SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : प्रथम परिच्छेद [ ४७ नहि भवति यत्र भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति यस्य च भवितव्यता मास्ति ॥३७॥" ततो रतिरुवाच - भो मोह तदधुना कि कर्त्तव्यम् । तत्कथय । अहंचेत् त्वया सह भूयोप्यागमिष्यामि तम्मां दृष्ट्या स कामोऽतिकोपं यास्यति तत्वं गच्छ हे मागमि व्यामि । मोहः प्राह हे वेवि, युक्तमेतन्न भवति । भवतीभिरवश्यमागन्तव्यम् । रतिराह भी भीह, त्वं तत्र मां नोवा किं तावत् प्रथमं भविष्यसि ? स मोहः प्राह उत्तरादुसरं वाक्यं वदतः सम्प्रजायते । सुषृष्टिगुणसम्पन्नाद् बीजाद्द्बीजमिवापरम् ॥६६॥ एवमुक्त्वा रतिरमण्या सह कामपार्श्वे समागतो मोहः । इति ठक्कुरमा इन्ददेवस्तुत जिन (नाग) देवविरचिते स्मरपराजये संस्कृतबन्ध अतावस्थानामप्रथमपरिच्छेदः । १॥ * २० रसिकी इस प्रकार विस्तृत बात सुनकर मोहमल्लने कहा - देखि, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, लेकिन भवितव्यता अन्यथा नहीं हो सकती । कहा भी है : "जिसकी जैसी भवितव्यता होती है वह होकर रहती है। और वह भी उसी रूप में होती है, अन्यथा नहीं । मनुष्य या तो भवि तव्यता के रास्ते पर खींच लिया जाता है या वह स्वयं हो उस रास्ते से प्रयाण करता है । जो भविष्य नहीं है वह कभी नहीं होता और जो भवितव्य होता है वह अनायास भी होकर रहता है । यदि भवितव्यता नहीं है तो हमेलोक रखी हुई वस्तु भी विनस जाती है ।"
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy