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मदनपराजय
स्वप्नके समान निःसार श्री पुत्र एवं प्रिय स्त्री आदि तृणाग्निके सद्दश क्षणनश्वर मालूम हुए। इस प्रकार मैंने सबको अरणनश्वर भीर अशाश्वत समझ कर छोड़ दिया है ।" तथा
"शरीर रोगसे प्राक्रान्त है और यौवन जरासे । ऐश्वर्यके साथ विनाश लगा है और जीवन के साथ मरण
जब स्त्रो नरकका द्वार है, दुःखोंकी खानि है, पापोंका बीज है, कलिका भूल है, फिर उससे आलिङ्गन आदि कैसे संभव है ?
चपल (जह्वावाली क्रुद्ध सर्पिणीका आलिंगन उचित है । लेकिन नरक पद्धति नारीका कौतुक वश भी श्रालिङ्गन करना उचित नहीं है।" और-
"मैथुन धतूराके फलके समान प्रथमतः रम्य श्रौर परिणाम में अत्यन्त भयंकर है। अनन्त दुःख परम्पराका मूल है और नरकका महान् कारण है । कोई भला प्रादमी इसका सेवन कैसे कर सकता है ?
जिस प्रकार कुत्ता हड्डी चबाकर अपने तालुका रक्त पीते हैं, उसी प्रकार ढोंगी विट भी मैथुन के सुखका अनुभव करते हैं ।"
इसलिए इस सम्बन्ध में अधिक कहने की जरूरत नहीं है । मैं अवश्य हो सिद्धि-अंगना के साथ विवाह करूँगा और इस प्रकार ही मुझे शाश्वत सुख मिल सकेगा । और:
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मुझे समराङ्गण में यदि मोह, बाण और सैन्यसहित काम मिल गया तो मैं उसे निश्चयसे निर्वीय कर दूँगा ।
* १२ एवं जिनवचनमाकर्ण्य रागद्वेषौ फोपं गरवा प्रोचतुः - भो जिनेश्वर, किमेतन्मुखच्चापल्या प्रस्तुतं वदसि ? सतां स्वयमेव स्वप्रसमा जल्पनं न युक्तम् । तावत्त्वं शाश्वतं