डनायकम्मष्टिकाष्टावशदोषालय-विषयाभिमानपदप्रमाव - दुष्परिणामासंयमसप्तव्यसनभटप्रभृतिभिः सर्वैः सभासदेखेंटितोऽपरराजबद्वाजते । एषम पैरपि नरनरेन्द्रः सेवितो मकरध्वजः सभामण्डपे मोहं प्रति वचनमेतदुवाच
भो मोह, लोकत्रयमध्ये काचिवपूर्वा वार्ता ताऽस्ति ? प्रय मोहोऽसयोस्-देव, वातका पूर्वा श्रुताऽस्ति । तदै (बे)
कान्ते भवद्भिः च यताम् ।