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प्रथम परिच्छेद
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स्थापितमासीत् तद्गन्धजनितार्तेन प्राणान् परित्यज्य तक्षाणात्तस्मिन्न वैर्वारुकमध्ये कृमिजज्ञिरे । तत: श्रावकजना मिलित्वा महोत्सवपूर्वकं शरीरसंस्कारं चक्रिरे ।
* ६ कामने कहा-यह कैसो बात? रतिने कहा-प्राणनाथ, सुनिए। और वह कहने लगी
किसी प्रदेशमें चम्पा नामकी नगरी थी। इस पुरीमें प्रतिदिन उत्सव हुआ करते थे। यह दिव्य जिनालयोंसे विभूषित यो और जैन धर्माचारका अाचरण करनेवाले श्रावकोंसे महनीय थी। एक और इसमें सघन और हरित वृक्षावली लहरा रही थी तो दूसरी भोर समस्त भूखण्डके उत्सङ्गमें विहार करनेवाली रमणीय रमणियोंके विलास-चलित चतुर चरणोंमें रणित होनेवाले नूपुरोंकी रुनझुन दिगन्तराल में झनझ ना रही थी। एक भोर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्ग के गुणोंमें अनुरागशील शूद्रजनोंका निवास था तो दूसरी ओर अनेक देश तथा विदेशोंसे सुपात्र और ज्ञानपिपासु विद्यार्थी भी यहाँ झुण्ड-के-झ गड आ रहे थे। यह नगरी विभिन्न विषयोंके सैकड़ों अधिकारी विद्वानोंसे अलंकृत थी और पुर-बधुप्रोंके मुख चन्द्रको ज्योत्स्नासे प्रकाशित वसुधाकी धवल सौधमालासे सुशोभित थी।
____इस चम्पानगरीमें हेमसेन नामके एक मुनिराज किसी जिना. लयमें कठोर तपस्या करते थे। इस प्रकार कठिम तप करते-करते उन्हें बहुत दिन बीत गये और कुछ दिनों के बाद उनकी मृत्यु-वेला या पहुँची। अब मुनिराजको मृत्युका समय अति सन्निकट प्रा पहुंचा तो समस्त श्रावक वहाँ एकत्रित हो गये और वे अनेक प्रकारके फूलफल आदिसे उनकी प्राराधना तथा पूजा करने लगे।
संयोगकी बात है, जिस दिन हेममेन मुनिराज दिवंगत होने जा रहे थे उस दिन उस चैत्यालयमें भगवान्की प्रतिमाके सामने एक