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________________ द्वितीय परिच्छेद [ द्वितीय परिच्छेद ] * १ मकरध्वजने जैसे ही रतिके साथ वापिस पाये हुए मोहको देखा वह लज्जासे लाल-लाल हो गया और उसके मुखसे एक शब्द भी न निकला । इतने में मोहने मकरध्वजसे कहा- महाराज, श्रापने यह कैसा अनुचित कार्य किया है? आप इतने अधीर हो गये कि मुझे लौटकर कापिस भी न जाने दिया ? फिर स्वामिन् क्या किसीने को अपनी पत्नीको दूत बनाया है ? और क्या आपको इतना भी नहीं मालूम है कि नित्य-मार्ग कितना विषम है ? कदाचित् इस मार्ग से जाती हुई रतिको मुक्ति-स्थान के संरक्षक हत्या कर देते तो इस महत् श्रात्म-हत्या के पापका कौन भागी होता ? संसार भर में जो तुम्हारा अपयश फैलता वह अलग। इसलिए मेरी अनुपस्थिति में तुमने ठोक मन्त्र नहीं किया। कहा भी है : '— "अनुचित परामर्शसे राजा नष्ट हो जाता है। परिग्रह से यति नष्ट हो जाता है। लाड़ करनेसे पुत्र नष्ट हो जाता है । अध्ययन न करने से ब्राह्मण नष्ट हो जाता है। कुपुत्र से कुल नष्ट हो जाता है । दुर्जनसंसर्गसे शोल नष्ट हो जाता है। स्नेहके न होनेसे मंत्री नष्ट हो जाती है। अनीतिसे समृद्धि नष्ट हो जाती है । परदेशमें रहनेसे स्नेह टूट जाता है । मद्यपानसे स्त्री दूषित हो जाती है। देख-भाल न रखनेसे खेतो नष्ट हो जाती है। त्यागसे और प्रभावसे धन विनस जाता है " [ ५१ मोहने कहा इसलिए राजा का कर्त्तव्य है कि वह विना मन्त्रीके कदापि मन्त्र करे । - मोहकी बात सुनकर मकरध्वज कहने लगा- अरे मोह, वारबार एक ही बात क्यों दुहरा रहे हो ? तुम जिस काम के लिए भेजे गये थे उसे तुमने कंसा किया ? पहले यह बतायो । मोह उत्तर में कहने लगा-- स्वामिन् आपने मुझे जिस कार्यसंन्यसंमेलन - के लिए भेजा था, वह कार्य में कर चुका। साथ ही
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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