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________________ द्वित्तीय परिच्छेद [ ५९ यस्यास्तिस्य मित्राणि, यस्यास्तिस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमाल्लोके, यस्यार्थाः स च जीवति ।१५। इह लोकेऽपि धनिनां परोऽपि स्वजनायते । स्वजनोऽपि दरिद्राणां तत्क्षणाद् दुर्जनायते ।।१६।।" तथा च“पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते । वन्द्यते यदवन्द्योऽपि तत् (स) प्रभावो धनस्य च ।।१७।। अर्थेभ्यो हि बृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्य यतस्ततः । प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इथापगाः ।।१८।। अशनं चेन्द्रियाणां (नादिन्द्रियाणीव) स्युः कार्याण्य खिलान्यपि । एतस्मात् कारणाद्वित्त सर्वसाधनमुख्यते ॥२६॥" एवं तस्य वचममाकण्यं ते प्रोस:-भो मित्र, एवं भवति युक्तम् । एवं पर्या लोच्य चस्वारो देशान्तरं निर्जग्मुः । * ४ इस प्रकार तीनोंकी बात सुनकर शिल्पकारने कहायदि यह बात है तो हमलोगोंको देशान्तर में जाकर कुछ द्रव्योपार्जन करना चाहिए। अपने देश में तो कुछ दिन रहना ही ठीक है । नीतिकारोंका कथन भी है कि : "जो पुरुष परदेश जानेसे डरते हैं, अति प्रालसी और प्रमादो हैं वे पुरुष नहीं हैं, बल्कि काक, कापुरुष और मृग हैं। तथा अपने देशमें रहते-रहते ही उनको मृत्यु हो जाती है ।" अप च "शक्तिशालियोंके लिए क्या वस्तु भारभूत है और व्यवसाथियों के लिए क्या दूर है ? विद्वानोंके लिए क्या विदेश है और मधुर-भाषियों के लिए कौन पर है ?-कोई नहीं।" एक बात पौर
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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